Be careful to know this as well: how pure is our food and drink
हम सभी जानते हैं कि रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से हमारी मिट्टी, हवा, पानी, सब्ज़ियां, फल, अन्न प्रदूषित हो चुके हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि आगामी 5 वर्षों में विश्व की कम से कम 30 प्रतिशत आबादी के कैंसर और अन्य भयंकर बीमारियों की चपेट में आने का अनुमान है।
कहते हैं ना… जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पानी वैसी बानी। भोजन, पानी,साँस और नींद, हमारे जीवन के 4 ऊर्जा स्रोत हैं।आज भोजन और जल रसायन रूपी ज़हर से भरे हैं…. वायु में ऑक्सीजन लेवल मानकों से कई गुना कम है… और तो और, वायु में बहुत सी ज़हरीली गैसें घुली हुई है।ये सब मिलकर हमारे मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर स्लो- पॉइज़न की तरह काम कर रहे हैं।
इसी रसायन रूपी ज़हर से हमारे पर्यावरण, मिट्टी, जल, भोजन को मुक्त करने की दिशा में सरकार एवं अन्य बहुत सी गैर सरकारी संस्थाओं जैसे आर्ट ऑफ लिविंग द्वारा उठाया गया एक सराहनीय कदम है जैविक खेती।
यह ऋग्वेद के परंपरागत वैदिक खेती के ज्ञान पर आधारित है जिसमे बिना कोई रसायन प्रयोग किये सिर्फ देसी गौ माता के मूत्र और गोबर से धरती माँ की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति बढ़ाने, जड़ी बूटियों द्वारा अपने पर्यावरण (हवा,पानी,मिट्टी,आस पास का वातावरण) को प्राकृतिक रूप से शुद्ध करने के तरीके बताए जाते हैं।
अपने लिए रसायन मुक्त सब्ज़ियां, फल, खाद्यान्न उगाना सीखना भी इस कोर्स का एक महत्वपूर्ण भाग है।
एंजाइम बनाने की प्रक्रिया में लगातार ओजोन गैस का निर्माण होता रहता है जो सीधे हवा में घुलती रहती है। ज़रा सोचिए… सभी लोग हर महीने सिर्फ एक बोतल भी एंजाइम बनाना शुरू कर दें, तो पर्यावरण की बेहतरी में कितना बड़ा योगदान होगा।
एंजाइम के इस्तेमाल से वायु के साथ ही पानी, मिट्टी, खाद्यान्नों से भी रसायनों का असर खत्म होने लगता है और लगभग दो सालों तक उपचारित होने के बाद वहां का पर्यावरण अपनी हज़ारों वर्ष पूर्व वाली प्राकृतिक अवस्था मे आ जाता है। आने वाली पीढ़ियों और अपनी पृथ्वी को हमें रसायनों के दंश से बचाना है तो अपने स्तर पर छोटे छोटे ऐसे प्रयास आरम्भ करने ही होंगे।
साठ के दशक की हरित क्रांति के बाद भारत में फर्टीलाइजर्स एवं कीटनाशकों के रूप में रसायनों का शुरू हुआ प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। लगभग 20 वर्षों के अंदर ही सारा देश ऐसी बीमारियों की गिरफ्त में है, जो पहले कभी अस्तित्व में नही थीं। कैंसर, ब्लड प्रेशर, ऑटिज़्म, डाइबिटीज़, बच्चों में जन्मजात विकृतियां प्रजनन क्षमता की कमी, त्वचा, लिवर, यकृत, मस्तिष्क, श्वसन व पाचन तंत्र की जानलेवा बीमारियां आदि।
सरकारी व गैरसरकारी संगठनों के द्वारा किये गए लगातार शोध से ये प्रमाणित हो चुका है, कि फसलों पर छिड़के जाने वाले रसायनों से हमारे अन्न, हवा, पानी यहां तक कि हमारी मिट्टी भी जहरीली बन चुकी है जिसके चलते हम लोग लगातार धीमे जहर का शिकार बन रहे हैं। दुधारू पशुओं का दूध भी आज जहरीला चारा खाकर धीमा जहर बन चुका है।
कीटनाशकों में सबसे जहरीले रसायनों में एक है एंडोसल्फान जो विश्व के अधिकतर देशों में प्रतिबंधित होने के बावजूद भारत समेत कुछ अन्य विकासशील देशों में पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों व अन्य जागरूक लोगों के भरपूर विरोधों के बावजूद खुलेआम उपयोग में लाया जा रहा है।
भोपाल गैस त्रासदी आपमे से बहुत लोगों को याद होगी, जिसके दुष्प्रभावों से आज 2 पीढियों बाद भी लोग त्रस्त हैं वो एंडोसल्फान बनाने का ही कारखाना था। एक चौंकाने वाला सत्य यह भी है : कुछ वर्ष पूर्व आईआईटी कानपुर द्वारा ढूध पिलाने वाली माँ ओ से दूध के नमूने एकत्र करके परीक्षण किया तो, सरकारी खाद्य संस्थाओं द्वारा तय मानकों से 800 प्रतिशत ज्यादा एंडोसल्फान उन माँ ओ के दूध में मौजूद था। जो उनके खाने, हवा व पानी द्वारा उनके शरीर मे घुल चुका था।
विचार करने योग्य है कि आज माँ का दूध नवजात शिशु और पर्यावरण के लिए कितना सुरक्षित है? इस अप्रत्याशित सत्य से बचने का हमारे पास केवल एक ही विकल्प है। ऋग्वेद आधारित प्राकृतिक खेती अपनाना। बेशक… समय लगेगा, पर मुमकिन है।
(लेखिका सोशल वर्कर हैं और स्प्रिच्युअल एवं कल्चरल एक्टिविटी करती रहती हैं)
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