हरियाणा के चुनाव नतीजों के बाद दिल्ली में मल्लिकार्जुन खड़गे के घर पर जो समीक्षा बैठक हुई उसके बाद से कांग्रेस में इस बात की चर्चा है कि पार्टी प्रादेशिक क्षत्रपों को काबू में करने के उपाय तलाश रही है क्योंकि एक के बाद एक कई राज्यों में कांग्रेस प्रादेशिक क्षत्रपों के टकराव की वजह से हार गई।
हरियाणा में हार के लिए भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के टकराव को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। ये दोनों कांग्रेस के कोर वोट का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन दोनों में पूरे चुनाव लड़ाई चलती रही। इसी तरह राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के टकराव में कांग्रेस हारी तो छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव का विवाद को हार का कारण बताया जा रहा है। मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह में टकराव नहीं था, बल्कि बहुत ज्यादा सद्भाव था, जिससे कहा जा रहा है कि कमलनाथ को मनमानी करने का मौका मिला और कांग्रेस हारी।
अब कांग्रेस में चिंता है कि बुजुर्ग हो गए क्षत्रपों जैसे भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अशोक गहलोत, टीएस सिंहदेव का क्या किया जाए और इनके मुकाबले कम उम्र के और ज्यादा सक्रिय.. का क्या किया जाए? एक सुझाव तो कांग्रेस आलाकमान के पास भाजपा की तरह मार्गदर्शक मंडल बना कर बुजुर्ग नेताओं को उसमें भेजना का है, लेकिन इस पर पार्टी अमल नहीं कर पा रही है। वह बुजुर्ग नेताओं को रिटायर नहीं कर पा रही है। उलटे हर चुनाव में ये बुजुर्ग नेता अपनी दावेदारी लेकर सबसे आगे खड़े रहते हैं। ये नेता भी आखिरी सांस तक कोई न कोई पद लिए रहने की जुगाड़ में रहते हैं। दूसरे, अगर 82 साल के खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष रहते हैं तो दूसरे नेता को उम्र के आधार पर कैसे मार्गदर्शक मंडल में डालेंगे, यह भी बड़ी समस्या है।
एक तरीका राहुल गांधी ने अपनाया लेकिन वह बुरी तरह से फेल हुआ है। वह तरीका केसी वेणुगोपाल के पीछे अपनी पूरी ताकत रख कर उनको दूसरा अहमद पटेल बनाने का था। लेकिन इसमें रत्ती भर कामयाबी नहीं मिली है। करीब छह साल तक वेणुगोपाल को ढोने के बाद लग रहा है कि वे छोटे छोटे लोभ और निजी हित से आगे नहीं बढ़ पाए हैँ। यही कारण है कि वे पार्टी के दूसरे महासचिवों और प्रादेशिक क्षत्रपों को काबू नहीं कर पा रहे हैं। उनकी हैसियत ऐसी नहीं बनी है कि वे अहमद पटेल की तरह कांग्रेस के किसी भी नेता को तलब करें और उसे हड़का दें। हालांकि इसके लिए राहुल ने बहुत प्रयास किया। लेकिन नतीजा शून्य रहा।
अगर ऐसी ही ताकत राहुल ने किसी मजबूत नेता के हाथ में दी होती तस्वीर कुछ और हो सकती थी। अब कहा जा रहा है कि प्रॉक्सी की बजाय थोड़े समय राहुल गांधी को कमान सीधे अपने हाथ में रखनी चाहिए। कहा जा रहा है कि पार्टी संगठन और आंतरिक मामले अगर राहुल खुद हैंडल करते हैं तो शायद प्रादेशिक नेताओं को काबू में किया जा सके। पता नहीं यह कब तक होगा और कैसे होगा लेकिन अभी हकीकत यह है कि उन्हीं राज्यों के प्रादेशिक क्षत्रप आलाकमान को महत्व देते हैं, जहां पार्टी का वजूद बहुत कमजोर है। जहां पार्टी मजबूत है वहां कांग्रेस आलाकमान को प्रादेशिक क्षत्रपों की बात सुननी पड़ती है। यह स्थिति तब बदलेगी, जब राहुल गांधी आभासी दुनिया यानी सोशल मीडिया में नहीं, बल्कि वास्तविक दुनिया में मजबूत होंगे।