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Jammu Kashmir: सूबे को फिर से अलगाववाद और अशांति के माहौल में धकेलने की साजिश

Jammu Kashmir: भारतीय विदेश नीति में सत्ताधारी और विपक्ष की सहमति का भारत में जैसा उदाहरण मिलता है वैसा लोकतांत्रिक देशों में बहुत कम उदाहरण मिलते हैं।  कुछ उदाहरण है जब विपक्षी पार्टी का कोईं नेता अपने देश की सरकार की आलोचना कर दे, किन्तु बाद में उसकी इतनी फजीहत हुई है कि उसने अपने आपको सुधार लिया।

बहरहाल बांग्लादेश का मुद्दा हो या रूस-यूक्रेन  युद्ध। दोनों ही मुद्दे ऐसे हैं जिन पर भारत सरकार को कांग्रेस, वामपंथी और अन्य सभी विपक्ष पार्टी का समर्थन मिला। बांग्लादेश इन दिनों बहुत ही नाजुक मोड़ पर खड़ा है। देश के उदारवादी चाहे जिस वर्ग के हों, उनके अस्तित्व एवं प्रभाव को खत्म करने का अभियान चल पड़ा है।

मोहम्मद यूनुस को कठमुल्लों ने अपना काम चलाऊ प्रधानमंत्री दुनिया को बेवकूफ बनाने के लिया बनाया है। यूनुस वही करते हैं जो पाकिस्तान की आईएसआई द्वारा वित्त पोषित जमायत-ए-इस्लामी चाहती है। जमात का गठबंधन बीएनपी यानि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के साथ है, जो धुर भारत विरोधी पार्टी है। इस वक्त बांग्लादेश को बांग्लास्तान बनाने के लिए जमायत-ए-इस्लामी और हिफाजत-ए-इस्लाम दोनों ही जुटी हैं। उनका यह एजेंडा ठीक उसी तरह का है, जब 1980 के दशक में अफगानिस्तान को तालिबानी निगलने का प्रयास कर रहे थे। पाकिस्तान को अपने पड़ोस में सेक्युलर सरकार आंख की किरकिरी बना हुआ था। इसलिए उसने अरब मुल्कों और अमेरिका की मदद से अफगानिस्तान में तालिबान को स्थापित करवा दिया। यह दूसरी बात है कि अब तालिबान ने जब दूसरी बार सत्ता संभाली तो उसने सबसे पहले पाकिस्तान को ही अपना रंग दिखा दिया। अब पाकिस्तान जरूर पछता रहा होगा, किन्तु पाकिस्तान की सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने जो बेववूफी तालिबान को सत्ता हासिल करवाने में मदद करके की थी, अब वही बेववूफी उसके पिछलग्गू बांग्लादेश में करने की कोशिश कर रहे हैं। बांग्लादेश का पाकिस्तान से अलग होकर गठन ही इसलिए हुआ था कि वह एक धर्म निरपेक्ष  राष्ट्र रहे।

पाकिस्तान परस्त तंजीमो को यह पसंद नहीं था, इसीलिए उन्होंने देश के समूचे सिस्टम चाहे वह कार्यपालिका हो या विधायिका सब को नष्ट कर दिया। बांग्लादेश में उदारवादियों के सफाए के सिलसिले  में कठमुल्ले न्यायपालिका को भी नहीं छोड़ रहे हैं। उस वक्त तो उन्होंने शेख हसीना को भारत इसलिए आने दिया कि उनके रहते देश में उनकी पार्टी के नेता और समर्थकों से मुकाबला करना पड़ेगा, किन्तु यदि वह देश छोड़ देंगी तो उन्हें अपने एजेंडा के मुताबिक काम करने में किसी तरह की अड़चन का सामना नहीं करना होगा। जजों को इस्तीफा देकर जान बचाने के लाले पड़े हैं। वे भारत आकर शरण लेना चाहते हैं कितु कट्टरपंथी उन्हें भी पकड़कर जेलों में डाल रहे हैं।

अवामी लीग के पूर्व मंत्री, सांसद और विधायकों को या तो कट्टरपंथियों ने मार डाला अथवा गिरफ्तार कर लिया। उनके हौसले इतने बुलंद हैं कि वे पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद का प्रत्यर्पण चाहते हैं। भारतीय नेताओं को अपने दोस्त और दुश्मनों के पहचान करने की क्षमता है। भारत सरकार और विपक्षी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि शेख हसीना यदि बांग्लादेश की राजनीति में प्रभावशाली रहेंगी तो ही सीमा पर शांति रहेगी और रिश्ते सामान्य रहेंगे। शेख हसीना ने भले ही स्थाई रूप से आश्रय की प्रक्रिया  पूरी न की हो किन्तु इतना सौ फीसदी  सही है कि किसी राजनेता के प्रत्यर्पण की कोई व्यवस्था नहीं है। सियासी संरक्षण  प्राप्त शख्स  के लिए भारत बांग्लादेश और रूस व यूक्रेन  में भी शांति के लिए कूटनीतिक प्रयास जारी रखने की कोशिश तो करता ही रहता है। भारत के प्रधानमंत्री मोदी जब रूस गए तो उन्होंने अमेरिका और राष्ट्रपति पुतिन के विरोधियों की परवाह नहीं की और जब यूव्रेन गए तो रूस की परवाह नहीं की। भारत की विदेश नीति में इस स्थिरता का श्रेय अकेले सरकार को नहीं जाता। सरकार तो निमित्त मात्र है। इसका वास्तविक का प्रत्यर्पण हो ही नहीं सकता।

अंतर्राष्ट्रीय विधि में प्रत्यर्पण की शर्तो में यह निहित है कि यदि किसी राजनेता ने किसी देश में आश्रय ले लिया है तो उसकी मरजी के विरुद्ध प्रत्यर्पण संभव नहीं। भारत बांग्लादेश की घटनाओं पर आंख नहीं मूंद सकता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब यूक्रेन  की यात्रा की तो उन्होंने दुनिया को स्पष्ट संदेश दिया कि भारत गुटनिरपेक्ष जरूर है किन्तु तटस्थ नहीं है।

शांति श्रेय महात्मा गांधी के अहिंसा एवं गौतम बुद्ध के मध्यम मार्गी विचारों को जाता है और भारत में इन विचारों के प्रति अधिकतर राजनीतिक पार्टियां भरोसा करती हैं। इसीलिए भारत की विदेश नीति के प्रति सभी राजनीतिक दलों के एक जैसे विचार  हैं। यही भारत की सबसे बड़ी ताकत है।

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