- आलोक यात्री
पिताश्री से. रा. यात्री बहुत ही ख़ामोशी से चले गए। लेकिन ज़िंदगी के अंतिम समय तक भी उनकी चेतना बरकरार रही। एक पुरानी और जर्जर इमारत को एक दिन ढहना ही था। लेकिन उनका महाप्रयाण किसी संत के चिरनिंद्रा में लीन होने जैसा ही था। महाप्रयाण से पहली शाम मैं उनके कक्षा में गया, चाय इत्यादि पूछने।
उन्होंने सिर हिलाकर इंकार कर दिया। मेरे संवाद पर भी वह मौन धारण करे रहे। मैंने उन्हें कुछ देर पहले मिली खुशखबरी देने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने मेरी किसी भी बात में रुचि नहीं दिखाई। ऐसी अवस्था में मैं उनके पसंदीदा गायक कुंदनलाल सहगल, मन्ना डे या हेमंत कुमार का कोई गीत बजा देता था, जिसे सुनते हुए वह लीन हो जाते थे।
कुछ दिन पहले ही उन्होंने कुंदनलाल सहगल का ‘जब दिल ही टूट गया…’ सुना था। मैं उनकी व्यथा, वेदना को समझता था। इस गीत का मर्म भी मुझे समझ आता था और इसके शब्द भीतर तक बींध जाते थे… ‘हम जी कर क्या करेंगे…।’ या ऐसे ही कभी ग़ालिब को सुनने लगना। ‘दिल ही तो है न संग ओ ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यों, रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यों… कैद ए हयात ओ बन्दे ग़म अस्ल में दोनों एक हैं, मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों…? ग़ालिब ए ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं, रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाय हाय क्यों…?’
दिन के अधिकांश पहर वह हमें अक्सर झपकी लेते या निद्रामग्न या सिरहाने रखी नोट बुक में कुछ लिखते दिखाई देते। या फिर तलाश कर मंगाई गई पुस्तकों में मुब्तिला। लेकिन आने वाले खास करीबियों से वह यही शिकायत करते थे कि बरसों से मैं सोया नहीं हूं।
उनकी यह शिकायत पूरे परिवार को अपराध बोध से ग्रस्त कर देती थी। हम सोचते थे कि उनकी परवरिश में ऐसी कौन सी कमी है जो उन्हें इतना भी करार नहीं लेने दे रही थी कि वह दो घड़ी चैन से सो पाएं। यह शायद हमारा भ्रम था, वह हमें निद्रा में लीन दिखाई देते थे। जबकि शायद उस अवस्था में वह चिंतन की यात्रा पर होते थे। उनके बोलने की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही थी और उनका सामर्थ्य भी ध्वस्त होता जा रहा था। लिहाज़ा वह अपनी जिज्ञासाएं कागज़ पर दर्ज़ कर लिया करते थे।
इन दिनों उनके चिंतन में अक्सर आइंस्टीन, होमी जहांगीर भाभा, पिकासो, स्वामी अरविंदो, न्यूटन, ओम पुरी, दोस्तोवस्की, टी. एस. एलियट, वृंदावनलाल वर्मा, ऐनी बेसेंट, टालस्टाय, रोम्या रोला, जमशेद जी टाटा, रामकृष्ण परमहंस, रोमिला थापर, के. आसिफ़, अवधेशानंद गिरि, इरफान हबीब, विनोद कुमार शुक्ल, नसीरुद्दीन शाह, कणाद, गेब्रियल गार्सिया मार्केज़, बिमल राय, बर्ट्रैंड रसल और मिर्ज़ा ग़ालिब संभवतः उनके साथ विचरण करते रहते थे। इनके साथ होने वाली वैचारिक यात्रा के बाद पिताश्री की जिज्ञासा की सूची को कुछ और लंबा कर देती।
उनकी जिज्ञासा की बाबत जो हमें पता होता वह हम बता देते नहीं तो गूगल बाबा बांच देते। अक्सर ऐसा भी होता था कि किसी विभूति की बाबत शांत की गई उनकी जिज्ञासा कुछ देर बाद फिर सिर उठा कर खड़ी हो जाती थी। कई जिज्ञासाएं अतीत के उन पन्नों से उठ कर आती थीं जिनसे हमारा कभी साक्षात्कार नहीं हुआ था। उस समय न सिर्फ उनकी बल्कि हमारी परेशानी भी चरम पर पहुंच जाती थी। क्योंकि मैंने व्यक्तिगत तौर पर यह बात शिद्दत से महसूस की है कि जेहन में कोई सवाल अनुत्तरित रह जाए तो मस्तिष्क विस्फोट करने की स्थिति में पहुंच जाता है। ऐसी ही एक जटिल जिज्ञासा बंगाल के एक शास्त्रीय गायक को लेकर थी। पिताश्री को बस इतना याद था कि वह कोई ‘ठाकुर’ हैं। कई घंटे की माथापच्ची के बाद पता चला वह ओंकार नाथ ठाकुर थे।
यूं ट्यूब पर उनका एक दुर्लभ वीडियो भी मिल गया। जो लगभग 45 मिनट का था। पिताश्री इतने कृषकाय व दुर्बल हो चुके थे कि दूध का प्याला भी पांच मिनट तक हाथ में नहीं संभाल सकते थे। लेकिन अपने चहेते गायकों के 45 मिनट लंबे वीडियो भी वह मोबाइल हाथ में संभाल कर तन्मयता से सुनते रहते थे।
उनकी यह जिज्ञासा हमारे लिए, खास तौर पर मेरे लिए भी बड़ी ज्ञानवर्धक रही। साहित्य, विज्ञान, दर्शन, आध्यात्म, इतिहास, चित्रकला, संगीत, सिनेमा सहित कई क्षेत्रों में उनकी जिज्ञासा की वजह से मेरी जानकारी का भंडार प्रचुर होता जा रहा था। बचपन में मैंने उन्हें अपने पहले अध्यापक के रूप में देखा था। वह बताते थे कि मैं जब भी उनके साथ होता था तो सवाल बहुत पूछता था। की बार ऐसा भी होता था कि वह मेरे सामने हाथ जोड़कर समर्पण भाव से याचना करते हुए कहते थे “माफ़ कर मेरे बाप…”। जब थोड़ा सा बड़ा हुआ तो ऐसे ही एक प्रसंग में मैं उनसे पूछ बैठा “मैं आपका बाप कैसे हो सकता हूं?’
उत्तर में वह बोले “मुझे माफ़ कर मेरे बाप…!” मैं भी अड़़ गया कि आज तो यह जानकर ही रहूंगा कि मैं उनका पिता कैसे हूं। इसे आप बालमन की हठ भी कह सकते हैं। उन्होंने टालते हुए कहा कि जब बड़े हो जाओगे तब बताऊंगा। मैंने भी मान लिया कि उनके पास मेरे सवालों का जब कोई ज़वाब नहीं होता तो वह मुझे अपना बाप मानते हुए माफ़ी मांग लेते हैं। कुछ बड़ा हुआ तो पड़ोसी प्रेमनाथ शर्मा जी ने अंग्रेजी कविताओं की एक पतली सी पुस्तिका पढ़ने को दी। पुस्तिका में प्रकाशित कविताएं मैं कितनी समझ पाया कितनी नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन उसमें से एक कविता की पंक्ति मेरी समझ में जरूर आई। वह थी “चाइल्ड इज द फादर ऑफ द मैन…”। यह ऐसी पंक्ती थी जिसका अर्थ कोई भी बालक आसानी से समझ सकता था। और… हम भी समझ गए कि बालक पिता का बाप कैसे होता है?
पिताश्री ने न सिर्फ उन कविताओं के अर्थ समझाए बल्कि राबर्ट ब्राउनिंग, इलियट, कीट्स, शैली, विलियम वर्डस्वर्थ की वह कविताएं याद भी करवाईं। समय के साथ याद की गई सभी कविताएं उड़ गई। थोड़ी बहुत वर्डस्वर्थ की कविता बाकी रह गई…। अपनी जिज्ञासाएं भी लुप्त होती चली गईं और पिताश्री का “माफ़ कर मेरे बाप…” कहना भी। फिर अचानक एक दिन यह विस्फोट भी हुआ कि मैं उनका बाप किस तरह से हूं…
मेरा सातवां या आठवां जन्मदिन था। एक रिश्तेदारिन भी आई हुई थी। मुझे लाड़ से गोद में बिठाते हुए बोलीं “अरे तेरी नाक पर चश्मे का निशान कहां गया…?”
मैंने कहा”मैं तो चश्मा लगाता नहीं!” वह बोलीं “तू नहीं लगाता तेरे बाबा तो लगाते थे।” “बाबा के चश्मे से मेरा क्या ताल्लुक…?” मेरे इस कथन पर वह खूब हंसी और मजाकिया लहजे में बोलीं “अरे तू तो बुड्ढा पैदा हुआ था…!” इस रहस्योद्घाटन ने मामला और पेचीदा कर दिया कि मैं बुड्ढा कैसे पैदा हुआ था?” उन्होंने ही बताया कि जब मैं पैदा हुआ था तो वह मां के साथ ही थीं और माताश्री के अस्पताल जाने से घर वापसी तक वहीं साथ रही। पैदा होकर मैं सबसे पहले उनके ही हाथों में सुरक्षित पहुंचा था। सुरक्षित इसलिए कि मैं समय से पूर्व प्रीमेच्योर डिलीवरी था। उन्होंने ही पिताश्री के हाथ में मुझे सौंपते हुए कहा था “ले सेवा… तेरा बाप आ गया…”
शायद यह यूं ही नहीं कहा गया था…। जिस दिन मेरे पिताश्री ने अपने पिता को खोया था उसी दिन कुछ घंटे बाद मैं अवतरित हुआ था। सरकारी अस्पताल की चिकित्सक की इस चेतावनी के साथ कि यह बच्चा बचेगा नहीं, बचा लोगे तो तुम्हें मैडल दुंगी। साढ़े तीन से चार पौंड वजह का वह शिशु से. रा. यात्री के साथ शायद जन्म-जन्मांतर का रिश्ता लेकर आया था। उस जन्मदिन पर कुछ सवालों का जवाब खुद ब खुद मिल गया। मसलन “मुझे माफ़ कर दे मेरे बाप….”
आज पिताश्री साथ नहीं है। उनका न होना एक बहुत बड़ी रिक्तता है। अभी तो यकीन ही नहीं हो रहा कि वह नहीं हैं। आज मेरी समझ में यह आ रहा है कि पिता के न रहने का क्या अर्थ होता है? कुछ देर के लिए तो आदमी पूरी दुनिया से असंप्रक्त हो जाता है। लगभग चेतना शून्य…। जैसे मैं हो गया अपने पिता को खोने के बाद। उन्होंने कैसे संभाला होगा रूई के फाहों में लिपटा मांस का एक लोथड़ा नवजात की शक्ल में…?
अपने पिता के साथ साठ साल से अधिक समय व्यतीत करने के बाद आज फिर एक पक्ष प्रश्न मेरे सामने है कि वह मेरे पिता थे कि मैं उनका। वह जैसे भी थे इसका आकलन तो दुनिया करती रहेगी लेकिन मैं इस बात से संतुष्ट हूं कि नियति ने मुझे एक संत के हाथ में सौंपा और अंत समय तक मैं उस संत की “ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया…” के साए में पलता-बढ़ता रहा। नियति के क्रूर हाथों ने ढ़ाई-तीन पौंड का वजन लेकर जन्मे शिशु को बुजुर्गियत की जो चादर आज ओढ़ा दी है वह जस की तस रख दूं तो शायद पितृऋण से मुक्त हो पाऊंगा। आज मैं अकेला हूं… एक बार फिर इस अहसास के साथ “चाइल्ड इज द फादर ऑफ द मैन….”!