Gorakhnath Prakatotsav Diwas: कल कुछ मित्रों/समाज बंधुओं ने फोन पर बताया कि हरियाणा में वसंत पंचमी को गोरक्षनाथ प्रकटोत्सव दिवस मनाए जाने की मांग को लेकर कुछ लोग हरियाणा के मुख्यमंत्रीजी से मिले और सीएम साहब ने इस संबंध में जानकारी चाही है। मैंने उन्हें सप्रमाण जानकारी तो दे दी लेकिन इसे सार्वजनिक रूप से शेयर करने का लोभ भी रोक नहीं पा रहा।
क्या है ना कि कुछ लोग केवल अपने अहं की तुष्टी के लिये अनर्गल प्रलाप करते रहे हैं और करते रहेंगे। बहुत खोजबीन व श्रमसाध्य प्रयासों के बाद नेपाल दरबारी लायब्रेरी से प्राप्त साक्ष्य के प्रकाश में पहली बार 7 मई 2001 को राजस्थान के मेंहदींपुर बालाजी में श्रद्धेय स्व. भैरोंसिंह शेखावत साहब की गरिमामय उपस्थिती में गोरक्षनाथ प्रकटोत्सव का बहुत भव्य आयोजन किया गया जिसके पश्चात धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में यह आयोजन वैशाख पूर्णिमा को आयोजित किया जाता रहा है।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas पर मेरी पुस्तक ‘नाथ संप्रदाय इतिहास एवं दर्शन’ का वो अंश प्रस्तुत कर रहा हूं और कोई हठ नहीं कि यह अंतिम सत्य है। मैं स्वागत करूंगा यदि कोई इससे इतर कोई तथ्यात्मक सत्य बता सके।
योग दर्शन और इतिहास में महायोगी गोरक्षनाथ को सामान्यतः कनफटा नाथपंथी सिद्ध योगियों की शृंखला में हठयोग के शारीरिक आत्मानुशासन का सूत्रधार कहा जाता है। वे योगी मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे और कदलीवन के स्त्रीराज्य की रानी से अपने गुरु को मुक्त कराने के कारण उनकी प्रसिद्धि दिग्दिगन्तर में फैल गयी।
प्रसंगवश योगी मत्स्येन्द्रनाथ के विषय में संक्षिप्त चर्चा करें तो हम पाते हैं कि मत्स्येन्द्रनाथ धार्मिक आन्दोलन काल में हिन्दुत्व, बौद्धमत तथा हठयोग के तत्त्वों के यौगिक और भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय नाथ सम्प्रदाय के पहले आध्यात्मिक गुरू थे। मत्स्येन्द्रनाथ का नाम हिन्दू और बौद्ध सम्प्रदाय के नवनाथ और चौरासी सिद्धों की सूची में समान रूप से प्रकट होता है। नेपाल में बौद्धमत के अनुयायियों द्वारा उन्हें अवलोकितेश्वर-पùपाणि के नाम से और हिन्दू मतावलम्बियों द्वारा शिव रूप में दिव्य विभूति की प्रास्थिति से तो तिब्बत में उन्हें लुई-पा के नाम से पूजा जाता है।
एक आख्यायिकानुसार उनका मीननाथ नाम इसलिये पड़ा कि एक मछली के रूप में उन्होंने शिव से आत्मज्ञान का उपदेश लिया था जबकि एक अन्य आख्यायिकानुसार एक मछली द्वारा उदरस्थ कर लिये गये पवित्र ग्रन्थों को बचाने के कारण उन्हें मीननाथ कहा गया। मत्स्येन्द्रनाथ का ऐतिहासिक जीवन वृत्त उनके चारों ओर फैली हुयी अनेकों कहानियों में खो गया है। मोहन-जो-दड़ो (शुद्ध रूप मोअन-मृतक, जो-का, दड़ो-टीला है) की खुदाई में कानों में कुण्ड़ल युक्त एक योगी की मूर्ति प्राप्त हुई है।
अनेक प्रमाणों के आधार पर राजमोहन, नाथ तत्त्वभूषण वी.ई. शिलांग ने ‘मत्स्येन्द्र तत्त्व’ नामक अपनी कृति में इस मूर्ति को योगी मत्स्येन्द्रनाथ की मूर्ति सिद्ध किया है। एक संन्यासी होते हुए उन्होंने सीलोन (कुछ ग्रन्थों में सिंहल देश, सिंहपुर तथा कदली प्रदेश आदि नाम बताये गये हैं) की दो राजकुमारियों के प्रेम के वशीभूत होकर पार्श्वनाथ और नेमिनाथ नामक दो पुत्र पैदा किये जो बाद में जैन सम्प्रदाय के आराध्य बने। मत्स्येन्द्रनाथ के प्रमुख शिष्य महायोगी गोरक्षनाथ को कनफटा योगियों का प्रमुख प्रवर्तक माना जाता है।
महायोगी गोरक्षनाथ के जीवन वृत्त के बारे में प्रामाणिक रूप से अधिक कुछ नहीं कहा जा सका है और जो उनके बारे में अनगिनत कथाएं और किंवदन्तियां सुनी व कही जाती है वे उन्हें अलौकिक शक्तियां के स्वामी सिद्ध करती हुई उनके व्यक्तित्त्व के चारों और एक दिव्य प्रभामण्डल का निर्माण करती हैं। गोरक्षनाथ ने वामाचारी तांत्रिक साधना का परिष्कार करते हुए एक ऐसी साधना पद्धति को जन्म दिया जो प्रत्येक उस व्यक्ति के लिये साधना का मार्ग खोल देती है जो वास्तव में आत्म कल्याण करना चाहता है। जाति व धर्म के बन्धनों से रहित सर्व समभाव या विश्वजनीन दृष्टि को पनपाने वाली यह नाथ साधना पद्धति, गोरक्षनाथ के समय से नाथ सम्प्रदाय की संज्ञा के साथ नये रूप में अस्तित्व में आयी।
कतिपय विद्वानों का कथन है कि बौद्धमत का उच्छेद सर्वप्रथम कुमारिल और शंकराचार्य ने किया। नाथ सम्प्रदाय के सिद्ध योगियों के योगदान को उक्त विद्वानों ने उतना महत्त्व नहीं दिया। इस प्रसंग में डा0 नागेन्द्रनाथ उपाध्याय का कथन है कि यह स्वीकृति अधूरी है तथा इस मत का प्रतिपादन एकपक्षीय और प्रयोजन विशेष से प्रेरित है। उन्होंने कहा है कि शंकराचार्य ने यद्यपि शास्त्र और तर्क की सहायता से बौद्धों को निरुत्तर कर दिया था, किन्तु भारतीय जन-मानस पर जमे बौद्धों को वे नहीं हटा सके थे। यह कार्य गोरक्षनाथ ने जिस प्रतिष्ठा के साथ किया वैसी प्रतिष्ठा के साथ उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भी नहीं कर सके थे। इसी तथ्य को आचार्य पं0 रामचन्द्र शुक्ल भी स्वीकार करते हैं।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: जन्म स्थान व काल में मतैक्य क्यों
विद्वानों में उनके स्थान (जन्म अथवा अवतार) और काल के संबंध में मतैक्य नहीं है। समझा जाता है कि गोरक्षनाथ या तो पंजाब में पैदा हुए अथवा अधिकांश समय पंजाब में बिताया जहां से उन्होंने दूरदराज तक यात्राएं करते हुए नानक, कबीर और दादू जैसे सन्तों से सम्पर्क कर योगमार्ग का प्रचार किया। उनके द्वारा रचित ‘गोरक्षशतक’ कनफटा योगियों का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। कनफटा योगियों द्वारा उन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है जो सूक्ष्मरूप से हिमालय में निवास करते हैं और युग-युग में प्रकट होकर योग की पुनर्स्थापना करते हैं।
विद्वानों में उनके काल के संबंध में भी मतैक्य नहीं है। इतिहासकार और विचारकों ने नानक और कबीर से संवाद के आधार पर महायोगी गोरक्षनाथ का काल उनके समवर्ती और उनको पंजाब के एक साधारण परिवार से सम्बद्ध या अपने जीवन काल का काफी हिस्सा हठयोग का प्रचार करते हुए पंजाब में व्यतीत करना माना है। महायोगी गोरक्षनाथ योगी मत्स्येन्द्रनाथ (सामान्यतः इन्हें योग परम्परा के प्रथम प्रवर्तक और मानव रूप में योगियों के प्रथम आध्यात्मिक गुरू कहा जाता है) के शिष्य थे। एक बंगाली आख्यायिका के अनुसार जिन्होंने अपने गुरू योगी मत्स्येन्द्रनाथ को कदली प्रदेश की कामाख्या रानी के पाश से मुक्ति दिलवायी थी।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पाश्चात्य विद्वान जॉर्ज वेस्टन ब्रिग्स ने उनके जन्म स्थान और काल के संबन्ध में जानने का भागीरथ प्रयास किया। उनके शोध को यथारूप में प्रस्तुत करना, विषय की गम्भीरता और उन महानुभावों की कीर्ति के साथ कपट ही सिद्ध होगा किन्तु हम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अमूल्य पुस्तक ‘नाथ सम्प्रदाय’ के निम्नांकित दो अन्तरों को महायोगी गोरक्षनाथ की वन्दना रूप में अंकित करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।
‘‘विक्रम संवत् की दसवीं शताब्दि में भारतवर्ष के महान गुरु गोरक्षनाथ का आविर्भाव हुआ। शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने कोने में उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरक्षनाथ का योगमार्ग ही था।
भारतवर्ष की ऐसी कोई भाषा नहीं है जिसमें गोरक्षनाथ संबन्धी कहानियां न पाई जाती हों। इन कहानियों में परस्पर ऐतिहासिक विरोध बहुत अधिक है परन्तु फिर भी इनमें एक बात स्पष्ट हो जाती है कि गोरक्षनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे। उन्होंने जिस धातु को छुआ वही सोना हो गया। दुर्भाग्यवश इस महान धर्मगुरु के विषय में ऐतिहासिक कही जाने लायक बातें बहुत कम रह गयी हैं। दन्तकथाएं केवल उनके और उनके द्वारा प्रवर्तित योगमार्ग के महत्त्व-प्रचार के अतिरिक्त कोई विशेष प्रकाश नहीं देती।
उनके जन्मस्थान का कोई निश्चित पता नहीं चलता। परम्पराएं अनेक प्रकार के अनुमानों को उत्तेजना देती हैं और इसीलिये भिन्न-भिन्न अन्वेषकों ने अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को उनका जन्मस्थान मान लिया है। ‘योगी सम्प्रदायाविष्कृति’ में उन्हें गोदावरी तीर के किसी चन्द्रगिरि में उत्पन्न होना बताया है। नेपाल दरबार लायब्रेरी में एक परवर्ती काल का ‘गोरक्ष सहस्त्रनामस्तोत्र’ नामक छोटा सा गं्रथ है, जिसमें एक श्लोक (अस्ति याम्यां दिशिकश्चिद्देशः बढ़वः संज्ञकः।
तत्राजनि महाबुद्धिर्ममंत्र प्रसादतः।।) का आशय है कि दक्षिण दिशा में कोई बढ़व नामक देश है वहीं महामंत्र के प्रसाद से महाबुद्धिशाली गोरक्षनाथ प्रादुर्भूत हुए थे। संभवतः इस श्लोक में उसी परम्परा की ओर संकेत है जो ‘योगसंप्रदायाविष्कृति’ में पायी जाती है। श्लोक में बढ़व पद शायद गोदावरी तीर के प्रदेश का वाचक हो सकता है।’’
महायोगी गोरक्षनाथ के जन्मस्थान और काल का पता लगाने का प्रयास करने वाले अन्य प्रमुख विद्वानों में पाश्चात्य विद्वान क्रुक्स, जी. ए. ग्रियर्सन तथा इटली निवासी कवि एल. पी. टेसीटरी का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। इन सभी महानुभावों ने महायोगी गोरक्षनाथ की रचनाओं और उनके समकालीन सन्तों व योगियों और स्थान विशेष पर महायोगी गोरक्षनाथ के प्रभाव के आधार पर उनका काल व स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया है।
गोरक्ष टिल्ला के वैभव और प्रधानता के आधार पर जर्मन विद्वान डब्ल्यू. जे. ब्रिग्स ने उन्हें पंजाब का होना अनुमानित किया है तो ग्रियर्सन ने गोरक्षनाथ के शिष्य योगी धर्मनाथ के पेशावर का होने के आधार पर उन्हें पेशावर का होना बताया है साथ ही नेपाल को आर्य अवलोकितेश्वर के प्रभाव से मुक्त करवाकर नेपाल को शैव मत में लाने के आधार पर गोरक्षनाथ को पश्चिमी हिमालय का रहने वाला बताया है।
कनिंघम नामक अंग्रेज इतिहासकार का मत है कि जेहलम (झेलम) जिले में बालनाथजी का टिल्ला सिकन्दर के भारत आने से भी पूर्व का है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि नाथ सम्प्रदाय का अस्तित्व 326 ईसा पूर्व से है। इस आधार पर महायोगी गोरक्षनाथ का समय ईसा से कम से कम पांच सौ वर्ष पूर्व का होना चाहिये। इस कल्पना की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि योगी भर्त्तृहरि इतिहास प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य का बड़ा भाई था। यह वही विक्रमादित्य है जिसके नाम से विक्रम संवत् प्रारम्भ हुआ और आज यह भारतीय कालगणना का प्रमुख मानक है।
भारतीय विद्वानों में डा. रांगेय राघव ने अपनी पुस्तक ‘गुरु गोरक्षनाथ और उनका युग’ में गोरक्षनाथ का समय आठवीं शताब्दि से प्रारंभ माना है वहीं डा. श्यामसुन्दर दास ने भाषा के आधार पर गोरक्षनाथ का समय जगद्गुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद के 150 वर्ष बाद का बताया है किन्तु उन्हीं के शिष्य सनन्दन ने ‘शंकर दिग्विजय’ नामक पुस्तक में मत्स्येन्द्रनाथ के परकाया प्रवेश विद्या का उल्लेख करते हुए गोरक्षनाथ का समय शंकराचार्य से पूर्व का होना बताया है।
नाथ सम्प्रदाय में पूरण भगत नाम से प्रसिद्ध सिद्ध चौरंगीनाथ के आशीर्वाद से राजा शालिवाहन (सलवान) की छोटी रानी लूणा को पुत्र की प्राप्ति हुयी थी जो राजा रसालू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजा रसालू का काल सातवीं शताब्दि का अन्त व आठवीं शताब्दि का प्रारंभ माना जाता है, इस आधार पर गोरक्षनाथ का काल सातवीं शताब्दि सिद्ध होता है। डा. बड़थ्वाल ने गोरक्षनाथ का समय विक्रम संवत् 1050 के आस पास मानते हुए उन्हें शंकराचार्य से पूर्व गुप्तवंश के राजाओं से जोड़ा है।
मत्स्येन्द्रनाथ से उनके गुरु-शिष्य संबन्ध के आधार पर विद्वान उन्हें नौवीं शताब्दि का होना बताते हैं। कबीर1, दादूदयाल2 और नानक से उनका संवाद उन्हें तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि में होना सि़द्ध करता है तो दिगम्बर जैन सन्त बनारसीदास से शास्त्रार्थ सत्रहवीं शताब्दि में भी उनकी उपस्थिति बताता है।
ईस्वी शताब्दियों के इस काल खण्ड में किसी मानव देहधारी के इतने लम्बे जीवन का अस्तित्व निश्चय ही अविश्वसनीय और असंभव है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस प्रसंग में मनोवैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत करते हुए इनकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि परवर्ती सन्तों ने ध्यान बल से पूर्ववर्ती सन्त (महायोगी गोरक्षनाथ) के उपदिष्ट मार्ग से अपने अनुभवों की तुलना की होगी। वे अपने मत के समर्थन में तर्क देते हुए कहते हैं कि कबीर के साथ तो मुहम्मद साहब की बातचीत का ब्यौरा भी उपलब्ध है तो क्या इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि कबीरदास और मुहम्मद साहब समकालीन थे? इस प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ के काल निर्णय को लेकर भी समस्त विद्वान असमंजस की स्थिति में हैं और यह कह पाने में नितान्त असमर्थ हैं कि वास्तव में वे काल के किस खण्ड से संबंधित हैं?
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: विद्वानों ने प्रस्तुत किए तर्क
निश्चय ही उपरोक्त विद्वानों ने अपने मत के समर्थन में सशक्त तर्क प्रस्तुत किये हैं और उनके शोध में त्रुटि की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। दर्शन और दार्शनिक इतिहास में रुचि रखने वालों के लिये इन विद्वानों की रचर्नां आने वाली पीढ़ियों के लिये सर्वकालिक प्रकाश स्तम्भ सिद्ध होंगी साथ ही नाथ सम्प्रदाय विषय को इतने क्रमबद्ध रूप में लिपिबद्ध करने से नाथपंथ के अनुयायी सदा सर्वदा के लिये इनके ऋणी हो गये हैं। किन्तु खेद की सीमा तक आश्चर्य है कि इन विद्वानों की दृष्टि पौराणिक तथ्यों पर क्यों नहीं गयी?
यह सुस्थापित तथ्य है कि रामायण के एक महत्त्वपूर्ण चरित्र विष्णु के अंशावतार परशुराम महायोगी गोरक्षनाथ के शिष्य थे। इस महान चरित्र के साथ हनुमान की उपस्थिति महाभारत काल तक इस महाकाव्य में वर्णित है। इसी भांति रामायण महाकाव्य के रचयिता महर्षि वाल्मीकि से लेकर उनकी शिष्य परम्परा में महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास तक चार पीढ़ियां क्रमशः महर्षि पराशर और महर्षि शक्ति का ही अन्तर है।
पौराणिक काल गणना के अनुसार त्रेता युग की अवधि बारह लाख वर्ष और द्वापर युग की अवधि आठ लाख वर्ष बतायी गयी है। यह भी सुस्थापित तथ्य है कि भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के अवतार क्रमशः त्रेता और द्वापर युगों के उतरार्द्ध में हुए हैं। वास्तविक काल गणना को छोड़़ भी दें तो भी दोनों अवतारों के मध्य आठ लाख (कट्टर हिन्दू मतावलम्बियों के अनुसार नौ लाख) वर्षों का अन्तर है। तो क्या इन आठ-नौ लाख वर्षों के मध्य महर्षि वाल्मीकि से लेकर महर्षि वेदव्यास तक केवल चार ही पीढ़ियां थीं? यदि महाकाव्यों के उक्त महान चरित्रों की इतनी लम्बी आयु हो सकती है तो महायोगी गोरक्षनाथ की दीर्घायु का अनुमान युक्तियुक्त मान लेने में कोई संशय करना उचित प्रतीत नहीं होता।
फिर एक दृष्टि नाथ सम्प्रदाय के सुविख्यात बारह पंथों के प्रवर्तकों पर डालें तो प्रकट होता है कि इस सम्प्रदाय के सत्यनाथीपंथ, कपिलानीपंथ, रामपंथ, ध्वजपंथ, नाटेश्वरीपंथ, गंगानाथीपंथ और धर्मनाथीपंथ क्रमशः ब्रह्मा, कपिल मुनि, भगवान श्रीराम (अथवा परशुराम- कौन जानता है?), हनुमान, लक्ष्मण, तथा महाभारत के महानायक भीष्म व युधिष्ठिर द्वारा प्रवर्तित किये गये हैं। यहां यह विचारणीय है कि उक्त नामित महान चरित्र क्या गोरक्षनाथ के शिष्य अथवा उनके समकालीन थे? निश्चय ही यह एक कठिन प्रश्न है। क्योंकि तथ्य यह भी है कि गोरक्षनाथ से पूर्व भी नाथ सम्प्रदाय में शिव द्वारा प्रवर्तित बारह (श्रुति, साहित्य और कतिपय विद्वानों के अनुसार अट्ठारह) पंथ थे और गोरक्षनाथ अथवा उनके शिष्यों द्वारा बारह पंथ ओर प्रवर्तित किये गये। इस प्रकार इस सम्प्रदाय में कुल चौबीस (अथवा तीस) पंथ थे।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: अनुश्रुति है कि शिव और गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित इन पंथों में झगड़े बहुत बढ़ गये। तब गोरक्षनाथ ने अपने और शिव के छः-छः पंथों को लेकर बारह पंथों की पुनर्स्थापना की। उड़ीसा के विद्वानों की तो मान्यता है कि नाथ-सम्प्रदाय के प्रभाव के कारण ही पुरी के पुरुषोत्तम का नाम जगन्नाथ पड़ा। यह भी कहा जाता है कि गोरक्षनाथ ने ही पुरी के बड़ा अखाड़ा मठ की स्थापना की थी और वे जब वहां सिंहनाद (वस्तुतः यह लगभग डेढ़ से दो इंच लम्बी हरिण के सींग, चन्दन अथवा किसी पवित्र लकड़ी का खोखला व बेलनाकार ‘सींगी’ नामक वाद्ययन्त्र होता है जिसे नाथ योगी अपनी जनेऊ में पहनते हैं। सन्ध्योपासना के पश्चात्् ये लोग इसे फूंक कर बजाते हैं।
अतः यह शब्द सिंहनाद नहीं होकर सींगीनाद है), करते थे तो समुद्र बावन हाथ पीछे हट जाया करता था और जगन्नाथजी का आसन हिलने लगता था। परिणामस्वरूप महायोगी गोरक्षनाथ को मन्दिर के सिंहद्वार की दक्षिण दिशा में स्थान दिया गया। नाथ सम्प्रदाय के सत्यनाथी पंथ की प्रधान गद्दी पुरी में है और उड़ीसा के सोलह महन्तों/मठों में भुवनेश्वर का कपाली मठ काफी महत्त्वपूर्ण है। इस मठ के पूर्वी द्वार के दक्षिण में स्थापित एक शिलालेख के माध्यम से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि उड़ीसा के राजा कपिलेन्द्र का राज्याभिषेक इसी मठ में 26 जून 1435 को हुआ था।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: प्रश्न यह है कि इनमें से कौन गोरक्षनाथ से संबद्ध अथवा समकालीन है?
इतिहास इस संबंध में मौन है और विद्वानों की लेखनी इस ओर दृष्टिपात नहीं कर पायी। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पाश्चात्य विद्वान डब्ल्यू. जे. ब्रिग्स ने उक्त 12 पंथों की विस्तृत, तर्कयुक्त, सारपूर्ण और सर्वोपरि बहुत ही महत्त्वपूर्ण विवेचना की है। जिन बिन्दुओं पर वे चर्चा कर चुके हैं उन्हें उ(ृत करना हमारा उद्देश्य नहीं है, तथापि कुछ अनछुए प्रसंगों को हमने ‘नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथ’ शीर्षक के अन्तर्गत उजागर करने का प्रयास किया है।
प्रस्तुत शीर्षक के अन्तर्गत प्रसंगवश उल्लेख करते हैं कि आचार्यजी ने अपनी मूल्यवान पुस्तक ‘नाथ सम्प्रदाय’ में कपिलमुनि (कपिलानीपंथ), लक्ष्मण (नाटेश्वरीपंथ), धर्मनाथ (युधिष्ठिर) तथा गंगानाथ (भीष्म पितामह) को गोरक्षनाथ के शिष्य होना बताया है। ओड़िया साहित्य में लक्ष्मण, हनुमान और सीता को गोरक्षनाथ के शिष्य होना बताते हैं।
तदनुसार वनवास समाप्ति के पश्चात् जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं तो उनकी गोरक्षनाथ से भेंट होती है। उनके शिष्यत्व में आने के विषय में होने वाले वार्तालाप के समय श्रीराम को पता लगता है कि भरत, लक्ष्मण, हनुमान और सीता पहले ही उनके शिष्य बन चुके हैं और उनके द्वारा दी गयी योग की शिक्षा के बल पर ही उन्होंने असाध्य कार्यों को करने की योग्यता प्राप्त कर श्रीराम कार्य को कर सकने में सफल हुए हैं। तब श्रीराम भी उनके शिष्य बनते हैं।
गर्ग संहिता में गर्ग ऋषि व भगवान श्रीकृष्ण के मध्य संवाद में श्रीकृष्ण द्वारा पूछे जाने पर कि-
गोरक्षनाथः को देवः को मन्त्रस्तस्य पूजने।
सेव्यते केन विधिना, तत्सर्वं ब्रूहि मे मुने।।
गर्ग ऋषि द्वारा-
शृणु कथाः सर्वा, गोरक्षस्य विधि क्रियाः।
गोरक्षं च हृदि ध्यात्वा, योगीन्द्रो सेविता नरः।।
विना गोरक्ष मन्त्रेण, योगसिद्धिर्न जायते।
गोरक्षस्य प्रसादेन, सर्वसिद्धिर्न संशयः।।
ऐसा कह कर श्रीकृष्ण की जिज्ञासा को शान्त किये जाने का वृत्तान्त है। इसी भांति ‘कल्पद्रुम तंत्र’ में भगवान श्रीकृष्ण व महायोगी गोरक्षनाथ के मध्य द्वारिका संवाद/शास्त्रार्थ के पश्चात् श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी सहित योगेश्वर गोरक्षनाथ की वन्दना, श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में पुरोहित का कार्य महायोगी गोरक्षनाथ द्वारा करवाया जाना तथा युद्ध जीतने के पश्चात् राजसूय यज्ञ में आमन्त्रित करने के लिये युधिष्ठिर द्वारा भीम को महायोगी गोरक्षनाथ के पास भेजना भी उस काल में उनकी उपस्थिति को सिद्ध करता है।
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में प्रसिद्ध गोरक्षनाथ मन्दिर में एक भीमकाय पदर्चिं के बारे में कहा जाता है कि राजसूय यज्ञ में गोरक्षनाथ को आमन्त्रित करने के लिये जब भीम वहां पहुंचे तो गोरक्षनाथ समाधि में लीन थे। भीम द्वारा बहुत समय तक एक ही स्थान पर प्रतीक्षा करने के कारण पृथ्वी उस स्थान पर दब गयी जो चिरकाल से आज भी यथारूप है।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: महाकाव्य काल से ईसा पूर्व के प्राचीन इतिहास में विक्रमादित्य के बड़े भाई भर्त्तृहरी और मध्यकाल की विश्व प्रसिद्ध प्रेम कहानी लैला-मजनूं के नायक मजनूं का गोरक्षनाथ से मिलना और जोगी (योगी) बन जाना, नेपाल के पृथ्वीनारायण शाह को अक्षुण्ण और निष्कण्टक राज्य के वरदान के साथ 10वीं पीढ़ी के पश्चात्् परिवार के नाश का अभिशाप, मेवाड़़ के संस्थापक बप्पा रावल को महायोगी गोरक्षनाथ द्वारा तलवार देकर विजयी होने का आशीर्वाद देना, गोरक्षनाथ के समकालीन योगी जलन्धरनाथ (ज्वालेन्द्रनाथ? कौन जाने) के शिष्य गोगाजी पीर आदि कितनी ही कहानियां विभिन्न कालखण्डों में उनकी उपस्थिति को सिद्ध करती हैं जो उनके कालजयी होने के तथ्य को बल प्रदान करती हैं।
यद्यपि गर्गसंहिता, नारदपुराण, स्कन्दपुराणादि भी गोरक्षनाथ के संबन्ध में भिन्न-भिन्न धारणाएंॅ देते हैं। हमारा प्रयास केवल कुछ अनछुए तथ्यों के प्रकाश में विषय का पुनरीक्षण करना है। प्रसंगवश हम यहां सर्वप्रथम महायोगी गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के संबन्ध में प्रचलित कथाओं को सार रूप में प्रस्तुत करेंगे, इतना अवश्य है कि इन कथाओं को कालक्रमानुरूप क्रमबद्ध करना पुनः एक जटिल कार्य है अतः क्रम की औपचारिकता का पालन नहीं करने का हमें खेद है।
- गोरक्षनाथ की स्तुति ‘¬शिवगोरक्ष’ नामक मंत्र से की जाती है अतः सर्व प्रथम गर्ग संहिता में आये आख्यान उद्धृत करना विषय के प्रति एक उत्तरदायित्व है। गर्गसंहिता के अनुसार देवताओं ने महादेव शिवशंकर से प्रश्न किया कि ‘‘कोऽसौ गोरक्षनाथौ? को मंत्रस्तस्य पूजने?’’ अर्थात् हे महेश्वर! गोरक्षनाथ कौन है और उनकी पूजा के लिये क्या मंत्र है? तब भगवान शिव ने कहा ‘‘अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत, योगमार्ग प्रचाराय मया रूपमिदं धृतम्।’’ अर्थात्् मैं ही गोरक्षनाथ हूं, मेरा ही रूप गोरक्षनाथ को जानो, लोककल्याणकारी योगमार्ग प्रचारार्थ मैंने ही गोरक्षनाथ का अवतार लिया है।
वैशाखी-शिव-पूर्णिमा-तिथिषरेवासरेशिवमङ्गले।
लोकानुग्रह-विग्रहः शिवगुरुर्गोरक्षनाथोऽभवत्।।
- स्वयं गोरक्षनाथ भी ‘महार्थमंजरी’ के स्वोपज्ञ भाष्य में कहते हैं ‘गोरक्षोलोकधिया देशिकदृष्टया महेश्वरानन्दः उन्मीलयामि परिमलमन्तग्रहिनं महार्थमंजर्याम्’ अर्थात्् ‘गो’ की रक्षा करने के कारण लोग मुझे गोरक्षनाथ कहते हैं, किन्तु गुरुदेव मत्स्येन्द्रनाथ की दिव्य दृष्टि से महेश्वर शिव का अवतार होने के कारण मेरा अन्वर्थ नाम महेश्वरानन्दनाथ है। उल्लेखनीय है कि शिवस्वरूप और आनन्दमय होने से सिद्ध पुरुषों के नाम के अन्त में आनन्द लगता है और ब्रह्मस्वरूप होने के कारण नाथ पद लगता है। शिव के एक सौ आठ अवतारों में सबसे प्रमुख होने के कारण गोरक्षनाथ का ‘¬शिवगोरक्ष’ नामक महामंत्र से जप किया जाता है।
- स्कन्दपुराण के ब्रह्मा संवाद खण्ड में भी गोरक्षनाथ अवतार की कथा इस प्रकार है कि किसी ब्राह्मण के यहां गण्डान्त नक्षत्र में उत्पन्न होने से अशुभ और अनिष्टकारी जानकर उसने अपने पुत्र को समुद्र में फेंक दिया। वहां एक मछली उस बच्चे को निगल गयी किन्तु ईश्वरीय चमत्कार द्वारा वह बच्चा वहां भी जीवित रहा। उधर एक बार माता पार्वती ने भगवान शंकर के गले में नरकपालों की माला का रहस्य पूछा तो भगवान शंकर ने कहा कि वे नरकपाल सती पार्वती के पूर्वजन्मों के हैं।
इस पर उन्होंने अपने बार-बार मरने और भगवान शिव के अमरत्व का कारण पूछा तो सदाशिव उन्हें डोंगी पर बैठाकर समुद्र के मध्य एकान्त में ले गये और अमर कथा (आत्मा की अनश्वरता का ज्ञान अर्थात् योग विद्या) बताने लगे। कथा सुनते-सुनते सती पार्वती योगनिद्रा में लीन हो गयीं और डोंगी के नीचे मछली के पेट में छिपा हुआ बालक हुंकारे देता रहा। नींद खुलने पर सती पार्वती ने शिव से कहा कि नींद आ जाने के कारण वह सम्पूर्ण कथा नहीं सुन सकी। इस पर शिव ने तीन ताली बजाकर ब्रह्माण्ड को जीवरहित किया किन्तु अमरकथा सुन लेने के कारण वह मत्स्य बालक जीवित रहा। चोरी से योगविद्या का ज्ञान प्राप्त करने के कारण शिव ने क्रुद्ध होकर उसे शाप दिया कि एक समय वह इस ज्ञान को भूल जायेगा।
कथा के दूसरे भाग में शिव के शाप से त्रस्त मत्स्येन्द्र यहां वहां घूमते हुए योगाभ्यास व शैव मत का प्रचार करते रहे और कुछ समय बाद शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए शिवाराधना करने लगे। उनके द्वारा की गयी घोर तपस्या के परिणामस्वरूप शिव उनके समक्ष प्रकट हुए और वरदान मांगने के लिये कहा। इस पर मत्स्येन्द्र ने उनसे उनका ही स्वरूप (अर्थात् शिव का योगी वेश), जगत कल्याणार्थ योग विद्या का विस्तार व तत्त्वज्ञान की विस्मृति के शाप से मुक्ति का वरदान मांग लिया। तदनन्तर शिव द्वारा मत्स्येन्द्र को अपना योगी वेश, योग विद्या का विस्तार करने का आदेश और स्वयं उनके शिष्य रूप में मत्स्येन्द्रनाथ का उद्धार करने का वचन दिया जाना इस अमरकथा के प्रसंग में गोरक्षनाथ अवतार की दूसरी कड़ी है।
अगले घटनाक्रम में पुत्राकांक्षी एक ब्राह्मण स्त्री ने योगी से पुत्र प्राप्त करने के लिये वरदान मांगा। इस पर योगी मत्स्येन्द्रनाथ ने उसे अपनी झोली में से विभूति देकर यह वचन लिया कि बारह वर्ष पश्चात् वह अपने पुत्र को उनके शिष्यत्व में दे देगी। राख से पुत्र कैसे उत्पन्न होगा यह सन्देह करके उसने विभूति गोबर में फेंक दी। बारह वर्ष के पश्चात् मत्स्येन्द्रनाथ पुनः आते हैं और उस स्त्री से अपने पुत्र को उनके शिष्यत्व में देने के वचन की याद दिलाते हैं।
स्त्री द्वारा राख को गोबर के स्थान पर फेंक देने की बात कहने पर योगी मत्स्येन्द्रनाथ उस स्थान पर जाकर गोरक्ष नाम से आवाज लगाते है तो एक बारह वर्ष का बालक आदेश-आदेश कहता हुआ प्रकट होता है। यहीं गोरक्षनाथ का प्राकट्य होता है जो बाद में मत्स्येन्द्रनाथ को कदली देश के स्त्रीराज्य के चंगुल से निकाल कर पुनः योगमार्ग में प्रतिष्ठित करते हैं।
- स्कन्दपुराण के ही केदारखण्ड के 42वें अध्याय में भगवान शिव, जगदम्बिका माता पार्वती के पूछने पर गोरक्षनाथ के स्थान को इंगित करते हैं।
तस्माद्दक्षिणतो देवि गोरक्षाश्रमरक्षकः,
यत्र सिद्धो महायोगी गोरक्षो वसतेऽनिशम।।1।।
तल्लिङ्गन्तु प्रवक्ष्यामि श्रृणु पुण्यतमं स्थानम्,
महातप्तजलं तत्र वर्तते सर्वदेव हि।।2।।
तत्र स्थितव सप्तरात्रं जपन्वै शिवमुत्तमम्,
सिद्धो भवति देवेशि यथा गोरक्षोत्तमः।।3।।
अर्थात् उससे दक्षिण की ओर अत्यन्त रमणीय एवं पवित्र गोरक्ष आश्रम है। जहां पर सिद्धाधिराज गोरक्षनाथ निवास करते हैं। उस महापीठ का र्चिं बताता हूंॅं- यह अत्यन्त पुण्यतम स्थान है जहां सदा अत्यन्त उष्ण जल विद्यमान है। जो पुरुष सात रात शिव का जप करता हुआ वहां निवास करता है वह साक्षात् गोरक्षनाथ जैसा हो जाता है।
- स्कन्दपुराण के केदार खण्ड में ही अध्याय 45 तथा 46 में लिखा है कि-
नित्यनाथादयः सिद्धा अत्रेव तपतत्पराः,
सिद्धिम्प्राप्ताः पुरा देविमादष्शास्ते न संशयः।।1।।
न तस्य भयलेशोऽस्ति तिसतत्र पीठके,
शीघ्रं वै लभते सिद्धिं यथा गोरक्षकादयः।।2।।
अर्थात् पहले नित्यनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) तथा गोरक्षनाथ साधकों को वांछित फल देने में समर्थ हुए सब मेरे जैसे बने तथा जप परायण इस पीठ पर रहने वाला पुरुष भी पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है इसमें सन्देह नहीं है।
- पुनः स्कन्दपुराण के केदार खण्ड के 74वें अध्याय में नवनाथों में महायोगी गोरक्षनाथ का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-
नव नाथाःसमाक्ष्यातास्तत्र श्री आदिनाथकः।
अनादिनाथः कूर्माख्यो भवनाथस्तथैव च।।
सत्यसन्तोषनाथौ तु मत्स्येन्द्रो गोपीनाथकः।
गोरक्षो नव नाथास्ते नादब्रह्मरताः सदा।।
- स्कन्दपुराण के ही हिमत्वखण्ड में महायोगी गोरक्षनाथ की तपस्थली मृगस्थली नेपाल महात्म्य में गोरक्षनाथ को सिद्धियों का दाता कहा गया है। प्रासंगिक श्लोक 52 से 59 को यथारूप यहां प्रस्तुत किया जा रहा है तथा उनका संक्षिप्त भावार्थ इस प्रकार है कि जो सिद्धाचल मृगस्थली में तीन रात्रि निवासरत रहकर महायोगी गोरक्षनाथ का स्मरण करता है वह स्वयं सिद्ध महायोगी गोरक्षनाथ के प्रसाद से कृतार्थ होकर सदा के लिये संसार में आदर्श बन जाता है। कार्तिक मास की कृष्ण चतुर्दशी को भगवान पशुपतिनाथ की इस परम पवित्र विहार स्थली की जो पुरुष परिक्रमा करता है वह एक-एक पद पर निष्पाप होता हुआ स्वर्णिम पुण्य को प्राप्त करता है। श्लोक इस प्रकार है-
ब्रह्मद्वीपे महातीर्थे स्नात्वा द्वीपे प्रदीयते।
कार्तिकस्य चतुर्दश्यां शुक्लायां वा विशेषतः।।52।।
गोरक्षनाथो योगीन्द्रो योगेनात्र समाश्रितः।
मत्स्येन्द्रेण समं नित्यं चौरङ्ग्याद्यैश्च योगिभिः।।53।।
तेषां योगश्च संसिद्धस्तत्र मृगस्थले द्विज।
पशुपते प्रसादतो योगः प्रापुरथार्हणम्।।54।।
नानासिद्धगणर्नित्यमंत्रागत्य सुभक्तितः।
प्रारब्धस्तैर्महायोगो गोरक्षस्य प्रसादतः।।55।।
कार्तिकस्य चतुर्दश्यां कृष्णायां दृश्यते बुधः।
सिद्धाश्रमें पादुकास्य निष्पापास्ते न संशयः।।56।।
त्रिरात्रे सवते तत्र तं गोरक्षं स्मरन् धिया।
योगीश्वरो भवेदाशु सिद्धदेहो भवेत्सदा।।57।।
अत एव गरिष्ठं च ह्सेतत्क्षेत्र विरूपदृक्।
सिद्धानामारमं शाश्वत पशुपतेर्विहारकम्।।58।।
मृगस्थलीगिरि भ्राम्य ब्रीहिन्विक्षेपयेत्कृतम्।
सुवर्णरतिकातुल्यं ब्रहहिमेकं च युत्लम्।।59।।
- स्कन्दपुराण में एक अन्य स्थान पर वर्णन है कि-
गोरक्षनाथस्य तपः प्रभावादाकृश्टचेताः किल चक्रवर्ती।
सहस्रबाहुर्वसुधाधिपायेऽयं जगाम गोरक्षगुरुं शरण्यम्।।
योगस्य जिज्ञास्यतमं विदित्व मार्गं महेशस्य गुरोः सकाशात्।
जग्राह सोमान्वयचक्रवर्ती गोरक्षनाथस्य बभूव शिष्य।।
अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी के चक्रवर्ती चन्द्रवंशी सम्राट सहò्रबाहू भगवान गोरक्षनाथ के तप से आकृष्ट होकर उनके पास गये और जिज्ञासा से अभिप्रेरित होकर उनके शिष्य बनकर आदिनाथ परम्परा से चले आ रहे योगमार्ग को ग्रहण किया।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: सहस्त्रबाहु की कथा
किंवदंती है कि सहस्त्रबाहू रोजाना अपनी एक भुजा काटकर भगवान शिव को अर्पित किया करते थे और योग से प्राप्त अजेय शक्ति से उनकी कटी हुयी भुजा पुनः अपने स्थान पर जुड़ जाया करती थी। कहीं-कहीं यह भी पढ़ने को मिलता है कि सहòबाहू अपनी सहò भुजाओं से जब वाद्य यन्त्र बजाया करता तो उस संगीत पर प्रसन्न होकर महादेव शिवशंकर नृत्य किया करते थे।
प्रासंगिक नहीं होने से सहस्त्रबाहू की तपस्या के सन्दर्भ में हमने कोई अधिक पड़ताल करने का उद्यम नहीं किया। किन्तु जयपुर से 45 किलोमीटर दूर प्रसिद्ध तीर्थ सामोद क्षेत्र ‘मालेश्वर’ में तीन ओर से आच्छादित पहाडियों की तलहटी में मालेश्वर महादेव मन्दिर की विशेषता यह है कि इस मन्दिर में स्थापित शिवलिंग सूर्य के दक्षिणायण के समय यह शिवलिंग दक्षिण की ओर तथा उत्तरायण काल में उत्तर की ओर झुकाव लेता रहता है। इस शिवमंदिर के गर्भगृह के ठीक सामने अपने सह हाथों से वाद्ययन्त्र बजा रहे सहòबाहू की प्रतिमा है।
सहत्रबाहू की वाद्ययन्त्र बजाते हुए प्रतिमा और शिवलिंग का उत्तर-दक्षिण में झूमना इस कथा की वास्तविकता को बल देता प्रतीत होता है। यहां प्रश्न यह नहीं है कि सत्य क्या है? किन्तु योग शक्ति या ईश्वरीय वरदान से शरीर के अंगों के इस प्रकार जुड़ने की अनेक कथाएं पुराणों में हैं। रक्तासुर, बीजासुर, जरासंध और रावण इसके सुविदित उदाहरण हैं।
- शिवपुराण के सातवें खण्ड के प्रथम अध्याय में बह्माजी ने शिव के अवतारों का वर्णन करते हुए गोरक्षनाथ को शिव का अवतार बताया है।
शिवो गोरक्षरूपेण योगशास्त्रं जुगोपए।
यमाद्यङ्गै यथास्थाने स्थापिता योगिनोऽपि च।।1।।
अर्थात् भगवान शिव ने गोरक्ष रूप में आकर योग और योगियों की रक्षा की तथा योगशास्त्र की सत्यता को यम-नियमादि अंगों द्वारा प्रमाणित किया। जैसा कि इसी अध्याय में हमने पूर्व में चर्चा की है कि गर्गसंहिता के अनुसार देवताओं द्वारा महादेव शिवशंकर से प्रश्न करने पर उनके द्वारा कहा गया कि-
‘‘अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत।
योगमार्ग प्रचाराय मया रूपमिदं धृतम्।।’’
अर्थात् मैं ही गोरक्षनाथ हूं, मेरा ही रूप गोरक्षनाथ को जानो, लोककल्याणकारी योग मार्ग का प्रचार करने के लिये मैंने ही गोरक्षनाथ का अवतार लिया है। और जिस दिन शिव का गोरक्षनाथ रूप में प्राकट्य हुआ उसको योगी प्रवर नरहरिनाथ ने अपनी अमूल्य कृति ‘योग शिखरणी यात्रा’ में इस प्रकार इंगित किया है-
वैशाखी-शिव-पूर्णिमा-तिथिषरेवारे शिव मङ्गले।
लोकानुग्रह-विग्रहः शिवगुरुर्गोरक्षनाथोऽभवत्।।
- स्कन्दपुराण के अध्याय 51 में वर्णित ब्रह्मा और देवर्षि नारद के मध्य गोरक्षनाथ अवतार कथा नाथ योगियों में इस प्रकार प्रचलित है कि मत्स्येन्द्रनाथ को शाप मुक्ति के लिये दिये हुए वरदान को चरितार्थ करने के विचार से करुणामय अमिताभ भगवान आशुतोष ने माता पार्वती के अन्तःकरण को प्रेरित किया और पार्वती ने भगवान शिव से अभिमान पूर्वक कहा किः- हे महादेव! जहां-जहां आप हैं वहां-वहां मैं आपसे पृथक् नहीं हूंॅ। बिना मेरे आपकी कोई पृथक् सत्ता नहीं है। आप विष्णु हैं तो मैं लक्ष्मी हूंॅ, आप महेश्वर हैं तो मैं महेश्वरी हॅूं, आप शिव हैं तो मैं शक्ति हूं, आप इन्द्र हैं तो मैं इन्द्राणी, आप वरुण हैं तो मैं वारुणी, आप पुरुष हैं तो मैं प्रकृति और आप ब्रह्म हैं तो मैं माया। अर्थात्् आपका अस्तित्व कहीं भी मुझसे पृथक् नहीं है।
इस पर भगवान शिव कहते हैं कि हे पार्वती! जहां- जहां तुम हो वहां वहां मैं हूं यह कथन सत्य है, किन्तु यह कथन असत्य है कि जहां-जहां मैं हूंॅ वहा-वहां तुम मेरे साथ हो। जिस प्रकार जहां-जहां घट है वहां मृत्तिका अवश्य है किन्तु जहां जहां मृत्तिका है उन समस्त स्थानों पर घट नहीं है। जिस प्रकार आकाश सभी पदार्थों में व्यापक है किन्तु सभी पदार्थ आकाश में व्यापक नहीं हैं। इसी प्रकार मैं तो तुम्हारे अस्तित्व में एकात्म हूंॅ किन्तु मेरा एक रूप ऐसा भी है जहां तुम मेरी अर्द्धांगिनी के रूप में मेरे साथ नहीं हो। मेरे उस स्वरूप में मैं केवल ‘स्व’ में स्थित हूंॅ। यह कह कर भगवान शिव ने ‘स्व’ तत्त्व को दो भागों में विभाजित कर दिया। उनका एक रूप कैलाश पर्वत पर यथावत रहा जबकी दूसरा रूप गोरक्षनाथ के रूप में अन्यत्र एकान्त में तपलीन हो गया।
तदनन्तर एक दिन शिव व पार्वती भ्रमण करते हुए एक ऐसे स्थान पर पहुंचते हैं जहां चारों ओर अनोखा वातावरण है। पार्वती के पूछने पर शिव किसी योगी द्वारा उस स्थान पर तपस्यारत होना बताते हैं। पार्वती उस योगी की परीक्षा लेने की आज्ञा लेती है और अपनी माया से नाना प्रकार से उस योगी को लुभाने का प्रयास करती है किन्तु वह योगी उन्हें केवल मां का संबोधन देता है। पार्वती उस योगी को आशीर्वाद देकर पुनः शिव के पास लौटती है और शिव से उस योगी के बारे में पूछती है कि तपलीन वह कौन हैं जो उनकी माया शक्ति के प्रभाव से भी परे है?
तब शिव उन्हें बताते हैं कि वह गोरक्षनाथ है जो उनका ही दूसरा रूप है और इस रूप में पार्वती उनके साथ नहीं हैं। जिस प्रकार प्रकाश और प्रकाशक को अलग नहीं किया जा सकता उसी प्रकार शिव और गोरक्ष में भेद नहीं किया जा सकता। उनका यह रूप समस्त देवताओं और मनुष्यों का इष्ट है जो माया से परे, काल का भी काल और समयापेक्षित अनेक रूपों से प्रकृति चक्र का संचालक है। संसार के कल्याण तथा वेद, गौ व पृथ्वी की रक्षा के लिये ही उन्होंने गोरक्ष रूप धारण किया है। इस रूप में पार्वती सर्वथा उनके साथ नहीं है।
- ‘गोरक्ष विजय’ नामक पुस्तक में यही कथा एक अन्य रूप में इस प्रकार है कि आदिनाथ भगवान शिवशंकर के पश्चात्् चार सिद्ध क्रमशः मीननाथ, गोरक्षनाथ, हाड़िफा तथा कान्हुपा उत्पन्न हुए। पार्वती द्वारा शिव से इन चारों सिद्धों की परीक्षा लेने की अनुमति मांगी गयी और आज्ञा मिलने पर भुवनमोहिनी रूप धारण करके चारों सिद्धों को उनके द्वारा अन्ना परोसा गया।
उस अवसर पर चारों सिद्धों के मन में अलग-अलग विचार आये। मीननाथ ने सोचा कि ऐसी नारी का संग प्राप्त हो तो मैं आनन्द से समय व्यतीत करूं। इस पर माता पार्वती ने शाप दिया कि तुम ज्ञान को भूलकर कदली प्रदेश में सुन्दरियों के साथ विहार करोगे।
हाड़िफा ने एसी सुन्दरी के घर झाडू लगाने को भी श्रेयष्कर समझा। इस पर उसे शाप मिला कि वह रानी रूपमती के घर झाडूदार बने। कान्हुपा ने ऐसी सुन्दरी के लिये प्राण देकर भी अपने को कृतार्थ माना। इस पर उसे शाप मिला कि वह तुरमान देश में हाडूका बनेगा। किन्तु गोरक्षनाथ ने सोचा कि ऐसी सुन्दरी मेरी मां होनी चाहिये। इस पर सती पार्वती ने अन्य कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली पर वे सभी प्रकार से खरे उतरे। इस पर पार्वती उन्हें कालजयी होने का आशीर्वाद देती हैं।
- ब्रह्माण्डपुराण के ललितापुर वर्णन में हयग्रीव संवाद में गोरक्षनाथ को योगियों में प्रमुख बताते हुए उनकी उपस्थिति सदैव वायुमण्डल में बतायी गयी है-
तस्य चोत्तरकोणे तु वायुलोको महाद्युतिः।
तत्र वायुशरीराश्च सदानन्दमहोदया।।1।।
सिद्धा दिव्यर्षययश्चैव, पवसनाभ्यासिनोऽपरे।
गोरक्षप्रमुखाश्चान्ये, योगिनी योगतत्पराः।।2।।
अर्थात् उसके उत्तर कोण में महाद्युति नामक वायुलोक है जिसमें योगियों के प्रमुख पवनाभ्यासी गोरक्षनाथ अन्य दिव्य ऋषियों के साथ सदा आनन्द में मग्न रहते हैं। इससे प्रकट होता है कि वायुलोक में गोरक्षनाथ अब भी विद्यमान हैं।
- मार्कण्डेयपुराण में महायोगी गोरक्षनाथ के बारे में कहा गया है कि-
द्विधा हठः स्यादेकस्तु मत्स्येन्द्र च गोरक्षादि
सुयोगिभिः अन्यो मृमएडुपुत्राद्यैः हठसंज्ञकः।।
अर्थात् हठयोग दो भागों में विभक्त है। एक विभाग की केन्द्र शक्ति भगवान मत्स्येन्द्रनाथ और महायोगी गोरक्षनाथ हैं तथा दूसरे की केन्द्र शक्ति चिरायु मार्कण्डेय आदिपद से सिद्ध बुद्धनाथ हैं।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: अनेक विद्वज्जनों ने ‘गोरक्ष’ पद के अर्थ की मीमांसा की है। उन सभी पर गहन दृष्टि डाली जाये तो वे अनेक स्थानों पर एक दूसरे से सहमत होते हुए गोरक्षनाथ के मौन इतिहास की गवेषणा करते हुए प्रतीत होते हैं। इस अर्थ और दृष्टिकोण से ‘गोरक्ष’ की संज्ञा किसी देहधारी मानव के लिये असत्य प्रतीत होती है। सत्य क्या है? यह कह पाना आज भी संभव नहीं है। किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि इतिहास जिस विषय में मौन हो उसका उत्तर जनश्रुतियों, किंवदन्तियों और दन्तकथाओं रूपी अलिखित साहित्य से ही संभव है। यदि यह माना जाये कि लिखित इतिहास केवल प्रत्यक्ष में घटित घटनाओं का ही संकलन है तो इतिहास की आधुनिक विधा में गोरक्षनाथ का कोई उल्लेख नहीं होना उनके जन्म और काल को प्रत्यक्ष रूप में घटित नहीं होना सिद्ध करता है।
फिर गोरक्षनाथ की वास्तविकता क्या है? क्या गोरक्षनाथ केवल एक विचार है? क्या गोरक्षनाथ शरीर और मनोविज्ञान की एक परम्परा है? क्या गोरक्षनाथ व मत्स्येन्द्रनाथ की कदली के स्त्रीराज्य से विजय की कथा का मनुष्य के शारीरिक रचना और आध्यात्मिकता से कोई संबन्ध है? नाथपंथ में जिस प्रकार गूढ़ अर्थों वाली सांकेतिक पदावलियों का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार क्या गोरक्षनाथ और नाथपंथ के अन्य सिद्ध आदि केवल एक विचार और आध्यात्मिक संकेत हैं?
मूल कथानुसार योगी मत्स्येन्द्रनाथ कामरूप देश के कामाख्या प्रदेश में महारानी मैनाकिनी (मंगला) और सौलह सौ अन्य रानियों के साथ योग साधना में तान्त्रिक कौलाचार प्रयोग कर रहे थे। (याद रहे कि चोरी से योग विद्या को प्राप्त करने के कारण मत्स्येन्द्रनाथ को शिव द्वारा एक समय योग विद्या भूल कर पथभ्रष्ट होने और लंका विजय के लिये समुद्र पर सेतु बनाते समय रानी मैनाकिनी को बारह वर्ष तक योगी मत्स्येन्द्रनाथ का सानिध्य प्राप्त करने का वरदान दिया गया था)।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: इस स्त्री राज्य में किसी पुरूष विशेषतः योगी-संन्यासी का प्रवेश निषिद्ध था। अपने दिये हुए वरदान की रक्षा के लिये स्वयं हनुमान इस नगर की रक्षा कर रहे थे। उधर अपने गुरू को इस स्त्रीराज्य से मुक्त कराने के लिये गोरक्षनाथ के अग्रसर होने के दो कारण थे। प्रथमतः वे योग साधना में कौलाचार की वामपंथी विकृति को दूर कर अपने गुरू को योग के मूल पंथ में वापस लाना चाहते थे और द्वितीयतः जालन्धरनाथजी के शिष्य कान्हिपा के साथ हुए एक छोटे से वाद-विवाद के कारण गोरक्षनाथ के लिये यह आवश्यक हो गया था कि वे मत्स्येन्द्रनाथ को उस स्त्रीराज्य से मुक्त करावें।
उल्लेखनीय है कि मत्स्येन्द्रनाथ का स्त्री राज्य में कौलाचार साधना और जालन्धरनाथ का गौड़ बंगाल में मैनावती के पुत्र गोपीचन्द्र को बारह वर्ष पश्चात् नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित कराने का वचन एक ही समय की घटनाएं हैं। गोपीचन्द्र को नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित करने से रोकने के लिये सभासदों और रानियों के कहने पर साधनारत जालन्धरनाथ को गोपीचन्द्र ने एक कुएं में फिंकवा कर ऊपर से मिट्टी व घोड़े की लीद आदि डलवा दी थी। वाद-विवाद में गोरक्षनाथ ने कान्हिपा को उनके गुरू (जालन्धरनाथ) के अपमान का उलाहना दिया तो कान्हिपा ने भी मत्स्येन्द्रनाथ के पथभ्रष्ट होने और नाथ सम्प्रदाय की बदनामी का उलाहना दिया था।
विचारणीय प्रश्न यह भी है कि गोरक्षनाथ जैसे महामानव और महाचरित्र के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ पर स्त्री मोह के इतने अधिक प्रभाव की किंवदन्ती के पीछे क्या कोई अन्य संकेत भी छिपा हुआ है?
नाथ सम्प्रदाय के आधार पुरुष मत्स्येन्द्रनाथ स्वयं की इतनी उच्चावस्था को त्यागकर स्त्री मोह में इतने अधिक रत हो जायें, यह आसानी से स्वीकार्य नहीं हो सकता। ‘नवनाथ भक्तिसागर’, ‘नाथलीलामृत’ और ‘सिद्ध चरित्र’ नामक कतिपय नाथ ग्रन्थों में इस घटना का उदात्तीकरण करने का प्रयास दिखाई देता है। जो ऐसा प्रतीत होता है कि नाथपंथ के कुछ विद्वानों द्वारा अपने सम्प्रदाय के आदिपुरुष का दोष छिपाने का प्रयास किया गया हो।
बहरहाल, इन सभी और ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर तो समुद्र मंथन की भांति एक महान शोध के पश्चात्् भी कदाचित् संभव न हो सके किन्तु गोरक्षनाथ द्वारा अपने गुरुदेव मत्स्येन्द्रनाथ को कदली देश के स्त्रीराज्य से मुक्त कराने की प्रमुख आख्यायिका पर महाराष्ट्र की केतकी महेश मोडक ने गोरक्षनाथ मन्दिर गोरक्षपुर से वर्ष 1998 में प्रकाशित योगवाणी के अंक चार में योगात्मक रूप से बहुत ही तार्किक प्रकाश डाला है। यद्यपि उनके द्वारा प्रस्तुत रूपक किसी-किसी स्थान पर पदों के प्रतीकात्मक रूप, विषय से सामंजस्य नहीं बैठा पाते तथापि उनकी प्रस्तुति निश्चय ही इस विषय पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करने पर विवश करती है।
इससे पूर्व वर्ष 1992 में नेपाल राजगुरु योगीप्रवर नरहरिनाथजी महाराज द्वारा जयपुर के झालाणा ग्राम में वर्तमान थाना मालवीया नगर व केलगिरी आई हॉस्पीटल के मध्य स्थित प्राचीन शिवमन्दिर में कोटि होम यज्ञ सम्पन्ना करवाते समय रात्रि में उनकी चरण सेवा के प्रसाद स्वरूप दिये जाने वाले प्रवचनों में एक दिन इसी प्रकार के वचनामृत का रसपान करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। किन्तु उस समय मेरे अन्तर्मन पर उनकी सुविधा, सेवासुश्रूषा और कोटिहोम यज्ञ का निर्विघ्न पूर्ण होने का विचार अधिक हावी होने से उनके द्वारा कहे हुए वृत्तान्त को अपने स्मृति पटल पर नहीं रख सका।
किन्तु वर्ष 1994 में अपने विभागीय कार्य से अपने साथी कर्मचारी उपनिरीक्षक भंवरसिंह गौड़ के साथ उदयपुर प्रवास के दौरान ऐसा ही आख्यान उदयपुर के आयस योगीप्रवर मगनमोहननाथजी महाराज ने मेरे द्वारा योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज के वचनामृत के सन्दर्भ में जिज्ञासा करने पर बताया था। वस्तुतः तब से ही मेरे मन में इस कथा में आये पदों का कोई अन्य अर्थ होने की धारणा घर कर गयी थी। इस विचार के प्रकाश में अन्य बातों पर विचार किया जावे तो मत्स्येन्द्रनाथ संबन्धी इस आख्यायिका में एक महान आध्यात्मिक सत्य का प्रस्फुटन होता प्रतीत होता है।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: मानव देह रूपी देश में दक्षिण अर्थात्् नीचे की ओर जो मुलाधार चक्र नामक स्त्रीराज्य है जिसकी रानी पिùनी (मूलाधार स्थित अधोमुखी अष्टदलीय कमल) नामक सद्वासना है। वहां और उसके आस-पास के क्षेत्र में नित्य निरन्तर वासनाओं रूपी स्त्रियों का कोहराम मचा रहता है। इस स्त्री राज्य में मारुती के वुभूकार से ही अपत्य की प्राप्ति होती है और पुरुष संतति वहां जीवित नहीं रहती। इसका अर्थ है कि मारुती (हनुमान, जिन्हें नाथ सम्प्रदाय के ध्वज पंथ का प्रवर्तक माना जाता है, का एक नाम जो आत्मतत्त्व का वाचक है और वासनाओं से निर्लिप्त व निसंग है) अर्थात् श्वास-निःश्वास से उत्पन्न होने वाले विचार, कल्पना तथा वासना आदि में से अपने समानधर्मी कामनाओं को इस क्षेत्र में स्थान प्राप्त हो जाता है।
जबकि वासनाओं के अतिरिक्त आत्मविषयक उच्च विचारों का वहां प्रवेश नहीं होता। उल्लेखनीय है कि यहां कामना और वासना स्त्री और आत्म विषयक उच्च विचार पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं। मूल आख्यायिकानुसार रानी पिùनी को एक दिन आकाशमार्ग से गमन करता हुआ मारुती दिखाई देता है ओर उसके मन में मारुती के प्रति काम भावना जागृत होती है।
योग ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि जब सद्वासना ऊर्ध्वमुखी हो जाती है तब क्षणमात्र के लिये ही सही किन्तु उसे आत्मा के सामर्थ्यशाली रूप का दर्शन हो जाता है और यह निश्चय ही इतना आकर्षक होता है कि किसी भी अच्छी चीज के दिखने पर खुद के लिये उसकी मांग करने वाली प्रकृति से विवश वासना उसे प्राप्त करने के लिये उत्कण्ठित हो जाती है। किन्तु आत्मतत्त्व निश्चल और निर्लेप होने के कारण वासना का उद्देश्य पूरा नहीं करता किन्तु आत्मा का पुत्र जीव चंचल इन्द्रियों वाला होने के कारण वासनाओं से संबंधित हो जाता है।
यह जीव ही मत्स्य के समान चंचल इन्द्रियों वाला अर्थात्् मत्स्येन्द्रनाथ है। वासनाओं से संबंधित हो जाने पर मत्स्येन्द्र नामक जीव की शनैः शनैः अपने मूल आत्मस्वरूप से विस्मृति होती रहती है। इस मत्स्येन्द्र नामक जीव को कभी कभी इन्द्रियों की रक्षा (गोः- इन्द्रीय, रक्षः- रक्षक अर्थात्् गोरक्ष) की याद आती है तो तत्क्षण के लिये वह उसी प्रकार चौंक उठता है जैसे सुखोपभोग की गहरी नींद से कोई क्षणमात्र के लिये कोई चेतावनी सुनकर जाग पडे़ किन्तु आंख खुलने पर स्वयं को सुरक्षित पाकर पुनः निद्रालीन हो जावे। आनन्दभोग में मस्त हुआ मत्स्येन्द्र इसी प्रकार संयम को अस्वीकार करने लगता है और वासनाओें के जाल में उलझा रहता है।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: प्रश्न यह है कि वासना आसक्त हुए मत्स्येन्द्र नामक जीव को मायाजाल रूपी इस स्त्री राज्य से मुक्ति कौन दिलवायेगा?
विकल्परहित उत्तर है इन्द्रियनिग्रही विचार अर्थात्् गोरक्षनाथ। इसीलिये वासना आसक्त जीव (मत्स्येन्द्र) को इन्द्रियनिग्रही विचार (गोरक्ष) बारम्बार सजग करने का प्रयास करता है। पुनः, चूंकि इन्द्रिय संयम का यह विचार आत्मतत्त्व रूपी पुरुष संतति का प्रतिनिधि है जिसका प्रवेश वासना क्षेत्र में निषिद्ध है, अतः यह सूचना प्रकट रूप से नहीं दी जाकर अप्रत्यक्ष रूप से दी जाती है। संकट, व्यवधान, दुःख, कठिनाई और यदा-कदा पुनः प्राप्त होने वाली स्मृति के समय जीव यह सूचना प्राप्त कर लेता है। गोरक्षनाथ स्वयं अपने रूप में मत्स्येन्द्रनाथ के समक्ष उपस्थित नहीं होते। वासना को उत्प्रेरित और पूर्ति में सहायक वातावरण रूपी स्त्री वेश ही गोरक्षनाथ का वह अप्रत्यक्ष रूप है।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: अन्त में गोरक्षनाथ द्वारा मृदंग के माध्यम से मत्स्येन्द्रनाथ को ‘‘जाग मच्छन्दर गोरख आया’’ का अनुभव करवाना इस आख्यायिका का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश है।
तत्त्ववेत्ताओं में यह निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है कि देहरूपी मृदंग में ‘सोऽहं’ का अनहद नाद नित्य और अनवरत रूप से ध्वनित होता रहता है। वासना में आसक्त रहने से जीव उसे क्षीण ध्वनि से सुनता रहता है किन्तु यही ध्वनि जब इन्द्रिय निग्रह के माध्यम से सुनी जाती है तब इसका भान तीव्रता से होता है। इस अनहद नाद को सुनकर जीव अपने आत्मस्वरूप का अनुभव कर जब वासनाओं के जाल से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करता है तब ही ‘गोरक्ष विजय’ होती है।
Gorakhnath Prakatotsav Diwas: विषय अंतहीन है
जो भी हो, एक अन्तहीन विषय पर चर्चा अथवा वाद-विवाद भी किसी निष्कर्ष को प्रकट नहीं कर सकता। गोरक्षनाथ केवल एक विचार है अथवा देहधारी मानव? वर्तमान का सत्य यह है कि महायोगी गोरक्षनाथ की जयंती मनाने के लिये उत्कण्ठित राजस्थान सहित सम्पूर्ण भारत के नाथ योगी काफी अर्से से उनके प्रादुर्भाव की तिथि जानने के लिये प्रयासरत थे।
हिंगुवा मठ के दिवंगत महन्त योगी प्रवर श्री हजारीनाथजी महाराज की प्रेरणा से 11 मई, 2008 को शिवलीन योगी मानसिंह तंवर ने अपने सहयोगियों सहित सभी संभव प्रयास किये और अन्ततः नेपाल राजगुरू योगी प्रवर श्री नरहरिनाथजी महाराज की कृपा और सहयोग से नेपाल दरबार लायब्रेरी के एक ग्रन्थ में निम्नांकित पंक्तियॉं मिली।
वैशाखी-शिव-पूर्णिमा-तिथिषरेवारे शिव मङ्गले।
लोकानुग्रह-विग्रहः शिवगुरुर्गोरक्षनाथोऽभवत्।।
उपरोक्त पंक्तियों से यह सिद्ध होता है कि महायोगी गोरक्षनाथ का प्रकटीकरण वैशाख मास की पूर्णिमा को हुआ था। यह प्रकटीकरण भूमण्डल और काल के किस खण्ड में हुआ था? इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट व सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी। यद्यपि यह विश्वास किया जाता है कि योगी मत्स्येन्द्रनाथ के नेपाल में अवलोकितेश्वर रूप में अवतरित होने से बारह वर्ष पूर्व गोरक्षनाथ का प्राकट्य हुआ था।