तीसरा प्रश्न: भगवान,
आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है, तो फिर अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों? अच्छा और सुख से भरा शरीर धारण कर सकती है, क्योंकि यह उसकी स्वतंत्रता है। भगवान, आशीर्वचन का पान कराएं।
गुणवंतराय पारिख,
आत्मा निश्चय ही स्वतंत्र है, लेकिन तुम्हें अभी अपनी आत्मा का पता भी कहां! तुम्हें आत्मा का बोध भी कहां, होश भी कहां! आत्मा स्वतंत्र है, लेकिन आत्मा होनी भी तो चाहिए न। और जब पता ही नहीं है तो न होने के बराबर समझो।
जार्ज गुरजिएफ कहा करता था, सभी के पास आत्मा नहीं है। और उसकी बात में एक सचाई है, चोट है। वह यह कह रहा है कि जिसको अपनी आत्मा का जागरूकता से बोध नहीं हुआ है, जिसको अपनी चेतना का साक्षात्कार नहीं हुआ है, उसके भीतर आत्मा के होने न होने का कोई मतलब ही नहीं है।
तुम्हारी जेब में कोहिनूर हीरा पड़ा है, मगर तुम्हें पता ही नहीं है, तो क्या तुम समृद्ध हो गए? तो क्या तुम धनी हो गए? पड़ा रहे कोहिनूर हीरा। कोहिनूर हीरे की कहानी यही है। कोहिनूर हीरा मिला था एक किसान को गोलकोंडा के–एक गरीब किसान को। उसके खेत से एक छोटा सा झरना बहता था, जिस झरने में उसे एक दिन यह चमकता हुआ पत्थर मिल गया। उसने सोचा बच्चों के खेलने के काम आएगा। उठा लाया।
तीन साल तक यह हीरा उसके आंगन में पड़ा रहा। बच्चे कभी खेलते, इधर फेंक देते, उधर फेंक देते। लेकिन किसान तो गरीब था सो गरीब ही रहा। कोहिनूर उसके आंगन में पड़ा था। और आज कोहिनूर संसार का सबसे बहुमूल्य हीरा है। तब भी था। सच तो यह है कि आज कोहिनूर केवल पुराने कोहिनूर का एक तिहाई हिस्सा बचा है। उस किसान के घर में यह तीन गुना बड़ा था। फिर इसको काटा गया है, इस पर पहलू रखे गए हैं, इसको निखारा गया है, साफ किया गया है। एक तिहाई वजन बचा है। तब भी दुनिया का सर्वाधिक बहुमूल्य हीरा है। तब तो तीन गुना था! मगर वह किसान तो गरीब था सो गरीब ही रहा।
वह तो संयोग की बात थी कि एक घुमक्कड़ साधु उसके घर रात मेहमान हो गया। और उस साधु ने यह हीरा देखा। वह साधु साधु होने के पहले जौहरी था। उसने कहा कि मैंने जीवन में बहुत हीरे देखे, मगर इससे बड़ा हीरा नहीं देखा। इसको आंगन में डाल रखा है, पागल है तू? कोई चुरा ले जाएगा।
उसने कहा, यह तो तीन साल से पड़ा है, कोई चुरा नहीं ले गया। गांव के गरीब किसानों को किसी को भी पता नहीं था कि यह हीरा है, चुरा कर कोई ले जाता किसलिए? जब बोध हुआ कि हीरा है, उठा लाया जल्दी से। घबड़ाहट से बाहर गया कि कहीं कोई उठा न ले गया हो। रात थी। आधी रात को। फिर सुबह तक भी प्रतीक्षा नहीं की। रात भर सो भी न सका कि कहीं कोई चोर इत्यादि न आ जाए। तीन साल से पड़ा था, कोई चिंता न थी, कोई फिक्र न थी।
सुबह ही उठ कर हैदराबाद के नवाब निजाम के यहां पहुंच गया। बहुत धन मिला उसे पुरस्कार में। हालांकि वह धन कुछ भी न था हीरे के मुकाबले। मगर किसान तो समझा कि बहुत मिला, अपूर्व मिला, इससे ज्यादा क्या मिल सकता है! उसको क्या पता था कि हीरे की कितनी कीमत है।
तुम्हारी आत्मा भी यूं है कि तुम्हें उसका पता नहीं। और जब पता ही नहीं तो गुरजिएफ ठीक कहता है कि है या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ उन्हीं के पास है जिन्हें पता है। सिर्फ ध्यानी के पास आत्मा है, अगर ठीक से समझो। क्योंकि वही जौहरी है। गैर-ध्यानी के पास कोई आत्मा नहीं है! गैर-ध्यानी तो खोका समझो। आत्मा आंगन में पड़ी है माना, मगर उसको न उसकी कोई कीमत है, न कोई मूल्य है। और जब तुम्हें पता ही नहीं तो तुम क्या खाक आत्मा की स्वतंत्रता का उपयोग करोगे!
तुम पूछते हो, गुणवंतराय: “आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है…।’
लेकिन तुम्हारी आत्मा नहीं, किसी प्रबुद्ध व्यक्ति की आत्मा। लेकिन तब एक मुश्किल खड़ी होती है। प्रबुद्ध व्यक्ति की आत्मा किसी भी शरीर में प्रवेश करने को स्वतंत्र है, लेकिन वह प्रवेश ही क्यों करे? आखिर सभी शरीर छोटे-छोटे कारागृह हैं। तुम यह कह रहे हो कि आत्मा किसी भी कारागृह में प्रवेश करने के लिए स्वतंत्र है। मगर जब तुम स्वतंत्रता का बोध करोगे तो तुम किसी भी कारागृह में क्यों प्रवेश करोगे?
इसलिए जो जाग जाता है वह तो फिर किसी शरीर में प्रवेश नहीं करता। वह तो विश्व-आत्मा में प्रवेश कर जाता है। वह तो अपनी आत्मा को विराट के साथ लीन कर देता है। वह तो एक हो जाता है अनंत के साथ। जो शरीरों में प्रवेश करते हैं, उनको आत्मा का कोई पता नहीं, वे तो मूर्च्छित लोग हैं। और मूर्च्छित व्यक्ति क्या चुनेगा? मूर्च्छित व्यक्ति अपनी मूर्च्छा के अनुसार ही चुनेगा न!
इसलिए तुम पूछ रहे हो: “तो फिर अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों?’
मूर्च्छित व्यक्ति की धारणाएं हैं। अब समझ लो कि महात्मा गांधी, अब ये समझते हैं कि दरिद्र नारायण हैं। अगर ईमानदारी से यह मानते हैं कि दरिद्र नारायण हैं, तो मर कर ये दरिद्र में ही प्रवेश करेंगे, स्वभावतः। अमीर में प्रवेश करके क्या नारायण से दूर जाना है? ये तो दरिद्र में ही प्रवेश करेंगे। इनकी धारणा इनको दरिद्र में ले जाएगी।
अगर अछूत हरिजन हैं…हरिजन की पहले कुछ और व्याख्या थी। हरिजन की बड़ी प्यारी व्याख्या थी। नरसी मेहता ने हरिजन की ठीक-ठीक व्याख्या की है: हरिजन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे। कहां तो हरिजन की यह व्याख्या और कहां जगजीवनराम हरिजन! चमार हो गए कि हरिजन हो गए! भंगी हो गए कि हरिजन हो गए!
महात्मा गांधी खुद भी अपने आश्रम में पाखाना साफ करते थे, औरों से भी करवाते थे। अब तुम पूछ रहे हो गुणवंतराय पारिख कि अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों? अगर महात्मा गांधी को चुनना ही होगा कोई शरीर तो भंगी का चुनेंगे। पाखाना साफ करेंगे। सिर पर पाखाना ढोएंगे। तभी उनके चित्त को शांति मिलेगी, नहीं तो चित्त को शांति नहीं मिल सकती। धारणाएं तो दिक्कत देंगी न! आखिर तुम्हारी धारणाओं के अनुसार ही तो तुम चुनाव करोगे!
जीवन भर तुम अंधे की तरह जीते हो, आंख खोलते ही नहीं। आंख खोलने से डरते हो कि कहीं आंख खोलने से वह न दिखाई पड? जाए जो तुम्हारी मान्यता के विपरीत है।
तुमने घंटाकर्ण की कहानी सुनी न, जो अपने कानों में घंटे अटकाए रखता था! घंटे बजते रहते, ताकि कोई ऐसी बात सुनाई न पड़ जाए जो उसके सिद्धांत के खिलाफ जाती है।
जापान में एक कहानी है। एक बौद्ध साध्वी अपने साथ माणिक की बनी हुई छोटी सी बुद्ध की प्रतिमा रखती थी। और मंदिरों में ठहरती, साध्वी थी, तो मंदिरों में बुद्धों की और भी बहुत प्रतिमाएं होती थीं। सब माना बुद्ध की प्रतिमाएं हैं, मगर अपनी प्रतिमा की बात ही और! अहंकार कैसे-कैसे रूप लेता है! वह रोज पूजा करती अपनी माणिक की प्रतिमा की। पूजा में धूप जलाती, दीप जलाती।
मगर उसको यह डर भी लगा रहता कि धूप तो उड़ेगी! उड़ेगी, और दूसरे बुद्ध बैठे हैं न मालूम कितने! बुद्ध मंदिरों में बहुत बुद्ध होते हैं। और दूसरे बुद्धों की नाक तक पहुंच गई तो अपने बुद्ध वंचित हुए। सो उसने एक पोंगरी बना रखी थी, सो बुद्ध के नाक से जोड़ देती थी।
उसका कुल परिणाम इतना हुआ कि बुद्ध की नाक काली पड़ गई। खुद की नाक कटी, बुद्ध की भी कट गई! नासमझों के हाथ में बुद्ध भी पड़ जाएं तो उनकी भी दुर्गति हो जाएगी।
अब ये तुम्हारे जीवन के जो आधार हैं, अगर गलत हैं, तो तुम ऐसा ही चयन करोगे। स्वतंत्रता तो तुम्हें हो भी नहीं सकती। तुम्हारी धारणाएं, तुम्हारी मान्यताएं, तुम्हारे विश्वास तुम्हें अटकाएंगे। महंत गरीबदास झोलीवाले ने पूछा है…।
अब देखते हो, इन्हें कोई और नाम न मिला–गरीबदास! और उतने से भी चित्त नहीं भरा–झोलीवाले! अब ये अगर मरें भी तो झोली तो साथ ले ही जाएंगे, पक्का समझना। ये झोली लटकाए ही पैदा होंगे। यह खोपड़ी देखते हो! मगर ऐसी खोपड़ियां इस देश में बहुत हैं।
अब उन्होंने पूछा है कि आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं, जिससे सामान्य व्यक्ति में हमारे प्रति श्रद्धा खंडित होती है। और संतों में श्रद्धा ही जीवन का आधार है। और आप लोगों की श्रद्धा डगमगा कर उनके नरक का इंतजाम कर रहे हैं। क्या यह आपको शोभा देता है?
अब जरा सोचो, गरीबदास झोलीवाले स्वयं को सोचते हैं कि आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं!
कौन सा आचरण और कैसे साधु-संत? और जो स्वयं को साधु-संत मानते हों, एक बात तो निश्चित है कि उन्हें साधुता का और संतत्व का कोई भी पता नहीं। गरीबदास, जरा उपनिषद पढ़ो। उपनिषद कहते हैं: जो सोचता है कि मैं जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। उपनिषद यह भी कहते हैं कि अज्ञानी तो अंधकार में भटकते हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं।
अब क्या तुम यह कहोगे कि उपनिषद ज्ञानियों की आलोचना में लगे हुए हैं, लोगों की श्रद्धा ज्ञानियों में खंडित कर रहे हैं, और अज्ञानियों की प्रशंसा कर रहे हैं? क्योंकि उपनिषद कहता है: अज्ञानी अंधकार में ही भटकते हैं, मगर ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। और जो कहता है मैं जानता हूं, वह निश्चित नहीं जानता। और जो कहता है कि मैं नहीं जानता हूं, वह जानता है।
यह तो अज्ञान की प्रशंसा हो गई और ज्ञान की आलोचना हो गई।
यहां भी उपनिषद घटित हो रहा है। और आलोचना साधु-संतों की नहीं हो रही। साधु-संतों के नाम से जो हजार तरह के ढोंग-धतूरे चल रहे हैं, उनकी आलोचना हो रही है। और उनकी आलोचना होनी चाहिए। गलत की तो आलोचना होनी चाहिए।
और इतनी घबड़ाहट क्या है? अगर मैं सत्य की आलोचना कर रहा हूं, तो इतने साधु-संत हैं, वे लोगों को समझाएं कि मैं सत्य की आलोचना कर रहा हूं और मेरी आलोचना गलत है। लेकिन मेरी आलोचना का एक भी उत्तर नहीं मिलता, सिर्फ गालियां देते हैं साधु-संत। उत्तर देने चाहिए। और मैं जब भी किसी चीज की आलोचना करता हूं तो अकारण नहीं करता। फिर मैं इसकी कोई चिंता नहीं करता कि वह शास्त्र में है, सिद्धांत में है। अगर गलत है तो गलत है।
ऋग्वेद में यह वचन है: सत्योनत तभीता भूमिः। पृथ्वी सत्य से ठहरी हुई है।
अब इसकी कैसे आलोचना न की जाए? पृथ्वी ठहरी हुई ही नहीं है। पृथ्वी घूम रही है। अब ऋग्वेद कहे चाहे कोई कहे, मैं क्या कर सकता हूं? इसमें मेरा क्या कसूर? पृथ्वी घूम रही है। पृथ्वी दोहरे घुमाव में है: अपनी कील पर घूम रही है–एक घुमाव; और फिर दूसरा घुमाव, पूरा परिभ्रमण कर रही है सूर्य का। और एक तीसरा भी घुमाव अभी-अभी वैज्ञानिक खोज पा रहे हैं, क्योंकि सूर्य भी पृथ्वी के साथ किसी महासूर्य का परिभ्रमण कर रहा है।
तो तिहरा घुमाव हो गया। अपनी कील पर घूम रही है, फिर सूरज का चक्कर लगा रही है, फिर सूरज के साथ किसी महासूर्य का चक्कर लगा रही है। और कौन जाने वह महासूर्य भी किसी और महासूर्य का चक्कर लगा रहा हो! यहां चक्कर में चक्कर हैं, घनचक्कर! अब ऋग्वेद का वचन बिलकुल गलत है। पृथ्वी ठहरी हुई ही नहीं है। और सत्य पर ठहरी हुई है, वे कह रहे हैं।
सत्य पर पृथ्वी नहीं ठहरती। वस्तुएं सत्य पर नहीं ठहरतीं। चैतन्य सत्य पर ठहरता है। वस्तुएं तथ्य पर ठहरती हैं, सत्य पर नहीं। विज्ञान तथ्य की खोज करता है, धर्म सत्य की खोज करता है। लेकिन जवाब नहीं हैं!
अब गरीबदास झोलीवाले इसका जवाब दें। निकालें झोली में से कुछ जवाब! टटोलें झोली में, शायद कहीं जवाब हो।
और किन साधु-संतों की मैं आलोचना कर रहा हूं? तुम्हारे पुराणों को जरा पढ़ो और तुम्हारे साधु-संतों का आचरण जरा देखो। तुम तो दुर्वासा को भी ऋषि कहते हो! अगर दुर्वासा ऋषि है तो फिर इस दुनिया में किसी को भी ऋषि भूल कर नहीं होना चाहिए। जरा-जरा सी बात पर जो अभिशाप दे दे! ऋषि तो वह जिसका जीवन ही वरदान हो; जिसके पास भी बैठ जाओ तो वरदानों की वर्षा हो जाए। लेकिन यह दुर्वासा को भी ऋषि कहते हो–जो महाक्रोधी, अत्यंत दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति, जो छोटी-मोटी बात के लिए अगले जन्मों तक को बिगाड़ दे! और इनको तुम ऋषि कहोगे?
विनोबा भावे एक ऋषि की चर्चा करते हैं। उस ऋषि का नाम है: गाड़ीवाले रैक्व। गरीबदास झोलीवाले जैसे कोई सज्जन रहे–गाड़ीवाले रैक्व। वे गाड़ी में ही चलते थे। गाड़ी में ही उनका अड्डा था। और विनोबा ने उनकी बड़ी प्रशंसा की है। लेकिन आधी कहानी कही है। इसको मैं बेईमानी कहता हूं।
देश का सम्राट अपने स्वर्ण-रथों में हीरे-जवाहरात भर कर गाड़ीवाले रैक्व के पास आया। हीरे-जवाहरात उनके चरणों में उसने ढेर लगा दिए और चरणों में झुक कर कहा कि मुझे ब्रह्मज्ञान दें! तो रैक्व ने कहा, अरे शूद्र! तू सोचता है कि धन से, हीरे-जवाहरातों से ज्ञान पाया जा सकता है!
बस विनोबा इतनी ही कहानी कहते हैं। यह कहानी पूरी नहीं है, यह कहानी अधूरी है, छांट कर निकाली गई है। पूरी कहानी मैं तुम्हें कहता हूं, तब तुम समझोगे कि क्या राज था गाड़ीवाले रैक्व का। क्योंकि इतनी कहानी तो बड़ी ऊंची लगती है, क्योंकि बात गहरी लगती है कि गाड़ीवाले रैक्व ने कहा कि तू शूद्र है। हालांकि सम्राट शूद्र नहीं था, मगर शूद्र उसे कहा, क्योंकि तेरी आस्था धन में है। तू सोचता है हीरे-जवाहरात से ज्ञान पाया जा सकता है, सत्य पाया जा सकता है। कोई भी इतनी कहानी पढ़ेगा तो लगेगा कि रैक्व ने बात तो पते की कही। कोई धन से सत्य तो नहीं खरीदा जा सकता। सत्य कोई वस्तु तो नहीं है कि खरीदी जा सके।
लेकिन पूरी कहानी यों है कि गाड़ीवाले रैक्व…। उन जमानों में बाजारों में गुलाम बिकते थे और अधिकतर सुंदर स्त्रियां बिकती थीं। जिनको तुम स्वर्णऱ्युग कहते हो, सतयुग कहते हो, बड़े गजब के स्वर्णऱ्युग थे, बड़े सतयुग थे! स्त्रियां बाजारों में वस्तुओं की तरह बिकती थीं। और एक बहुत सुंदर स्त्री बाजार में बिकने आई थी, तो गाड़ीवाले रैक्व भी उसको खरीदने गए थे। ऋषि-मुनि भी स्त्रियां खरीद कर रखते थे!
तुम जान कर यह चकित होओगे कि अब हम जो शब्द का उपयोग करते हैं, वह उचित नहीं है। हम शब्द का उपयोग करते हैं: वर-वधू। वधू का जो वैदिक अर्थ है, वह खरीदी हुई औरत, पत्नी नहीं। तो ऋषियों की पत्नियां होती थीं और अनेक वधुएं होती थीं। वधुएं यानी खरीदी गईं जो, उप-पत्नियां। तो हर ऋषि पत्नी भी रखता था और खरीदी हुई वधुएं भी रखता था। ये गजब के ऋषि थे! मगर कोई हैरानी की बात नहीं, जब अवतारी पुरुष कृष्ण सोलह हजार स्त्रियां रख सकते हैं, और बिना खरीदे, दूसरों की छीन कर ला सकते हैं, चुरा कर ला सकते हैं, झपट कर ला सकते हैं, जबरदस्ती ला सकते हैं, तो ये बेचारे कम से कम खरीद कर लाते थे!
मगर आदमी बिकें, स्त्रियां बिकें–यह बात अशोभन।
और ऋषि खरीद कर लाएं!
ये ऋषि गए थे खरीदने और वह सम्राट भी गया था खरीदने, क्योंकि उस सुंदर स्त्री पर सबकी नजर थी। भाव बढ़ते गए। ऋषि के पास भी धन की कमी न थी। लेकिन सम्राट से कैसे जीतता? अंततः सम्राट बाजी मार ले गया, स्त्री को खरीद कर चला गया। रैक्व के अहंकार को चोट लगी।
यही सम्राट वर्षों बाद सत्य को सीखने के लिए रैक्व के चरणों में आया हीरे-जवाहरात लेकर। तो रैक्व ने कहा, अरे शूद्र! ले जा अपना धन! धन से कोई सत्य नहीं खरीदा जाता।
तब उस सम्राट के वजीरों ने कहा कि आपको याद है कि आपने उस स्त्री को खरीद लिया था जिस पर रैक्व की नजर थी? वह यह कह रहा है कि उस स्त्री को ला, अरे शूद्र! धन से सत्य नहीं खरीदा जाता।
तो सम्राट उस स्त्री को लेकर पहुंचा और तब रैक्व ने सम्राट को धर्म की शिक्षा दी।
यह कहानी पूरी है। धन से नहीं खरीदा जाता, लेकिन स्त्री ले आओ तो खरीदा जा सकता है! अब ये गजब के ऋषि-मुनि! और यह कोई एक ऋषि की बात नहीं है, तुम अपने सारे ऋषि-मुनियों को जरा गौर से देखो, तो तुम बहुत चकित होओगे। इनके जीवन में तुम कुछ ऐसा खास न देखोगे जिसको मूल्यवान कहा जा सके।
तुम्हारे ऋषि-मुनि तो दूर, तुम्हारे देवी-देवता भी सब लंपट! स्वर्ग से उतर आते हैं, दूसरों की स्त्रियों को भ्रष्ट करते हैं। और देवी-देवता हैं! और तुमको शर्म भी नहीं आती इनको देवी-देवता कहने में! और ये तुम्हारे पुराण इनकी कहानियों से भरे हुए हैं।
अब तुम मुझसे कह रहे हो कि “आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं।’
मैं साधु और संत की ठीक-ठीक व्याख्या निर्धारित करना चाहता हूं। इसलिए जो गलत हैं उनकी आलोचना करूंगा, ताकि सत्य की ठीक-ठीक व्याख्या हो सके।
और तुम यह भी कहते हो कि “जिससे सामान्य व्यक्ति में हमारे प्रति श्रद्धा खंडित होती है।’
जो श्रद्धा खंडित हो जाए वह श्रद्धा ही नहीं। जिनकी मुझमें श्रद्धा है उनकी तुम खंडित करके तो दिखाओ! मैं तुम्हें निमंत्रण देता हूं, गरीबदास झोलीवाले, यहीं रहो! जिनकी मुझमें श्रद्धा है, किसी की खंडित करके दिखाओ। उसकी श्रद्धा खंडित करने में तुम्हारी झोली भी चली जाएगी, तुम्हारा आचरण भी चला जाएगा, तुम्हारी साधुता भी खो जाएगी।
श्रद्धा खंडित होती ही नहीं, उसी का नाम श्रद्धा है। जो खंडित हो जाए वह झूठी श्रद्धा है। अगर श्रद्धा भी खंडित हो जाए तो इस जगत में फिर अखंड क्या बचेगा? श्रद्धा कभी खंडित नहीं होती। मगर हां, झूठी श्रद्धा तो खंडित होगी। इसीलिए तुम्हें डर पैदा होता है।
और तुम दूसरों को सामान्य व्यक्ति कह रहे हो, अपने को आचरणशील साधु-संत! तुम असामान्य और दूसरे सामान्य। दूसरे तुच्छ, तुम पवित्र! यह भाव ही अधार्मिक है। यह धारणा ही हीन है। सच्ची साधुता सबके प्रति सम्मान से भरी होती है। सच्ची साधुता में कोई सामान्य नहीं होता।
मेरे लिए तो सभी के भीतर परमात्मा विराजमान है। परमात्मा सामान्य कैसे हो सकता है? सभी के भीतर भगवत्ता है। चाहे तुम्हें पता हो या न हो, मगर मुझे तो पता है। तुम्हें न भी पता हो तो कोई हर्ज नहीं। इससे क्या फर्क पड़ता है? मुझे पता है कि तुम्हारे भीतर भगवान उतना ही विराजमान है जितना मेरे भीतर विराजमान है। इसलिए मैं तुमसे कोई ऊंचा नहीं, तुम मुझसे कुछ नीचे नहीं। मैं कुछ विशिष्ट नहीं, तुम कुछ सामान्य नहीं।
यह कोटियों में बांटना अहंकार की भाषा है। और अहंकार से साधुता का क्या संबंध हो सकता है? निरहंकारिता साधुता का नाम है। और गरीबदास कहते हैं कि “संतों में श्रद्धा ही जीवन का आधार है।’
यह किसने कहा? अपने में श्रद्धा जीवन का आधार है, संतों में श्रद्धा नहीं। संत कौन है? इन्होंने कोई ठेका लिया है? फिर जो एक के लिए संत है, दूसरे के लिए संत नहीं है। दिगंबर जैन के लिए दिगंबर मुनि ही केवल संत है। औरों की तो बात छोड़ दो, श्वेतांबर जो मुनि है, जो सफेद वस्त्र पहने होता है, वह भी संत नहीं। क्योंकि जब तक नग्न न हो, तब तक कैसे संत?
अब किसी जैन से पूछो कि झोलीवाला कोई संत हो सकता है? कभी नहीं हो सकता। अभी झोली भी रखे हुए है, तो अभी संत कैसा? संत को तो सबका त्याग करना होता है। झोली का तो मतलब ही है–इरादे कुछ खराब हैं, नीयत अच्छी नहीं है। किसी की जेब काटोगे, किसी के जूते झोली में रख लोगे, कुछ न कुछ करोगे। झोली किसलिए रखे हो? कोई यूं ही तो झोली टांगे नहीं फिरता। कुछ मतलब होता है, झोली भरना है। कोई जैन तुम्हें संत नहीं मानेगा।
जैनों के संत दूसरों को संत मालूम नहीं होते। किसी मुसलमान से पूछो, किसी ईसाई से पूछो कि नग्न हो जाने से संतत्व का क्या संबंध है? वह कहेगा, कोढ़ियों की सेवा करो, तब संत होते हो। और जैन मुनि कोढ़ी की सेवा करे, कभी नहीं! उसने कोई पाप थोड़े ही किए पिछले जन्म में जो कोढ़ी की सेवा करे! अरे कोढ़ी की सेवा वे करें जिन्होंने पिछले जन्म में पाप किए हों। जिन्होंने बहुत किए, वे कोढ़ी हुए; जिन्होंने कुछ कम किए, वे कोढ़ी की सेवा कर रहे हैं। सीधा गणित है। जैन मुनि क्यों किसी की सेवा करे? सेवा लेता है जैन मुनि, करता नहीं।
जैन श्रावक जब मुनि के दर्शन को जाते हैं, तो उनसे पूछो, कहां जा रहे हो? वे कहते हैं कि संत की सेवा को जा रहे हैं। संत की सेवा करनी होती है, संत सेवा नहीं करता। मगर ईसाई की धारणा और है। वह कहता है, संत सेवा करता है, तो ही संत है।
संत कौन है? और तुम कहते हो, संतों में श्रद्धा ही जीवन का आधार है। किसकी परिभाषा को मानें? रामकृष्ण परमहंस हिंदुओं के लिए संत हैं, पर जैनियों से पूछो। फौरन कहेंगे, यह मछलीखाऊ संत कैसे हो सकता है? मछली तो खाते रहे वे। बंगाली और मछली-भात न खाए, यह असंभव है। यह तो परमहंस की कृपा है कि मछलियों को पचा गए, वे भी परमहंस हो गईं।
लेकिन कोई जैन यह मानने को राजी नहीं होगा। जैन संत तो आलू भी नहीं खा सकता। अब आलू बेचारा बिलकुल गरीबदास! न कभी कोई पाप किया आलुओं ने, न किसी को कभी सताया। मगर आलू भी नहीं खा सकता, क्योंकि आलू जमीन में नीचे दबा हुआ पलता है अंधेरे में, अंधेरे की वजह से तमस पैदा हो जाता है। तामसी भोजन। मछली तो बात ही दूर की हो गई। टमाटर नहीं खाता, क्योंकि टमाटर देखने में मांस जैसा मालूम पड़ता है। सिर्फ देखने में। नहीं तो टमाटर बिलकुल भोले-भाले लोग! और हमेशा पद्मासन में बैठे रहते हैं, हमेशा ध्यान-मग्न। और देखने में कैसे प्यारे लगते हैं–बिलकुल साधु-संत! मगर जैन मुनि नहीं खाएगा।
कौन पर श्रद्धा करनी?
नहीं, मैं कहता हूं, किसी और पर श्रद्धा नहीं करनी है, स्वयं पर श्रद्धा करनी है। जीवन का आधार है: स्वयं पर श्रद्धा।
और तुम पूछते हो गरीबदास कि “आप लोगों की श्रद्धा डगमगा कर उनके नरक का इंतजाम कर रहे हैं।’
अरे नरक में तुम हो! और कहीं नरक है? अब यहां से और गिरने का कोई उपाय है? अब यहां से और कहीं नहीं गिर सकते। यही है नरक, और कहीं कोई नरक नहीं है। और इस नरक को बनाने में तुम्हारे तथाकथित साधु-संतों का हाथ है।
मैं इस नरक को स्वर्ग बनाने की कोशिश कर रहा हूं। मेरे संन्यासियों को देखो। मेरे संन्यासी नरक भी पहुंच जाएंगे तो नरक को स्वर्ग बना लेंगे। क्या अंतर पड़ता है? वहां भी गीत, वहां भी संगीत, वहां भी नाच, वहां भी उत्सव शुरू हो जाएगा। और मुझे कोई अड़चन नहीं है, शैतान को भी संन्यास दे दूंगा! शैतान को कोई दूसरा आदमी संन्यास दे भी नहीं सकता। शैतान सिवाय मेरे और किसी से संन्यास ले भी नहीं सकता।
और गरीबदास झोलीवाले, तुम अगर स्वर्ग भी चले गए, वहां जो इकट्ठे हो गए हैं तुम जैसे लोग, मैंने तो सुना है कि परमात्मा अब वहां नहीं रहता। ये उदासीन सूरतें, ये मुर्दे चेहरे, ये सड़े-गले लोग, ये उलटे-सीधे काम वहां भी कर रहे होंगे–कोई शीर्षासन कर रहा होगा, कोई खड़ेश्री बाबा खड़े ही होंगे, कोई उपवास करके अपने को मार रहा होगा। पुरानी आदतें छूट तो नहीं जाएंगी। कोई नंग-धड़ंग खड़े होंगे। क्या-क्या सर्कस नहीं हो रहा होगा स्वर्ग में! मैंने तो सुना है कि परमात्मा ने बहुत पहले स्वर्ग छोड़ दिया। वह वहां नहीं रहता अब। उसने जगह बदल ली है।
तो कोई हर्जा नहीं, मुझे कोई चिंता नहीं। मैं नरक जाऊं, मेरे संन्यासी नरक जाएं, कोई चिंता नहीं। हमें स्वर्ग की कोई आकांक्षा भी नहीं। हम तो जहां जाएंगे वहां स्वर्ग बना लेंगे।
आज इतना ही।
ओशो; राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07