- अध्यात्म डेस्क, ई-रेडियो इंडिया
Osho Hindi Pravachan: मैं तुमसे कहता हूं: पत्थर हटा दो। धन को भोगने की कला सीखो। जब तुम धन को भोगने की कला सीखोगे तो धन को पैदा करने की कला भी सीखनी पड़ेगी।
और न ही मैं कामिनी के विरोध में हूं। क्योंकि जो व्यक्ति पुरुष है और स्त्रियों के विरोध में है, उसकी जिंदगी में से सारा रस, सारा सौंदर्य, सारा प्रेम सूख जाएगा। सूख ही जाएगा। जो स्त्री पुरुषों के विरोध में है, उसके जीवन में कैसे काव्य के फूल लगेंगे? असंभव। जहां प्रेम सूख गया वहां आदमियत मर जाती है। फिर यह देश क्या है? मुर्दों का एक ढेर हो गया।
प्रेम के प्रति हमारे मन में घृणा है, क्योंकि प्रेम को हमने बंधन कहा। मैं तुमसे फिर कहना चाहता हूं: प्रेम बंधन नहीं है। मोह बंधन है। अपनी भाषा बदलो। पूरी वर्णमाला नई करनी है, तब कहीं इस देश में सूर्योदय हो सकता है। धन नहीं, लोभ। और प्रेम नहीं, मोह। हां, मोह गलत है। मगर मोह के लिए तो हम सब राजी हैं और प्रेम के हम विरोध में पड़ गए हैं।
मोह भी इसलिए गलत है कि वह प्रेम को नुकसान पहुंचाता है; जैसे लोभ धन को नुकसान पहुंचाता है। जैसे लोभ के पत्थर धन के झरने को रोक लेते हैं ऐसे ही मोह के पत्थर प्रेम के झरने को रोक लेते हैं। मोह का मतलब है: यह मेरा; यह मेरी पत्नी, यह किसी और के साथ बैठ कर हंसे भी तो मुझे बेचैनी, तो मुझे नजर रखनी है, मुझे चारों पहर ध्यान रखना है।
और पत्नी को भी यही काम है कि पति पर नजर रखे। दफ्तर भी जाता है तो दिन में चार-छह दफे फोन कर लेती है कि कहां हैं, क्या कर रहे हैं। कहीं हंसी-बोल तो नहीं चल रहा है! कहीं किसी स्त्री से मैत्री तो नहीं चल रही है! यह जो मोह है, यह मार डालता है।
प्रेम भी प्रवाह मांगता है। जितना ज्यादा लोगों से तुम प्रेम कर सको उतना ही तुम्हारे जीवन में रसधार होगी। जितने तुम्हारी मैत्री के नए-नए आयाम होंगे, जितने तुम्हारे संबंधों में नई-नई शाखाएं निकलेंगी, नए पत्ते लगेंगे, उतना तुम्हारे जीवन में रस होगा। और इसे तुम अपने अनुभव से भी जानते हो, मगर तुम अनुभव की नहीं मानते, तुम शास्त्रों की मानते हो। तुम अपने अनुभव से जानते हो: जब तुम्हारे जीवन में प्रेम का पदार्पण होता है, एकदम फूल खिल जाते हैं, वसंत आ जाता है।
पतियों को और पत्नियों को साथ-साथ देखो, दोनों उदास चले जा रहे हैं। एक-दूसरे पर पहरा लगाए हुए। दोनों चोर हैं, दोनों पुलिस वाले हैं। पति यहां-वहां नहीं देख सकता।
–ओशो, सांच-सांच सो सांच