Osho Mahaparinirvan Diwas 2021: 19 जनवरी 1990 को चेतना का महासूर्य अस्त हो गया। सद्गुरुओं के सद्गुरु श्रेष्ठतम रहस्यदर्शी, चिंतक, समग्र जीवन मे क्रांति का उद्घोषक और शिव की भांति स्वंय विषपान कर सभी को अमृत बाँटने वाले, परम करुणामय ओशो, इन्द्रियगत संवेदना के पार अस्तित्व में समा गए….
ओशो परम मौन में, परम आनंद में विलीन हो गए …। वह अभी और यही है… वह आने जाने से पार हो गए… वह हम सब मे व्याप्त हो गए…। अब उनको महसूस करने के लिए चेतना को जागृत करना होगा। संवेदनशीलता को सूक्ष्मतम करना होगा। अब वही अनुभव कर सकेंगे जो ध्यान और प्रेम के मार्ग पर चलेंगे।
जो दूसरों की पीड़ा से द्रवीभूत हो सकते है, जो दूसरों की खुशी से आनंद विभोर हो सकते है… जिनके लिए दूसरा इतना अपना हो गया है कि दूसरा होने का भाव ही मिट गया है, जिन्हें सर्व के कल्याण में स्वयं का कल्याण नजर आता है, जो दृश्य में व्याप्त अदृश्य, साकार में व्याप्त निराकार के अदभुत दर्शनों से रोमांचित हो सकते है।
जिनके हॄदय में परम करुणा का दीप प्रज्वलित है। जो विधायक दृष्टि से भरे अहोभाव से गदगद है। जिनकी आंखों में प्रेम सजल है। जो गिरे हुए को उठाने को तत्पर है। जिसके हॄदय में आकाश सी उदारता विराजमान है। जो सृजनशीलता में रसमग्न होना जानते है – ओशो उन सभी के लिए यहीं और अभी है।
अस्तित्व ने ओशो के महाप्रयाण का समय 5:00 निर्धारित किया था। इस समय सुबह का भुला शाम घर आये की भांति सूर्य पश्चिम दिशा में अस्त होता ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो उसने पुणे की मुला मुठा नदी में स्नान कर उसमें गैरिक रंग फैला दिया हो और अपनी सात्विक कोमल रश्मियों से सद्गुरु ओशो के दिव्य चरणों को स्पर्श कर व नव संन्यास में दीक्षा ग्रहण कर, कर्म विचार और भाव से अनासक्त होकर ध्यान के अचिन्त्य रहस्यलोक में निमग्न हो रहा हो।
उस समय सूर्य अकेला नही था, सारी दुनिया को अपने उद्बोधन से झकजोर कर जगाने वाला चेतना का एक दूसरा महासूर्य ओशो भी उसके साथ थे। ऐसा लगता था कि कम्यून के प्रतीक चिन्ह उड़ते हुए हंसो की भांति दो सहयात्री हंस साथ – साथ अनन्त अज्ञेय की यात्रा पर प्रस्थान कर रहे हो।
संयुक्त राज्य अमेरिका सरकार ने जो थेलियम विष और रेडिएशन दिया था उसी के कारण ओशो के शरीर के विभिन्न ऊतक ( टिश्यू ) क्रमशः नष्ट होने लगे थे। मधुमेह के रोग से पीड़ित होने की वजह से हॄदय के ऊतकों की, उस जहरीले प्रवाह के प्रति प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही कम थी।
इन सब बातों को सावधानी पूर्वक सम्यक विचार करने पर तत्कालीन जानकारी के आधार पर यही सही प्रतीत होता है कि ओशो का देहांत अमरीकी जहर के धीमे दुष्प्रभाव के कारण हुआ।
जब चला गया मेहमान तब संसार द्वारा पहचाना गया है … कब मनुष्य जागेगा ? … कब वह अपने जीवित ओशो जैसे कल्याण मित्र को पहचानेगा ? … कब यह पृथ्वी, जीवित बुद्धों का समादर कर अपने सौभाग्य का उत्सव मना सकेगी ? कब तक जीसस को सूली पर चढ़ाया जाएगा ? कब तक सुकरात और मीरा को जहर पीने को विवश होना होगा? कब तक सरमद की खाल खिंची जाती रहेगी ? कब तक मंसूर की गर्दन काटी जाएगी ? और कब तक ये निरंकुश पागल लोग ओशो को थेलियम विष और, रेडिएशन का शिकार बनाते रहेंगे ?
जब भी युग परिवर्तन की बात कोई करता है, तो पहले समाज उसे स्वीकार नही करता है, और जो आरोप सुकरात पर लगे वही आरोप ओशो पर भी लगे, कि वह युवा पीढ़ी को बिगाड़ रहे है, भ्रष्ट कर रहे है। जिस तरह सुकरात को जहर दिया गया और उन्होंने पिया … उसी तरह ओशो को शारीरिक यातना से गुजरना पड़ा … वे स्थित प्रज्ञ भी थे और जीवन मुक्त भी।
ओशो सदा याद किये जायेंगे – विश्वव्यापी धर्म रहित धर्म के लिए, जिसे वह धार्मिकता कहते है। वह कहते है प्रत्येक धर्म के चारो और एक संगठन खड़ा हो जाता है और धर्म अपना प्रवाह, तरलता, रवानगी और पावनता खोकर एक सड़ा पोखर बन जाता है। लोग कर्मकांडी बनकर शास्त्रों को पूजने लगते है और अपनी महत्वाकांक्षा की खातिर युद्ध, हिंसा, कत्लेआम और जेहाद में सलंग्न हो जाते है।
धर्म एक सम्प्रदाय बनकर राजनीतिको के साथ गठबंधन कर सात सौ क्रुसेड लड़ता है, लाखों स्त्रयों को चुड़ैल बताकर उन्हें जिंदा जला देता है, यूरोप एशिया के देशों को उपनिवेश बनाकर मनुष्यों को गुलाम की तरह बेचता है, जेहाद द्वारा लाखो करोड़ो का कत्ल कर तलवार के बल पर अपना सम्प्रदाय बढ़ाता है।
ओशो ने एक ऐसी धार्मिकता दी, जिसके अंतर्गत प्रत्येक देश, सम्प्रदाय, जाती और वर्ण के लोग अपनी संकीर्णता, संस्कार और परम्परा का विस्मरण कर, प्रेम पूर्ण ढंग से रहते और ध्यान करते हुए, ओशो के सानिध्य में एक कम्यून में इकठ्ठे हुए और उत्सवपूर्ण ढंग से नाचते गाते, जोरबा से बुद्ध बनने की यात्रा की और गतिशील हुए।
ओशो की दूसरी सबसे बड़ी देन है कि उन्होंने मानव मन को केंद्र बिंदु बनाकर एक कुशल मनोचिकित्सक की भांति मन की विकृतियों, उसके द्वारा किये गए दमित मनोवेगों, उसके बहुरूपिये सूक्ष्म अहंकार, लोभ, तृष्णा, घृणा, हिंसा तथा भय आदि सभी वृतियों का न केवल सूक्ष्म विश्लेषण किया, वरन, रेचन की विविध ध्यान विधियों तथा साक्षी साधने की कला सिखाते हुए मन के पार जाने का द्वार खोला।
ओशो ने एक पृथ्वी एक मनुष्य और एक विश्व सरकार का मंत्र दिया, जहाँ सभी मनुष्य प्रेम और भाईचारे से रहते हुए एक सुखी, संपन्न और स्मृद्धिशील विश्व का निर्माण कर सके।
ओशो की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देंन है- नए मनुष्य का निर्माण, जो जोरबा की भांति उत्सव मनाते गीत गाते और नाचते हुए जीवन को क्षण – क्षण रसपूर्ण ढंग से जीते हुए ध्यान और प्रेम के द्वारा बुद्ध बनता है। जिसका क्रोध, घृणा, ईर्ष्या और काम, क्षमा, प्रेम और करुणा में रूपांतरित होता है, और पूरी मनुष्यता और पृथ्वी के प्रति जिसमे दायित्व का बोध होता है। जिससे सारे संशय और संदेह मिट कर उसमें श्रद्धा का जन्म होता है। ओशो का इस पृथ्वी को यह अनुदान सबसे अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि ऐसे ही जागे हुए लोग विनाश की कगार पर खड़ी इस पृथ्वी को नष्ट होने से बचा सकते है।
ठहर जाओ घड़ी भर और तुमको
देख ले आंखे
अभी कुछ देर मेरे कान में
गूंजे तुम्हारा स्वर
बहे प्रति रोम से सरस
उल्हास का निर्झर
दिया दिल का बुझा शायद
किरण-सा खिल उठे जलकर
तड़फती-तड़फड़ाती प्राण
पक्षी की तरुण आंखे !!
ओशो प्रज्ञा की वह निर्मल धारा है, जो कभी सुख नही सकती। इस सदी के सर्वाधिक मौलिक चिंतक है वे, जिन्होंने हमारे लिए एक ऐसे संसार का द्वार खोला, जिसमे प्रेम के द्वारा मनुष्य दुख और तनावों से मुक्त होकर आनंदित हो सके। उन्होंने सदियों के शुद्ध और परिपूर्ण ज्ञान को अभिव्यक्ति दी जिससे मनुष्य नश्वरता से अमरत्व को उपलब्ध हो सके।
भारत ने अब तक जितने विचारक पैदा किये है, उसमे ओशो सबसे मौलिक, सबसे उर्वर, सबसे स्पष्ट और सर्वाधिक सर्जक विचारक है। शब्दों की अभिव्यक्ति की उन्हें जन्मजात भेट मिली है। उनके जैसा कोई व्यक्ति हम सदियों तक न देख पाएंगे। एक विचारक की भांति उन्हें महामानवों में गिना जाएगा।
बीज बो गया कोई
पेड़ तो उगाए हम।
मरु की नीरसता को तोड़कर
नीव भर गया कोई
मंजिले उठाएं हम।
जीवन की ईंट – ईंट जोड़कर ….
ओशो के स्वर्णिम स्वप्न को यथार्थ में रूपांतरित करने की दिशा में विश्व के बुद्धिमान लोगों को संघठित हो कर ध्यान और प्रेम के द्वारा स्वयं के जीवन को रूपांतरित करना होगा। जिससे वह लोगों को सृजनात्मक मूल्यों की और, अधिकाधिक मानवता की और ले जाने में सहायक हो सके और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का स्वप्न पृथ्वी पर साकार हो सके।
Osho Mahaparinirvan Diwas 2021 के अवसर पर यह आलेख किसी ओशो लवर के द्वारा लिखी गई है और इसे ऐसा ही मैंने प्रकाशित कर दिया है।
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