Osho on Nanak Ji: बाबर नानक के समय भारत आया। उसके सिपाहियों ने नानक को भी संदिग्ध समझ कर कैद कर लिया। लेकिन धीरे-धीरे बाबर तक खबर पहुंचने लगी कि यह कैदी कुछ अनूठा है। और इस कैदी के आस-पास एक हवा है, जो साधारण मनुष्यों की नहीं। और एक मस्ती है कि यह कैदी कारागृह में भी गाता रहता है। और यह खबर बाबर को लगी कि यह कुछ ऐसा आदमी है कि इसे कैद किया नहीं जा सकता। इसकी स्वतंत्रता भीतरी है।
तो कहते हैं, उसने संदेश भेजा नानक को कि तुम मुझसे मिलने आओ। नानक ने कहा कि मिलने तो तुम्हें ही आना पड़ेगा । क्योंकि नानक वहां है, जहां से अब मिलने जाने का कोई सवाल नहीं।
बाबर खुद मिलने कारागृह में आया। नानक से बहुत प्रभावित हुआ। नानक को साथ ले गया अपने महल में। और उसने बहुमूल्य से बहुमूल्य शराब नानक को पीने के लिए निमंत्रित किया। नानक हंसे; और उन्होंने एक गीत गाया। जिस गीत का अर्थ है कि मैं परमात्मा की शराब पी चुका। अब इस शराब से मुझे नशा न चढ़ेगा । आखिरी नशा चढ़ गया है। अच्छा हो बाबर कि तुम ही मेरी शराब पीयो, बजाय अपनी शराब पिलाने के।
ये गीत शराबी के गीत हैं। इसलिए नानक कहे चले जाते हैं। या तो एक छोटे बच्चे की तरह, या एक शराबी की तरह। वे गुनगान करते हैं। उसमें बहुत हिसाब नहीं है। और न ही इन वचनों को, साजा-संवारा गया है। ये अनगढ़ पत्थरों की तरह हैं।
एक कवि लिखता है, तो सुधारता है। हेर-फेर करता है। जमाता है। व्याकरण की चिंता करता है। लय की, पद की, छंद की फिक्र करता है। मात्राओं का हिसाब रखता है। बहुत बदलाहट करता है। रवींद्रनाथ की हैसियत का महाकवि भी! अगर रवींद्रनाथ की डायरियां देखें, तो कटी-पिटी है। एक-एक लाइन को काट-काट कर फिर से लिखा है, बदला है, फिर जमाया है।
ये वचन न तो न बदले गए हैं और न जमाए हैं। ये तो वैसी ही हैं, जैसे नानक ने कहे थे। ये तो बोल गए हैं। इनमें कुछ हिसाब नहीं है; न भाषा का, न मात्रा का, न पद का, न छंद का। अगर इनमें कोई छंद है, तो भीतरी आत्मा का है । और अगर इनमें कोई व्याकरण है, तो वह मनुष्य की नहीं, परमात्मा की है। और इनमें अगर कोई लय मालूम पड़ती है, तो वह लय भीतर के नशे की है। वह काव्य की नही है। इसलिए तो नानक कहे जाते हैं। जब भी उनसे कोई पूछता, तो वे गाकर ही जवाब देते थे। उनसे कोई सवाल पूछता और वे कहते, सुनिये। और मर्दाना अपना साज छेड़ देता और वे गीत गाना शुरु कर देते।
इस बात को याद रखना। अगर इस बात को याद न रखा तो ऐसा लगेगा, क्या नानक पुनरुक्ति किये चले जाते हैं? कि उसके गुण अपार, कि उसका मूल्य अपार। फिर वे कहे ही चले जाते हैं।
ना! ये मस्ती में गुनगुनाए गए शब्द हैं। ये किसी दूसरे से कहे गये नहीं हैं। ये अपनी ही मस्ती में, अपने ही भीतर गुनगुनाए गए हैं। दूसरे ने सुन लिया है, यह दूसरी बात है। यह खयाल में रहेगा तो बहुत अर्थ प्रकट होने शुरू होंगे।
🪷 ओशो 🪷
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