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प्रेम के जगत में एकमात्र ही भटकाव है, वह है धन: भगवान रजनीश

प्रेम के जगत में एकमात्र ही भटकाव है वह है धन है: भगवान रजनीश

प्रेम के जगत में एकमात्र ही भटकाव है वह है धन है: भगवान रजनीश

प्रेम के जगत में एकमात्र ही भटकाव है वह है धन है। यह बड़ी मनोवैज्ञानिक और बड़ी गहरी बात है। फरीद कह रहा है कि प्रेम से चूकने का एक ही उपाय है और वह है कि कंचन में उत्सुक हो जाए। तू धन में उत्सुक हो जाए। अब यह नाजुक है। यह ख्याल बड़ा गहरा है। और मनोविज्ञान अब इसकी खोज कर रहा है धीरे-धीरे। और मनोविज्ञान कहता है कि जो आदमी धन में उत्सुक है वह आदमी प्रेम में उत्सुक नहीं होता। ये दोनों बात एक साथ होती ही नहीं..ऐसे ही जैसे जो आदमी पूरब चल रहा है, वह पश्चिम की तरफ नहीं चल रहा है।

क्यों धन और प्रेम में इतना विरोध है?

प्रेम बड़े से बड़ा धन है। जिसने प्रेम को पा लिया, उसे धन मिल गया। वह अपनी गरीबी में भी हीरे-जवाहरातों का मालिक है। लेकिन जिसने प्रेम नहीं पाया, उसके लिए तो फिर एक ही रास्ता है कि वह धन इकट्ठा करे, ताकि थोड़ा सा आश्वासन तो मिले कि मेरे पास भी कुछ है। धन प्रेम का सब्स्टीट्यूट है, परिपूरक है। इसलिए कृपण आदमी प्रेमी नहीं होता। कंजूस प्रेमी नहीं होता..हो नहीं सकता। नहीं तो वह कंजूस नहीं हो सकता। ये दोनों बातें एक साथ नहीं घट सकतीं; ये विपरीत हैं। जितना तुम धन को इकट्ठा करते हो उतना ही तुम्हारा प्रेम पर भरोसा कम है। तुम कहते होः कल क्या होगा? बुढ़ापे में क्या होगा? आर्थिक हालत बिगड़ जाएगी तो परिस्थिति कैसे सम्हालूंगा?

प्रेमी कहता हैः क्या करेंगे; जो प्रेम आज करता है वह कल भी करेगा। जिसने आज प्रेम दिया है और भरपूर किया है वह कल भी फिकर लेगा।

अगर तुम किसी को पाते हो जो तुम्हें प्रेम कर रहा है तो बुढ़ापे की चिंता न होगी। लेकिन अगर तुम्हारा कोई नहीं प्रेमी, तुमने किसी को इतना प्रेम नहीं दिया, न कभी किसी से इतना प्रेम लिया, तो तिजोड़ी ही सहारा है बुढ़ापे में। और फिर तुम्हें डर है, प्रेमी तो धोखा दे जाए; तिजोड़ी कभी धोखा नहीं देती। प्रेमी का क्या भरोसा, आज साथ है, कल अलग हो जाए! धन ज्यादा सुरक्षित मालूम पड़ता है। प्रेमी माने न माने, धन तो सदा तुम्हारी मान कर चलेगा। धन तो कोई अड़चन खड़ी नहीं करता, मालकियत पूरी स्वीकार करता है। फिर धन का तुम जैसा उपयोग करना चाहो, जब करना चाहो, वैसा कर सकते हो। प्रेमी का तुम उपयोग नहीं कर सकते। प्रेमी प्रेम में कुछ करे, ठीक; प्रेमी के साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, छोटा बच्चा जब पैदा होता है तो अगर मां उसको प्रेम करती हो तो वह ज्यादा दूध नहीं पीता। आपको भी अनुभव होगा, अगर मां बच्चे को ठीक प्रेम करती हो तो मां सदा परेशान रहती है उसको जितना दूध पीना चाहिए, वह नहीं पी रहा है; जितना खाना खाना चाहिए, वह नहीं खा रहा है। वह उसके पीछे लगी है चैबीस घंटे कि और खा। क्यों? क्योंकि बच्चा जानता है, जिस स्तन से दूध अभी बहा प्रेम से भरा हुआ, जब भूख लगेगी फिर बहेगा। भरोसा है। लेकिन अगर मां बच्चे को प्रेम न करती हो; नर्स हो, मां न हो तो बच्चा छोड़ता ही नहीं स्तन। क्योंकि बच्चे को डर हैः तीन घंटे बाद जब भूख लगेगी, नर्स उपलब्ध रहेगी नहीं रहेगी, इसका कुछ पक्का नहीं है।

भविष्य अंधकारपूर्ण है। इसलिए तुम देखोगे, जिन बच्चों को प्रेम नहीं मिला उनके पेट बड़े पाओगे; जिन बच्चों को प्रेम मिला उनके पेट बड़े नहीं पाओगे। पेट बड़ा, मां की तरफ से प्रेम नहीं मिला, इसका सबूत है। बड़ा पेट यह कह रहा है कि थोड़ा भोजन हम इकट्ठा कर लें वक्त-बेवक्त के लिए, क्योंकि कुछ भरोसा तो है नहीं। नर्स क्या भरोसा? मां का, अगर वह सिर्फ शरीर की ही मां हो और हृदय से प्रेम न बहता हो, और भरोसा न हो तो बच्चा बेचारा अपनी सुरक्षा कर रहा है। वह यह कह रहा है, थोड़ा अतिरिक्त हमेशा रखना चाहिएः कभी रात भूख लगेगी, कोई उठाने वाला न होगा, तो पेट भरा होना चाहिए।

तुम ध्यान रखना, गरीब लोग ज्यादा खाते हैं, क्योंकि कल का भरोसा नहीं। अमीर की भूख ही मिट जाती है, क्योंकि जब चाहिए तब मिल जाएगा। अमीरों के पेट बड़े होने चाहिए वस्तुतः। लेकिन तुम पाओगे, अकालग्रस्त क्षेत्रों में लोगों के पेट बहुत बड़े हो जाते है; सारा शरीर सूख जाता है, पेट बड़ा हो जाता है। क्योंकि जब मिल जाता है तब वे पूरा खा लेते हैं, जरूरत से ज्यादा खा लेते हैं; क्योंकि दो-चार-पांच दिन चलना पड़ेगा, क्या पता बिना खाने के चलना पड़ेगा!

मां के स्तन पर बेटे को दो रास्ते खुलते हैंः एक प्रेम का रास्ता है। एक पेट का रास्ता है। पेट यानी धन, पेट यानी तिजोड़ी। एक प्रेम का रास्ता है। प्रेम यानी प्राण, प्रेम यानी आत्मा। तिजोड़ी यानी शरीर; प्रेम यानी परमात्मा। तो जिनके जीवन में प्रेम की कमी है, वे धन पर भरोसा रखेंगे।

इसलिए फरीद कहता हैः कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।

और ध्यान रखना, प्रेम के रास्ते में धन के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। अगर धन की तरफ झुका, लुभाया तो, आरे से चीर दिया जाएगा। इसका कुछ मतलब ऐसा नहीं है कि कोई आरे से किसी को चीर देगा। लेकिन जब प्रेम कट जाता है तो प्राण ऐसे ही कट जाते हैं जैसे आरे से चीर दिए गए हों।

सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ।

‘शेख, इस दुनिया में कोई हमेशा रहने वाला नहीं हैं। जिस पीढ़े पर हम बैठे हैं, उस पर कितने ही बैठ चुके हैं।’

वैज्ञानिक कहते हैं कि जिस जगह तुम बैठे हो वहां कम से कम दस आदमियों की लाशें दफनाई जा चुकी हैं। इंच-इंच जमीन पर करोड़ों-करोड़ों लोग दफनाए जा चुके हैं। तुम भी थोड़े दिन बाद जमीन के भीतर होओगे, कोई और तुम्हारे ऊपर बैठा होगा। पर्त-दर-पर्त मुर्दे दबते जाते हैं।

शेख, इस दुनिया में कोई भी हमेशा रहने वाला नहीं हैं।

बुद्ध का बड़ा प्रसिद्ध वचन हैः सब्बे संघार अनिच्चा..इस संसार में सभी कुछ बहावमान है, बहता जा रहा है, परिवर्तनशील है। इसमें कहीं भी कोई किनारा नहीं है। लहरों को किनारे मत समझ लेना और उनको पकड़ कर मत रुक जाना। और जिस जगह तुम बैठे हो, बैठे-बैठे अकड़ मत जाना, उसको सिंहासन मत समझ लेना। सब सिंहासनों के नीचे कब्रें दबी हैं।

जैसे कुलंग पक्षी कार्तिक में आते हैं, चैत में दावानल और सावन में बिजलियां आती हैं और जाड़े में जैसे कामिनी अपने प्रीतम के गले में बांहें डाल देती हैं..ऐसे ही सब क्षण भर को आता है और चला जाता है। इस सत्य पर तू अपने मन में विचार कर कि यहां सब क्षणभंगुर है।’ शाश्वत के सपने मत सजा। शाश्वत के सपने सजाएगा तो भटकेगा। क्षणभंगुर के सत्य को देख। इस पर तू अपने मन में विचार कर।

‘मनुष्य के गढ़े जाने में महीनों लगते हैं, टूट जाने में क्षण भी नहीं लगता।’

फरीद कहते हैंः जमीन ने आसमान से पूछा, कितने खेने वाले चले गए। श्मशान और कब्रों में उनकी रूहें झिड़कियां झेल रही हैं!

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

चलती हुई हालत है; चल ही रहे हैं मौत की तरफ। चले चलनहार..चल ही पड़े हैं। जन्म के साथ ही आदमी मरने की तरफ चल पड़ा है।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

ठीक से सोच ले। यहां घर बनाने की कोई जगह नहीं है। यहां रात रुक जा, ठीक; मंजिल यहां नहीं है। पड़ाव हो, बस; सुबह उठे और डेरा उठा लेना है।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

गंढ़ेदिआ छिअ माह तुरंदिआ हिकु खिनो।।

छह महीने लग जाते हैं बच्चे के गढ़ने में, क्षण भर में मिट जाता है। मरने में क्षण भर नहीं लगता।

जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किनी गए।

जमीन आसमान से पूछती है, फरीद कितने खेने वाले, नावें चलाने वाले मांझी आए और चले गए।

जारण गोरा नालि उलामे जीअ सहे।

और वे सब कहां हैं जो बड़ा मस्तक उठा कर मांझी बने थेः जो नाव पर अकड़ कर बैठे थे; जिन्होंने सिंहासनों को शोभायमान किया था..वे अब सब कहां हैं? वे सब बड़े खेने वाले लोग कहां खो गए?

श्मशान और कब्रों में उनकी रूहें झिड़कियां झेल रही हैं।

अब वे अपने लिए ही पछता रहे हैं कि उन्होंने जीवन व्यर्थ खोया। अब वे रो रहे हैं कि उन्होंने कुछ न किया, जो करने योग्य था! और वह सब कमाया जो मिट्टी था! हीरे गंवाए, कंकड़ इकट्ठे किए! कूड़ा-करकट सम्हाला, संपदा खोई। अब वे झिड़कियां झेल रहें हैं; खुद पछता रहे हैं।

जीवन, जिसे तुम जीवन कहते हो, जीवन नहीं हैं; वह तो केवल मरने की प्रतीक्षा है; मृत्यु के द्वार पर लगा क्यू हैः अब मेरे, तब मेरे! एक और जीवन है, एक महाजीवन है। धर्म उसी का द्वार है। लेकिन जो इस जीवन को मृत्यु जान लेगा वही उस महाजीवन की खोज में निकलता है। इस पर ठीक से सोचना।

फरीद ठीक कहता हैः खूब मन ठीक से विचार कर ले। यही जीवन हो सकता है, यह क्षणभंगुर, जो अभी है और अभी गया; हवा के झोंके में कंपते हुए पत्ते की भांति, जो प्रतिपल मरने के लिए कंप रहा है? सुबह के उगते हुए सूरज में जैसे ओस समा जाती हैं, विलीन हो जाती है, खो जाती है, ऐसा मौत किसी भी दिन तुझे तिरोहित कर देगी। यह तेरा होना कोई होना है? इस पर ठीक से विचार कर ले। जिन्होंने भी ठीक से विचार किया वे ही नये अस्तित्व की खोज में लग गए।

बुद्ध ने देखा मरे हुए आदमी को, पूछा अपने सारथी कोः क्या हो गया है इसे?

सारथी ने कहाः सभी को हो जाता है..अंत में सभी मर जाते हैं।

बुद्ध ने कहाः रथ वापस लौटा ले।

सारथी ने कहाः लेकिन हम युवक महोत्सव में भाग लेने जा रहे थे। वे आपकी प्रतीक्षा करते होंगे, क्योंकि राजकुमार गौतम ही युवक महोत्सव का उदघाटन करने को था।

गौतम बुद्ध ने कहाः अब मैं युवक न रहा। जब मौत आती है, और मौत आ रही है..कैसा यौवन? कैसा उत्सव? वापस लौटा ले। मैं मर गया। इस आदमी को मरा हुआ देख कर मैं जिसे अब तक जीवन समझता था, वह मिट गया; अब मुझे किसी और जीवन की तलाश में जाना है।

उस जीवन की खोज ही धर्म है।

ओशो
अकथ कहानी प्रेम की
प्रवचन नं – 1

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