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यूक्रेन को उसके की शांति समझौता में नहीं बुलाया

एडिलेड। सऊदी अरब में अमेरिकी और रूसी अधिकारियों के बीच इस हफ्ते होने वाली महत्वपूर्ण बैठक में यूक्रेन को आमंत्रित नहीं किया गया है जबकि बैठक में यह तय होना है कि इस देश (यूक्रेन) में शांति कैसे लौटेगी।

यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की ने कहा कि रूस के साथ तीन वर्ष से जारी युद्ध को समाप्त करने के लिए उसकी (यूक्रेन की) बिना भागीदारी वाली वार्ता में लिये गये किसी भी निर्णय को ‘कभी स्वीकार नहीं करेगा’।

वार्ता में यूक्रेन के बिना यूक्रेनी लोगों की संप्रभुता को लेकर बातचीत में लिये जाने वाले निर्णय, साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा यूक्रेन की दुर्लभ खनिज संपदा के आधे हिस्से को अमेरिकी समर्थन के लिए कीमत के रूप में दावा करने का स्पष्ट रूप से जबरन वसूली का प्रयास इस बात को बताता है कि वह (ट्रंप) यूक्रेन और यूरोप को किस तरह देखते हैं।

लेकिन यह पहली बार नहीं है जब बड़ी शक्तियों ने वहां रहने वाले लोगों की राय के बिना नई सीमाओं या प्रभाव के क्षेत्रों पर बातचीत करने के लिए सांठगांठ की है। इस तरह की निरंकुश सत्ता की राजनीति से प्रभावितों का शायद ही कभी भला होता है। ये कुछ ऐतिहासिक उदाहरण इसे बयां करते हैं।

अफ्रीका के लिए संघर्ष

वर्ष 1884-1885 की सर्दियों में जर्मन नेता ओटो वॉन बिस्मार्क ने यूरोप के शक्तिशाली देशों को बर्लिन में एक सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया था ताकि पूरे अफ्रीकी महाद्वीप को उनके बीच औपचारिक रूप से विभाजित किया जा सके।

इस सम्मेलन में एक भी अफ्रीकी मौजूद नहीं था, जिसे ‘अफ्रीका के लिए संघर्ष’ के रूप में जाना जाता है।

अन्य चीजों के अलावा इस सम्मेलन की वजह से बेल्जियम नियंत्रित कांगो मुक्त राज्य बना, जो औपनिवेशिक अत्याचारों का स्थल था और इसमें लाखों लोग मारे गए।

जर्मनी ने जर्मन दक्षिण पश्चिम अफ्रीका (वर्तमान नामीबिया) कॉलोनी स्थापित की, जहां 20वीं सदी का पहला नरसंहार हुआ।

त्रिपक्षीय सम्मेलन

केवल अफ्रीका ही ऐसा नहीं था, जिसे इस तरह से विभाजित किया गया था। वर्ष 1899 में जर्मनी और अमेरिका ने एक सम्मेलन आयोजित किया और समोआ को अपने द्वीपों को दोनों देशों के बीच बांटने के लिए एक समझौता करने को लेकर मजबूर किया।

यह तब हुआ, जब समोआ ने स्व-शासन या हवाई के साथ प्रशांत महासागरीय राज्यों के परिसंघ की इच्छा जताई थी।

समोआ को लेकर “मुआवजे” के रूप में, ब्रिटेन को टोंगा पर निर्विरोध वरीयता प्राप्त हुई।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मन समोआ न्यूजीलैंड के शासन के अधीन आ गया और 1962 तक उसका एक क्षेत्र बना रहा।

वहीं अमेरिकी समोआ (कई अन्य प्रशांत द्वीपों के अलावा) आज भी अमेरिकी क्षेत्र बना हुआ है।

साइक्स-पिकॉट समझौता

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश और फ्रांसीसी प्रतिनिधि एक बैठक में इस बात पर सहमत हुए कि वे ओटोमन साम्राज्य को उसके खत्म होने के बाद कैसे विभाजित करेंगे।

एक दुश्मन के रूप में ओटोमन को वार्ता में आमंत्रित नहीं किया गया था। इंग्लैंड के मार्क साइक्स और फ्रांस के फ्रांकोइस जॉर्जेस-पिकॉट ने मिलकर अपने राष्ट्रों के हितों के अनुरूप पश्चिमी एशिया की सीमाओं को फिर से परिभाषित किया था।

साइक्स-पिकॉट समझौता हुसैन-मैकमोहन पत्राचार के नाम से जाने जाने वाली पत्र श्रृंखला में जताई गई प्रतिबद्धताओं के विपरीत था। इन पत्रों में, ब्रिटेन ने तुर्की शासन से अरब स्वतंत्रता का समर्थन करने का वादा किया था।

साइक्स-पिकॉट समझौता ब्रिटेन द्वारा बाल्फोर घोषणा में किए गए उस वादे के भी विपरीत था, जिसमें ब्रिटेन उन यहूदियों का समर्थन करने का वादा करता था, जो ओटोमन फलस्तीन में एक नया यहूदी देश बनाना चाहते थे।

यह समझौता मध्य पूर्व में दशकों तक चले संघर्ष और औपनिवेशिक कुशासन का मूल कारण बन गया, जिसके परिणाम आज भी महसूस किये जा रहे हैं।

म्यूनिख समझौता

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन और फ्रांस के प्रधानमंत्री एडौर्ड डालडियर ने सितंबर 1938 में इटली के फासीवादी तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी और जर्मनी के एडोल्फ हिटलर से मुलाकात की तथा म्यूनिख समझौते के नाम से जाने जाने वाले समझौते पर हस्ताक्षर किए।

हिटलर के नाजियों द्वारा विद्रोह भड़काने और चेकोस्लोवाकिया के जर्मन-भाषी क्षेत्रों पर हमला करने के बाद नेताओं ने पूरे यूरोप में युद्ध के प्रसार को रोकने की कोशिश की।

चेकोस्लोवाकिया को अतीत में सुडेटेनलैंड के नाम से जाना जाता है।

उन्होंने जर्मन अल्पसंख्यकों की रक्षा के बहाने ऐसा किया। बैठक में किसी भी चेकोस्लोवाकियाई को आमंत्रित नहीं किया गया था।

इस बैठक को अब भी कई लोग ‘म्यूनिख विश्वासघात’ के रूप में देखते हैं, जो युद्ध को रोकने की झूठी उम्मीद में एक जुझारू शक्ति के असफल तुष्टिकरण का एक उत्कृष्ट उदाहरण था।

एवियन सम्मेलन

वर्ष 1938 में 32 देशों ने जर्मनी में नाजियों के उत्पीड़न से भागने को मजबूर यहूदी शरणार्थियों की स्थिति से निपटने के तरीके पर निर्णय लेने के लिए फ्रांस के एवियन-लेस-बेन्स में बैठक की थी।
ब्रिटेन और अमेरिका ने सम्मेलन शुरू होने से पहले इस बात पर सहमति जताई थी कि वे अमेरिका या ब्रिटिश फलस्तीन में यहूदियों के कोटे को बढ़ाने के लिए एक-दूसरे पर दबाव नहीं डालेंगे।

गोल्डा मेयर (भविष्य की इजराइली नेता) एक पर्यवेक्षक के रूप में सम्मेलन में शामिल हुईं थीं लेकिन न तो उन्हें और न ही यहूदी लोगों के किसी अन्य प्रतिनिधि को वार्ता में भाग लेने की अनुमति दी गई।

डोमिनिकन गणराज्य को छोड़कर यहूदी शरणार्थियों को स्वीकार करने के बारे में उपस्थित लोग किसी समझौते पर पहुंचने में असफल रहे। वहीं जर्मनी में अधिकांश यहूदी नरसंहार की भेंट चढ़ गये।

द मोलोतोव-रिब्बेनट्रॉप समझौता

जब हिटलर ने पूर्वी यूरोप पर आक्रमण की योजना बनाई, तो यह स्पष्ट हो गया कि उसकी सबसे बड़ी बाधा सोवियत संघ था। उसका मकसद यूएसएसआर के साथ एक कपटपूर्ण गैर-आक्रामकता संधि पर हस्ताक्षर करना था।

व्याचेस्लाव मोलोतोव और जोआचिम वॉन रिबेंट्रोप (सोवियत और जर्मन विदेश मंत्री) के नाम पर यह संधि सुनिश्चित करती थी कि जब हिटलर पोलैंड पर आक्रमण करेगा तो सोवियत संघ कोई कार्रवाई नहीं करेगा।

इस संधि ने यूरोप को नाजी और सोवियत क्षेत्रों में विभाजित कर दिया। इससे सोवियत संघ को रोमानिया और बाल्टिक राज्यों में विस्तार करने, फिनलैंड पर हमला करने और पोलैंड क्षेत्र का अपना हिस्सा वापस पाने का मौका मिला।

याल्टा सम्मेलन

नाजी जर्मनी की हार के साथ ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल, सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन और अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने युद्ध के बाद के यूरोप के भाग्य का फैसला करने के लिए 1945 में मुलाकात की।

इस बैठक को याल्टा सम्मेलन के रूप में जाना जाता है।

कई महीनों बाद पॉट्सडैम सम्मेलन के साथ-साथ याल्टा ने राजनीतिक ताना-बाना तैयार किया जो यूरोप को शीत युद्ध विभाजन की ओर ले गया।

याल्टा में ‘तीन बड़े देशों’ ने जर्मनी के विभाजन पर फैसला किया जबकि स्टालिन को पूर्वी यूरोप के क्षेत्र की भी पेशकश की गयी।

इस संधि ने पूर्वी यूरोप में राजनीतिक रूप से नियंत्रित बफर राज्यों की एक श्रृंखला का रूप ले लिया, कुछ लोगों का मानना ​​है कि पुतिन आज पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी यूरोप में इसी मॉडल का अनुकरण करना चाहते हैं।

editor

पत्रकारिता में बेदाग 11 वर्षों का सफर करने वाले युवा पत्रकार त्रिनाथ मिश्र ई-रेडियो इंडिया के एडिटर हैं। उन्होंने समाज व शासन-प्रशासन के बीच मधुर संबंध स्थापित करने व मजबूती के साथ आवाज बुलंद करने के लिये ई-रेडियो इंडिया का गठन किया है।

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