- अजय सिंह, ब्यूरो चीफ सीतापुर
Inspiration: कहावतें, कहानियों में अच्छी लगती हैं और जिंदगी कहानियों से नहीं किरदारों से चलती है। और हां सबसे जरूरी बात ये कि किरदार सुनाये नहीं निभाए जाते हैं। किसका किरदार कैसा है यह हम और आप तय ना करें तो ज्यादा बेहतर है या यूं कहें कि यह उसी को तय करने दें जो उस किरदार को जी रहा है। क्योंकि हम और आप उतना ही देख पाते हैं जितना सामने वाला प्रदर्शित करता है।
बचपन छप्पर की छत से सरकारी विद्यालय की तंग गलियों तक, नंगे पैर तपती धूप में भागते – दौड़ते बीत गया। शुरू से ही विद्यार्थी जीवन को अपना कर्म मानकर पढ़ाई की। गरीबी से जंग और मां का दिया हौंसला ही था जिसने खुली आंखों से सपने देखने को मजबूर कर दिया। वरना हालातों के विपरीत चलने की जुर्रत एक निर्धन परिवार का बालक कदापि न करता।
कहते हैं कि इस दुनिया में अगर कोई सबसे बड़ा शिक्षक है तो वह है- गरीबी। और इसी गुरुकुल में पले-बढ़े हैं आज की कहानी के नायक अश्मित भारती। होता कुछ यूं है कि जब जिम्मेदारी कद से बड़ी होती है तो निखरने की अपेक्षा बिखरने की संभावनाएं प्रबल होती हैं। और इन्हीं संभावनाओं को नेस्तनाबूद कर खुद को तराशने वाले शख्स हैं अश्मित भारती।
उम्र के एक पड़ाव को पार करते हुए जब 12वीं कक्षा पास की तो कमाने का बोझ सर पर आ गया। हिम्मत जुटाई और अपनी प्राथमिकता सरकारी नौकरी को दी। घर पर बैठकर ही तैयारी करने लगे क्योंकि कोचिंग के लिए चाहिए होते हैं – पैसे! और ये संघर्ष पैसों के लिए ही तो था। एक समय जब लगा कि यह लड़ाई इतनी आसान नहीं है तो एक प्राइवेट नौकरी घर के पास ही पकड़ ली। दिन-भर बाहर काम करते और आपने पढ़ाई करते। अंदर एक विश्वास था कि एक दिन सरकारी खजाने में शामिल जरूर होना है। इसी दौर में अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर ली। कुछ समय में जब रेलवे ग्रुप-डी के फॉर्म आए तो अपना सारा ध्यान उसी पर केंद्रित कर दिया। क्योंकि यह नौकरी पढ़ने के हिसाब से सबसे आसान नजर आ गई थी। परीक्षा हुई, नंबर आ गया और जल्द ही जॉइनिंग भी हो गई। लेकिन ये दिल है कि मानता ही नहीं।
कुछ ऐसा ही श्रीमान जी के साथ हुआ। क्योंकि नौकरी तो वह कर रहे थे मगर खुद के लिए नहीं परिवार के लिए। फिर उन्होंने फैसला किया कि अब इससे कुछ बेहतर करना है। उनका यह सपना भी तीन साल नौकरी करने के बाद पूरा हो गया। और उन्होंने अपनी दूसरी नौकरी लेखपाल/पटवारी के रूप में जॉइन कर ली।
वाकई जितना आसान इस संघर्ष को लिखना रहा है शायद उतना ये था नहीं। इस कहानी का दूसरा पहलू यह भी है कि, महोदय जी का स्वभाव इतना सहज है कि वह अपने छोटों के साथ घुल-मिल के रहते हैं। आसान भाषा में कहें तो उनका व्यवहार अपने से निचले स्तर के कर्मचारियों के साथ लगभग एक मित्र और बड़े भाई की तरह ही होता है ना कि एक अधिकारी की तरह। मुझे एक वाक्या याद है जब मैं कुछ समय पहले छुट्टी लेकर घर जा रहा था और श्रीमान जी भी उसी मार्ग पर सरकारी काम से कहीं बाहर जा रहे थे।
जब मुझे उनके बारे में अवगत हुआ तो मैंने उन्हें फोन लगाया। उन्होंने बताया कि मैं घर से निकल गया हूं ( चूँकि उनका आवास शहर में था)। मैंने कहा तो आप जाइए मुझे समय लगेगा पहुंचने में (एक निश्चित जगह) श्रीमान जी ने कहा आराम से आजा, बिल्कुल चिंता मत कर साथ ही चलेंगे। लगभग पैंतालीस मिनट बाद मैं वहां पहुंचा। मह…
कुछ समय बाद महोदय के दिल में फिर व्याकुलता के भाव उठे। हिलोरें मारती धड़कनों को चार चांद तब लग गए जब निकट भविष्य में यूपी दरोगा की भर्ती निकल आई। अब श्रीमान जी को लगा कि ये सही अवसर है खुद की काबिलियत को साबित करने का। सोते-जागते सितारों वाली वर्दी के ख्वाब अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे। समय ने एक बार फिर करवट ली। कड़ी लगन और मेहनत का फल एक बार उन्हें फिर प्राप्त हुआ। नतीजा, सपनों की वर्दी हाथों में थी।
बस यही कहूंगा कि जिंदगी में व्यक्ति का कद और पद एक सिस्टम (विभाग) तक ही सीमित होता है। सिस्टम से बाहर निकलोगे तो `कौन कितना सहज है?’, ‘कौन कितना मिलनसार है?’ और ‘कौन कितना दूसरों के लिए सोचता है?’
इन्हीं बातों से आपका व्यक्तित्व आंका जायेगा। असल में जब हम किसी दूसरे के व्यक्तित्व का अंकन करते हैं तो सबसे पहले हम खुद के व्यक्तित्व को माप लेते हैं और शायद यही कारण है कि हम सही तथ्यों से भटक जाते हैं।
हर व्यक्ति अलग-अलग तरह के हालातों से लड़कर खड़ा हुआ है। चलते-चलते यही कहूँगा कि किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस हालात में जी रहे हैं आपको खुद ही अपने हालात बदलने होंगे। जीत की ज़िद पालिए, हार न मानने की आदत डालिए बस चलते रहिये! चलते रहिये! चलते रहिये!
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