- अजीत द्विवेदी
देश की सबसे पुरानी पार्टी को इस समय जैसा अध्यक्ष चाहिए था वैसा अध्यक्ष मिलने जा रहा है। कांग्रेस को शशि थरूर जैसे अध्यक्ष की जरूरत नहीं है और न दिग्विजय सिंह और अशोक गहलोत जैसे अध्यक्ष की जरूरत है। उसे मल्लिकार्जुन खडग़े की जरूरत है। हालांकि कांग्रेस के काफी लोग इससे अलग सोच रखते हैं। उनका कहना है कि खडग़े 80 साल के हो गए हैं। उन लोगों ने मजाक भी बनाया है कि 75 साल की सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी 80 साल के खडग़े हैं! उनकी सेहत भी बहुत अच्छी नहीं है। वे दक्षिण भारत से आते हैं। उनके साथ भाषा की भी कुछ न कुछ समस्या है।
वे मोदी से मुकाबला नहीं कर पाएंगे। वे बहुत डायनेमिक नहीं हैं और बहुत मेहनत नहीं कर पाएंगे। वे कांग्रेस में नई जान फूंकने लायक नहीं हैं आदि आदि। लेकिन ऐसी तमाम बातें कहने वाले लोग या तो केंद्रीय बिंदु को पूरी तरह से मिस कर रहे हैं या कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर खडग़े की मौजूदगी को बहुत सीमित या पूर्वाग्रह वाले नजरिए से देख रहे हैं।
खडग़े को बतौर अध्यक्ष सिर्फ इस नजरिए से देखना चाहिए कि कांग्रेस को अभी कैसे अध्यक्ष की जरूरत है? कांग्रेस को एक ऐसे अध्यक्ष की जरूरत है, जो कांग्रेस की राजनीति के कोर बिंदुओं को समझता हो, जो कांग्रेस संगठन के बारे में जानता हो, जिस पर आलाकमान को सौ फीसदी भरोसा हो, जो हर समय कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध हो और जो पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की सारी बातों को धीरज के साथ सुने और आलाकमान के हिसाब से काम करे।
कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष चाहिए, जिससे आंतरिक लोकतंत्र का भ्रम रचा जा सके और लोगों को उस पर यकीन भी दिलाया जा सके। भारतीय जनता पार्टी ने जेपी नड्डा के जरिए ऐसा ही भ्रम रचा है और देश के लोग उस पर यकीन भी करते हैं। असल में फिल्मों की तरह राजनीति भी लोगों को यकीन दिलाने की कला का नाम है। फिल्मों की तरह राजनीति के दांव-पेंच देखते हुए भी लोग स्वेच्छा से सामान्य बुद्धि को किनारे रख देते हैं।
बहरहाल, खडग़े की सबसे बड़ी ताकत उनका अनुभव है। उन्होंने गुलबर्ग शहर के कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था और यह उस साल की बात है, जब सोनिया गांधी को भारत आए हुए महज एक साल हुए थे। खडग़े ने 1969 में राजनीतिक सफर शुरू किया। इसके तीन साल बाद 1972 में वे पहली बार विधायक बने और 2019 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें तो बीच में कोई भी चुनाव नहीं हारे। यानी 47 साल तक अपराजेय बने रहे!
नौ बार विधायक और दो बार लोकसभा के लिए चुने गए। वे शहर कांग्रेस से शुरू करके प्रदेश अध्यक्ष बने और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने जा रहे हैं। वे विधायक रहे, राज्य सरकार में मंत्री रहे, प्रदेश अध्यक्ष रहे, लोकसभा सदस्य रहे, केंद्र सरकार में मंत्री रहे, लोकसभा में पार्टी के नेता रहे और फिर राज्यसभा में भी पार्टी के नेता बने। सो, कांग्रेस के बुनियादी मूल्यों को, पार्टी की राजनीति को और संसदीय राजनीति की जरूरतों को उनसे बेहतर भला कौन जानता होगा!
खडग़े दलित समाज से आते हैं और बौद्ध धर्म को मानते हैं। वे बुद्ध के अनुयायी हैं इसलिए संयम, संतोष, अपरिग्रह और मध्य मार्ग पर चलना उनके सहज स्वभाव का हिस्सा है। कोई बताए कि कांग्रेस का कौन ऐसा नेता है, जो स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री पद का दावेदार हो और जिससे एक बार नहीं, दो बार नहीं, बल्कि तीन तीन बार यह मौका छीन लिया गया हो और, जिसके मुंह से उफ नहीं निकला हो? खडग़े वह नेता हैं, जिन्हें 1999, 2004 और 2013 में तीन बार मुख्यमंत्री बनने से रोका गया।
इसके बावजूद वे उसी निष्ठा और समर्पण के साथ कांग्रेस का काम करते रहे। उनकी शिकायतें रही होंगी और हो सकता है कि अपनी पार्टी हाईकमान के सामने उन्होंने शिकायतें रखी भी हों लेकिन उसे उन्होंने कभी भी सार्वजनिक नहीं होने दिया। राजस्थान में अभी जो हुआ या राज्यसभा की एक सीट की खींचतान में जैसे मध्य प्रदेश की सरकार गई उससे कांग्रेस अध्यक्ष के दो पूर्व दावेदारों और खडग़े का फर्क दिखता है।
खडग़े की क्षमता पर वे ही लोग सवाल उठा रहे हैं, जिन्होंने उनको काम करते नहीं देखा है या जो दक्षिण भारतीय, दलित और 80 वर्ष की उम्र के पूर्वाग्रहों के आधार पर उनको देख रहे हैं। मल्लिकार्जुन खडग़े उस समय लोकसभा में कांग्रेस के नेता बने थे, जब कांग्रेस ऐतिहासिक हार के बाद 44 सांसदों की पार्टी रह गई थी। इन 44 सांसदों में से भी आधे हमेशा सदन से नदारद रहते थे। गिने-चुने सांसदों को साथ लेकर लोकसभा में तीन सौ सांसदों के प्रचंड बहुमत वाली भाजपा के साथ जिन लोगों ने भी खडग़े को जूझते देखा है, वे उनकी क्षमताओं से परिचित हैं।
संसद की बहसों में विचारों की जैसी स्पष्टता खडग़े में देखने को मिली वह बेमिसाल है। चाहे संसदीय कार्यवाही हो या लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के नाते कामकाज हो, खडग़े ने हर जगह छाप छोड़ी। जहां जरूरत पड़ी वहां उन्होंने सभी विपक्षी पार्टियों के साथ तालमेल बनाया और नीतिगत व वैचारिक स्तर पर भाजपा व केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया।
यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि कांग्रेस अध्यक्ष को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नहीं लडऩा है या उनको चुनौती नहीं देनी है। उनको 2024 के चुनाव का नेतृत्व नहीं करना है। सबको पता है कि यह काम राहुल गांधी करेंगे। लेकिन उससे पहले और उस समय भी कांग्रेस को एक ऐसे नेता की जरूरत है, जो पार्टी हाईकमान के लिए आंख और कान का काम कर सके।
कांग्रेस को हर समय खुला रहने वाले एक मुंह की जरूरत नहीं है। इसलिए कांग्रेस को शशि थरूर या दिग्विजय सिंह की नहीं, बल्कि खडग़े की जरूरत है। वे धीरज के साथ पार्टी मुख्यालय में बैठें और नेताओं की सारी बातें सुन कर उन्हें यकीन दिलाएं कि उनकी बात सही जगह पहुंचेगी और उनकी शिकायत या सुझाव पर कार्रवाई होगी, तो यह अपने आप में बहुत बड़ी बात होगी। अगर कांग्रेस अध्यक्ष देश के हर राज्य के नेताओं व कार्यकर्ताओं के लिए सहज उपलब्ध हों तो इतने से भी बहुत कुछ बदल जाएगा। अभी अध्यक्ष तो छोडि़ए पार्टी के महासचिव भी नेताओं व कार्यकर्ताओं से नहीं मिलते हैं।
कांग्रेस को दिए गए अपने प्रजेंटेशन में प्रशांत किशोर ने बताया था कि कांग्रेस के संगठन महासचिव देश के 90 फीसदी जिला अध्यक्षों से नहीं मिले हैं। कांग्रेस की इस संस्कृति को बदलना एक बड़ी जरूरत थी, जो खडग़े से पूरी होगी। दक्षिण भारत में खास कर कर्नाटक में उनकी वजह से राजनीतिक लाभ होगा और दलित समुदाय में एक सकारात्मक मैसेज जाएगा, वह अपनी जगह है।
यकीन मानिए कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर मल्लिकार्जुन खडग़े वैसे ही सफल होंगे, जैसे प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह सफल हुए थे। खडग़े बिल्कुल उसी तरह की पसंद हैं, जैसे मनमोहन सिंह थे। कांग्रेस हाईकमान के प्रति सौ फीसदी समर्पित! वे पार्टी की जरूरतों को और आलाकमान की इच्छा को समझते हुए काम करेंगे। पार्टी का वास्तविक सत्ता केंद्र सोनिया और राहुल गांधी होंगे लेकिन खडग़े उनके साथ संपूर्ण सामंजस्य बैठा कर काम करेंगे। इस समय कांग्रेस की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि पार्टी के अंदर कोई बड़ा टकराव न हो और पार्टी एकजुट दिखे। खडग़े से यह मैसेज बनेगा। वे स्ट्रीट फाइटर हैं इसलिए जहां भाजपा को सड़क पर टक्कर देने की जरूरत होगी वहां भी वे पीछे नहीं रहेंगे। वे संगठन के आदमी हैं, संघर्ष के आदमी हैं!