एक झेन फकीर ने अपने शिष्य से पूछा कि शिष्य का लक्षण क्या है? उस शिष्य ने बड़े सहज भाव से कहा, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। जो जागे हुए हैं, उनकी शरण जाना शिष्य का अर्थ है। जागे हुओं की जो जमात है, सत्संग है, उसमें डूब जाना, शरणागत हो जाना शिष्य का लक्षण है। जागे हुए जिस सूत्र के कारण जागे हैं, जागे हुओं की जमात जिस सूत्र के कारण फूलों की एक माला बन गई है, उस धर्म, उस परम नियम, उस परम सूत्र पर अपने को समर्पित कर देना शिष्य का लक्षण है।
गुरु ने कहा, ठीक।
दूसरे दिन सुबह-सुबह जब फिर गुरु और शिष्य का मिलना हुआ, तो गुरु ने पूछा, शिष्य का क्या लक्षण है? शिष्य तत्क्षण बोला, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। गुरु ने कहा, भाग यहां से मूरख कहीं का! यह कोई उत्तर है!
शिष्य ने कहा, यह तो बड़ी अजीब बात हुई। कल आपने कहा था–यही उत्तर है। और आज कहते हैं–यह कोई उत्तर है!
गुरु ने कहा, कल कल था, आज आज है। कल यह सही था। यह अपने कारण सही नहीं था; तेरी सहज स्फुरणा के कारण सही था।
तुम समझना थोड़ा फर्क। इस उत्तर में क्या रखा है! यह तो बुद्धू सदियों से दोहरा रहे हैं। हजारों-लाखों बुद्धू दोहराते रहे हैं–बुद्धं शरणं गच्छामि। दोहराते रहे बुद्धं शरणं गच्छामि, और बुद्धू थे सो बुद्धू ही रहे। कुछ फर्क न पड़ा। जाते रहे बुद्ध की शरण, मगर बुद्धूपन जरा भी न हटा। इसमें क्या रखा है! यह तो तोते भी दोहराते हैं। बौद्ध देशों में, जैसे तुम्हारे देश में तोते दोहराते हैं राम-राम, सीता-राम, ऐसा बौद्ध देशों में तोते दोहराते हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि।
इसमें क्या रखा है! मगर नहीं, तेरी सहज स्फुरणा; तूने तत्क्षण जवाब दिया था; सोचा नहीं था, विचारा नहीं था। यह तेरी बुद्धि से नहीं आया था; यह तेरे हृदय से उमगा था। कल यह सही था। आज यह झूठा है। क्योंकि आज तू सिर्फ कल को दोहरा रहा है। आज यह बुद्धि से आ रहा है। आज यह कल की कार्बन कापी है। आज यह उधार है, बासा है। कल यह ताजा फूल था। आज पंखुड़ियां झड़ गईं। धूल में पड़ी हैं। धूल-धूसरित हो गई हैं। यह आज सही नहीं है।
उत्तर सीखे नहीं जा सकते–यह परीक्षा ऐसी है। सीखे हुए उत्तर किसी काम के नहीं हैं–यह परीक्षा ऐसी है। यह परीक्षा तुम्हारी सहज स्फुरणा की है, तुम्हारी सहजता की है। इसलिए कोई भी कुंजियां नहीं हैं, जैसे परीक्षा की कुंजियां होती हैं। और जो कल सही था, आज सही हो या न हो!
इसलिए बहुत बार तुम मुझसे प्रश्न पूछते हो कि आपने पांच साल पहले यह कहा था, आज आपने यह कहा। कौन सी बात सही?
पांच साल पहले की बात आज ला रहे हो! अरे, कल भी आज नहीं रहा। पांच साल गंगा का कितना पानी बह गया! मुझे खुद ही पता नहीं कि पांच साल पहले मैंने क्या कहा था। कौन हिसाब रखता है? ये कोई हिसाब-किताब रखने की बातें हैं! यहां कोई खाते-बही हैं? और पांच साल पहले किससे कहा था!
निश्चित ही वह तुम नहीं हो। जिससे कहा था, उसके लिए रहा होगा उत्तर। और उसके लिए भी रहा होगा उत्तर उसी क्षण। वह भी अगर आज यहां मौजूद हो और कहे कि पांच साल पहले आपने मुझसे ऐसा कहा था, अब आप ऐसा कहते हैं! तो मैं उससे कहूंगा, पांच साल में तुम भी तो बह गए। गंगा ही थोड़े बही; तुम भी बह गए। हेराक्लतु ने कहा है, एक ही नदी में दुबारा नहीं उतरा जा सकता।
और मैं तुमसे कहता हूं, एक ही आदमी से दुबारा मिला नहीं जा सकता। जैसे नदी बह रही है और बदल रही है, ऐसे आदमी बह रहे और बदल रहे हैं। उस दिन तुम्हारे संदर्भ में उत्तर रहा होगा। उस संदर्भ में सही था। आज के संदर्भ में उसका कोई अर्थ नहीं है। न तुम तुम हो, न मैं मैं हूं।
-ओशो