एक फकीर हुआ, एक व्यक्ति निरंतर उसके पास आता था। एक दिन आकर उस व्यक्ति ने उस फकीर को पूछा: आपका जीवन इतना पवित्र है, आपके जीवन में इतनी सात्विकता है, आपके जीवन में इतनी शांति है लेकिन मेरे मन में यह क्यों नहीं?
प्रश्न: कहीं यह सब ऊपर ही ऊपर तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि भीतर मन में विकार भी चलते हों, भीतर मन में वासनाएं भी चलती हों, भीतर पाप भी चलता हो, अपवित्रता भी चलती हो, भीतर बुराइयां भी हों, भीतर अंधकार भी हो, अशांति भी हो, चिंता भी हो और ऊपर से आपने सब व्यवस्था कर रखी हो ऐसा तो नहीं है?
उस साधु ने कहा: इसका उत्तर मैं दूं इसके पहले एक बात तुम्हें बता दूं। कहीं उत्तर देने में मैं भूल गया और वह बात बताई न गई, तो कठिनाई होगी। कल भी मैं भूल गया था, परसों भी मैं भूल गया था, बात बहुत जरूरी है। और अगर दो-चार दिन भूल गया तो बताने का कोई काम भी न रह जाएगा।
उस आदमी ने पूछा: कौन सी बात?
उस साधु ने कहा: कल तुम्हारा हाथ देखते समय मेरी दृष्टि तुम्हारी रेखा पर गई तो मैंने देखा तुम्हारी उम्र समाप्त हो गई है। सात दिन बाद, ठीक रविवार के दिन सूरज डूबने के पहले ही तुम मर जाओगे। यह तुम्हें बता दूं कहीं फिर न भूल जाऊं, कल भी मैं भूल गया था। अब तुम्हें क्या पूछना है, पूछो?
अगर तुममें से कोई उस व्यक्ति की जगह होता तो क्या होता। वह व्यक्ति घबड़ा गया। वह युवा था अभी। मुश्किल से उसकी तीस वर्ष उम्र थी। उसके हाथ-पैर कांपने लगे वह खड़ा हो गया।
उस फकीर ने कहा: बैठो! और तुमने जो पूछा था उसका उत्तर लेते जाओ।
लेकिन उसने कहा: मैं फिर आऊंगा। अभी तो मैं जाता हूं र मुझे अभी कुछ भी नहीं पूछना।
फकीर ने कहा: कम से कम अपना प्रश्न तो दोहरा दो?
उस युवक ने कहा: मैं प्रश्न भी भूल गया मुझे घर जाने दें।
मृत्यु सात दिन बाद हो तो कोई प्रश्न याद रह सकते हैं? वह उतरा सीढ़ियों से। जब आया था, तो पैरों में बल था। शान से बढ़ रहा था। अब जब उतरा तो बड़ा हो गया था। हाथ-पैर कांप रहे थे, सीढ़ियों का सहारा लेकर नीचे उतर रहा था। घर नहीं पहुंच पाया, रास्ते में बीच में गिर पड़ा और बेहोश हो गया। खाट से लग गया। सात दिन न नींद थी न शांति थी। मित्र-प्रियजन इकट्ठे होने लगे। मरने की खबर गांव भर में फैल गई।
उसने अपने मित्रों को अपने घर के लोगों को कहा: फलां-फलां लोगों को गांव से बुला लाओ। जिनसे मेरी शत्रुता थी उनसे मैं क्षमा मांग लूं और जिनसे मेरे झगड़े थे उनसे क्षमा मांग लूं और जिन पर मैंने कभी क्रोध किया था जिनका कभी अपमान किया था और जिनको कभी गाली दी थी उनसे क्षमा मांग लूं क्योंकि मरने के पहले उचित है कि अपने पीछे कोई शत्रु न छोड़ जाऊं। उसने गांव भर के लोगों से क्षमा मांग ली।
सातवां दिन आ गया। खाना-पीना उसका बंद हो गया। न उसे कुछ ठीक लगता था। वह तो मरने की प्रतीक्षा कर रहा था। सूरज डूबने के कोई घंटे भर पहले वह फकीर उसके घर आया। सारे घर के लोग रोने लगे। सारे प्रियजन इकट्ठे थे, मृत्यु की आखिरी घड़ी थी। वह आदमी सात दिन में सूख कर हड्डी हो गया, उसकी आंखें गडुाएं में धंस गई थीं। वह बिस्तर पर पड़ा था वह हाथ-पैर हिलाने में भी अशक्त हो गया था।
उस फकीर ने जाकर उससे कहा: मित्र आंख खोलो। एक प्रश्न मुझे तुमसे पूछना है। मरने के पहले मुझे इस प्रश्न का उत्तर दे दोगे तो बड़ी कृपा होगी। उसने बहुत मुश्किल से आंख खोली। उस फकीर ने पूछा: मैं तुमसे यह पूछने आया हूं इन सात दिनों में तुम्हारे मन में कोई पाप उठा? कोई बुराई उठी? सात दिनों में तुम्हारे मन के भीतर कोई अपवित्रता आई?
उस आदमी ने कहा: आप कैसा मजाक करते हैं मरते हुए आदमी से? मौत मेरे इतने करीब थी कि मेरे और मौत के बीच में किसी चीज को उठने के लिए जगह भी न थी। न कोई पाप उठा, न कोई बुराई उठी। मुझे खयाल ही नहीं आया। मौत का ही खयाल था और तो सब भूल गया।
उस फकीर ने तुम्हें पता नहीं क्या कहा होगा। उस फकीर ने कहा: तुम उठ जाओ। तुम्हारी मृत्यु अभी आई नहीं। मैंने तो केवल तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। वह जो तुमने मुझसे पूछा था कि भीतर तुम्हारे पाप उठता है या बुराई उठती है विकार उठता है वासनाएं उठती हैं? –उसका उत्तर दिया है।
तुम उठ जाओ तुम्हारी मौत अभी आई नहीं है, अभी तुम्हें और जीना है। लेकिन स्मरण रखो जो व्यक्ति यह जान लेता है कि मुझे मर जाना है उसके जीवन में क्रांतिकारी अंतर हो जाते हैं; उसकी दृष्टि में उसके सोचने में अंतर हो जाते हैं; उसके विचार करने में उसके व्यवहार करने में अंतर हो जाते हैं। जो व्यक्ति इस बात को भूले रहता है कि हम इस जमीन पर मरने के लिए हैं उसके जीवन में पवित्रता फलित नहीं होती उसके जीवन में धर्म नहीं होता।
-ओशो