- चुनाव में परिणाम मन मुताबिक नहीं आने से उठ रहा सवाल
- राजनीतिक दल ईवीएम पर क्यों फोड़ते हैं हार का ठीकरा
- क्या ईवीएम मशीन से हो सकती है छेड़खानी?
देश में समय समय पर होने वाले चुनावों के नतीजे आने के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानि ईवीएम विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की आलोचना का शिकार बनती रही है। हाल ही में सम्पन्न महाराष्ट्र एवं झारखण्ड विधान सभा के चुनाव होने के बाद बेचारी ईवीएम एक बार फिर से आलोचना के चक्रव्यूह में फंसकर मीडिया की सुर्खिया बटोर रही है ।
चुनाव नतीजे आने के बाद जहां भी जिस सियासी पार्टी को सत्ता मिलती है, वह ईवीएम के रोल पर खामोशी धारण कर लेती है यानि ईवीएम से निकले जनादेश को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। ऐसा न होने पर ईवीएम को टारगेट बनाकर सारा ठीकरा उस पर फोड़ा जाता है।
अब अगर महाराष्ट्र और झारखण्ड विधान सभा के चुनाव परिणाम की बात करें तो महाराष्ट्र में भाजपा नीत महायुति गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिला है, जबकि कांग्रेस व शिवसेना (यूबीटी) समेत अन्य दलों पर आधारित महाविकास अघाड़ी का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है । ऐसे में बेचारी ईवीएम सियासी पार्टियों के कोपभाजन का शिकार बन गई है। उधर झारखण्ड में विपक्षी दलों पर आधारित इण्डिया गठबंधन को बहुमत मिला है तो इस जीत पर सब चुप्पी साध गए हैं, जब इस सूबे में सत्ता की उम्मीद जताने वाली भाजपा ने पराजय मिलने पर भी जनादेश को सहर्ष स्वीकार किया है ।
इन दोनों ही राज्यों में एक जैसी ईवीएम का इस्तेमाल हुआ और एक जैसी प्रणाली अपनाई गई तो वोटर की इच्छा के मुताबिक अगर अलग-अलग जनादेश आया तो इस पर बेचारी ईवीएम पर दोष मढने का औचित्य क्या है ?
राजनीतिक दलों द्वारा अपनी लचर कारगुजारी के बाद चुनावों में वोटर द्वारा ठुकराए जाने के बाद अपनी हार का दोष ईवीएम या चुनाव आयोग पर मढना कैसे तर्कसंगत माना जा सकता है। सियासी पार्टियों द्वारा उठाई गई आपत्तियों और शंकाओका निराकरण चुनाव आयोग सार्वजनिक रूप से कई बार कर चुका है ।
हरियाणा विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद भी बेचारी ईवीएम आलोचना का शिकार बनी उस वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने कांग्रेस की आलोचनाओ को सिरे से खारिज करते हुए उन्हें निर्मूल व मनगढ़ंत बताया था।
इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी अपनी गिरी हुई साख बचाने के लिए लगातार ईवीएम पर निशाना साध रही है।
यह कितनी ताज्जुब की बात है कि हिमाचल प्रदेश में इसी ईवीएम से निकले जनादेश के बल पर वहां सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार सत्ता सुख भोग रही है और वहां भी इस बेचारी ईवीएम पर उंगली उठाई जा रही है। पता नहीं कांग्रेस नेता यह क्यों नहीं सोचते कि ऐसे हास्यास्पद बयान आम वोटरों के भी गले नहीं उतरने वाले ।
सवाल उठता है कि यदि ईवीएम पर डाला गया वोट किसी पार्टी विशेष के पक्ष में जाता है तो फिर भाजपा प्रत्याशियों को इतने वोट क्यों नहीं मिले कि वे जीत का स्वाद चखने से वंचित रह गए । ऐसा ही जनादेश उत्तर प्रदेश में देखने को मिला है जहां पर नौ सीटों पर हुए विधानसभा उप चुनाव में सात में भाजपा को जीत मिली, जबकि दो सीटों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी जीते हैं ।
केरल की वायनाड लोकसभा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में प्रियंका गांधी वाड्रा ने 4 लाख से अधिक मतों से धमाकेदार जीत दर्ज करके लोकसभा में प्रवेश किया है। यानि कहा जा सकता है कि सियासी पार्टियां ईवीएम को लेकर अपनी सुविधा के मुताबिक रवैया अख्तियार करती हैं और ‘चित भी मेरी,पट भी मेरी’ की नीति पर चलते हुए अपनी हार के कारणों की विवेचना किए बगैर अपनी हो रही हास्यास्पद स्थिति से बचने का प्रयास करती हैं ।
कांग्रेस समेत विभिन्न सियासी पार्टियों के इस रवैये से समाज के बहुत कम हिस्से में ईवीएम को लेकर विपरीत धारणा बन सकती है। हालांकि देश के जागरूक हो चले वोटरों की बहसंख्या सियासी पार्टियों की ऐसी बातो पर भरोसा करने को कतई तैयार नहीं हैं । विभिन्न राज्यों में ईवीएम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं कोर्ट द्वारा खारिज की जा चुकी हैं । कोर्ट का स्पष्ट मत है कि अब बैलेट पेपर की वापसी नहीं हो सकती है ।
ऐसी स्थिति में राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपनी हार का ठीकरा बेचारी ईवीएम पर फोड़ने के बजाय अपनी हार के कारणों की विवेचना करते हुए रणनीति बनाएं , ताकि अगले चुनाव में उन्हें वोटरों का पूरा सपोर्ट मिल सके।