- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
Coaching Side Effects: कोचिंग के दबाव में युवा, डिप्रेशन के इस कदर शिकार हो रहे हैं कि आत्महत्या की राह पकड़ रहे हैं। डिप्रेशन में युवा यह भी भूलने लगे हैं कि जीवन अनमोल है। किसी प्रतियोगिता में विफल होने पर जीवन से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। दुर्भाग्यजनक तथ्य यह है कि पेरेंट्स की अतिमहत्वाकांक्षा युवाओं को मानसिक तनाव की ओर ले जा रही है।
उद्योग नगरी से शिक्षा नगरी में बदली कोटा में प्रतिमाह हादसों का दौर जारी है। एक मोटे अनुमान के अनुसार हजारों करोड़ से अधिक सालाना कारोबार वाली शिक्षा नगरी कोटा को लगता है नजर लग गई है। देशभर में विख्यात कोटा में उज्ज्वल भविष्य का सपना संजोए आने वाले युवाओं द्वारा खुदकुशी करने का अंतहीन सिलसिला जारी है।
इसी साल के ही आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो एक दर्जन से अधिक युवाओं ने सपनीले भविष्य के स्थान पर मौत को गले लगाने में किसी तरह का संकोच नहीं किया। यह कोई इस साल के ही हालात नहीं हैं अपितु यह पिछले कुछ सालों से लगातार चला आ रहा सिलसिला है। हालांकि कोरोना काल में सबकुछ बंद होने से अवश्य कुछ सुधार दिखाई दिया था पर हालात जस के तस देखने को मिल रहे हैं। यहां तक कि आए दिन इस तरह की खबरें आम होती जा रही है।
आखिर यह स्थिति क्यों होती जा रही है। यह अपने आप में विचारणीय मुद्दा है। आखिर इसके लिए दोषी किसे माना जाए? बच्चे को, अति महत्वाकांक्षी पेरेंट्स को, कोचिंग संस्थानों को, प्रशासन को या फिर हालात को? हालांकि किसी को दोषी ठहराने से समस्या का हल नहीं निकलने वाला है। यह भी सही है कि इन हालात के लिए सरकार सहित सभी गंभीर हैं।
Coaching Side Effects: तात्कालिक समाधान भी खोजे जाते रहे हैं पर परिणाम नहीं आ रहे। इंजीनियर या डॉक्टर बनने का सपना संजोए बच्चों का बीच राह में मौत को गले लगा लेना हृदय विदारक होने के साथ कहीं गहरे तक सोचने को मजबूर कर देता है। आखिर क्या कारण है कि उज्ज्वल भविष्य व गरिमामय प्रोफेशन से जुड़ने की तैयारी की राह पर उतरते युवा इस कदर निराशा के दलदल में फंस जाते हैं कि बिना आगे-पीछे सोचे मौत को गले लगाने में हिचकते नहीं।
कोटा में कोचिंग कर रहे छात्रों में जिस तेजी से आत्महत्याओं का दौर चला है वह गंभीर होने के साथ बच्चों के परिजनों, कोटावासियों या राजस्थान ही नहीं देश के मनोवैज्ञानिकों, राजनेताओं, प्रशासन, शिक्षाविद् को गहरी सोच में डाल दिया है।
Coaching Side Effects: कोरोना में कम हुआ था सिलसिला
कोरोना काल में कोचिंग गतिविधियां बंद होने से आत्महत्याओं का यह सिलसिला कुछ कम अवश्य हुआ पर कोचिंग संस्थानों के दोबारा चालू होते ही आत्महत्याओं का सिलसिला फिर शुरु हो गया है। यह अपने आप में चिंतनीय और समाधान खोजने को मजबूर कर देता है। यह कोई शिक्षा नगरी कोटा का नाम खराब करने का प्रयास नहीं है अपितु शिक्षा नगरी में आए दिन हो रही घटनाओं का विश्लेषण है। यह अपने आप में गंभीर है और इसके लिए केन्द्र व राज्य सरकार दोनों ही गंभीर भी हैं।
यही कोई दो माह पहले कोटा में कोचिंग कर रही छात्रा कृति ने सरकार और अपने माता-पिता को मृत्युपूर्व अपने नोट में जो संदेश दिया है वह बहुत कुछ बयां करता है। अपनी मां को लिखा कि ‘आपने मेरे बचपन और बच्चा होने का फायदा उठाया और मुझे विज्ञान पसंद करने के लिए मजबूर करती रही। इस तरह की मजबूर करने वाली हरकत 11वीं में पढ़ रही मेरी छोटी बहन के साथ मत करना, वो जो करना चाहती है, जो पढ़ना चाहती है वह उसे करने देना।
कुछ इसी तरह से सरकार को लिखा है कि अगर वे चाहते हैं कि ‘कोई बच्चा नहीं मरे तो जितनी जल्दी हो सके इन कोचिंग संस्थानों को बंद करवा दें, यह कोचिंग खोखला बना देती है।‘ कृति के इन संदेशों में कितनी सच्चाई और दर्द छिपा है, यह अपने आप बयां कर रहा है। आखिर बच्चों का बचपन बड़ों की महत्वाकांक्षा के आगे टिक नहीं पा रहा है और गला काट प्रतिस्पर्धा में बच्चों को मानसिक दबाव और कुंठा की राह धकेल रहा है। यह साफगोई है तो सच्चाई भी यही है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि औद्योगिक नगरी से कोटा ने शिक्षा नगरी के रूप में समूचे देश में पहचान बनाई है। पर संस्थान कारोबार में बदल जाते हैं तो उनके परिणाम भी भिन्न हो जाते हैं। आईआईटी और इंजीनियरिंग में प्रवेश दिलाने की कोचिंग के लिए कोटा शहर की पहचान पूरे देश में कोचिंग हब के रूप में है।
पिछले कुछ दशकों में कुकुरमुत्ते की तरह कोटा में कोचिंग संस्थानों ने कारोबार के रूप में पांव पसारे हैं। अकेले कोटा में ही कोचिंग के लिए आने वाले छात्र-छात्राओें की तादाद यही कोई दो से ढाई लाख तक है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में कोचिंग का व्यवसाय कोई 20 हजार करोड़ रुपए से अधिक का माना जा रहा है। इसमें से अकेले कोटा में कोचिंग का कारोबार एक हजार करोड़ रुपए से अधिक है।
Coaching Side Effects: व्यवस्था बन चुकी है कोचिंग
साफ है कोचिंग पूरी तरह से व्यवसाय का रूप ले चुकी है, ऐसे में मानवीय संबंध या गुरु-शिष्य के संबंध कोई मायने नहीं रखते। अपनत्व या आपसी संवेदना तो दूर-दूर की बात है। कोचिंग संस्थान पांच से छह घंटे तक कोचिंग कराते हैं, शेष समय हॉस्टल में अध्ययन में बीतता है।
पहले से ही मानसिक दबाव में रह रहे बच्चे कोचिंग संस्थानों की नियमित परीक्षाओं के माध्यम से रैंकिंग के दबाव में रहते हैं। संवेदनशील बच्चे इस दबाव को सहन ही नहीं कर पाते। कोचिंग संस्थानों के लिए तो यह व्यवसाय बन जाने के कारण उन्हें बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की ना तो जरूरत महसूस होती है और ना ही परवाह। दूसरी तरफ परिजन ऊंचे ख्वाब देखते हुए बच्चों का इन कोचिंग संस्थानों में प्रवेश कराकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं।
कोटा में चल रहे आत्महत्याओं के दौर से केन्द्र व राज्य सरकार दोनों ही चिंतित हैं। सरकार और मनोविज्ञानियों ने अपने स्तर पर प्रयास भी शुरू किए पर वे अभी कारगर नहीं हो पा रहे हैं। कोरोना से पहले केन्द्र सरकार ने आत्महत्या के कारणों का अध्ययन कराने के लिए कमेटी गठित की। तो जिला प्रशासन भी सक्रिय हुआ। बच्चों के मानसिक दबाव को कम करने के लिए कोचिंग विद फन का कंसेप्ट लाया गया। जिला प्रशासन ने कोचिंग संस्थानों के लिए गाइड लाइन जारी करने के साथ ही होप हेल्पलाइन शुरु की।
जिला प्रशासन की दखल के बाद फन डे, योग, मेडिटेशन के माध्यम से पढ़ाई के तनाव को कम करने के प्रयास शुरू किये गए। परिजनों ने भी अपने बच्चों से निरंतर संपर्क बनाना शुरू किया। काउंसलिंग व स्क्रीनिंग जैसी व्यवस्थाएं भी नियमित करने का प्रयास आरंभ हुआ। कोटा में कोचिंग छात्रों की आत्महत्या के कारण कुछ भी रहे हों पर यह बेहद चिंतनीय है। हमें कोटा की पहचान को बनाए रखना है तो यहां कोचिंग लेने आने वाले बच्चों के आत्मबल को भी मजबूत करना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)