डी एम मिश्र की ग़ज़लों में जन-संघर्ष एवं प्रतिरोध का स्वर

‘लेकिन सवाल टेढ़ा है’ जनधर्मी तेवर के वरिष्ठ एवं चर्चित गज़लकार डॉ डी एम मिश्र का बहुपठित गजल संग्रह है। अनुभव की भट्टी में पका 118 गजलों का यह संकलन अपनी विशिष्टता एवं सैद्धांतिकी से आबद्ध है। अनेक प्रकार की विविधताओं के बावजूद संग्रह की गजलों का हर शेर संवेदना से लबरेज़ एवं सम्प्रेषणीयता में सहज है।

संग्रह की गजलें प्रमाणित करती हैं कि शायर का जुड़ाव गांव से अधिक है। शहर की चकाचौंध भरी जीवन यात्रा के बीच इनकी रचनात्मकता में ग्रामीण चेतना की गहराई है। शायद यही कारण है कि गांव की पगडंडी, मुखिया का दालान, खेत – खलिहान, आदि का इनमें सहज प्रवेश हो सका है। इनकी गजलों में गांव, गांव की प्रकृति, गांव का संघर्ष, गांव की जीवन-शैली, गांव का सौंदर्य एवं गांव का संत्रास लगातार करवटे लेते दिखता है जिससे गांव का रचनात्मक वितान स्वयं फैलता जाता है।

मध्यवर्गीय जीवन यापन करने वाला डाॅ मिश्र का शायर गांव की दुविधाओं को ओढ़कर अंतरंगता की तलाश कर ही लेता हैं। वस्तुतः अपसंस्कृति के हथियार ने गांव की आत्मीय संवेदना का कत्ल करना शुरू कर दिया है, इससे शायर बारहा सचेत करता रहता है और कहता है:–

कब किसानों की बेहतरी की बात करिएगा
उनकी खुशहाल जिंदगी की बात करिएगा?

यह भी देखें:-

उधर गाँव के लड़कों की टोली निकली
इधर तितलियाँं नाच रही फुलवारी में

डॉ मिश्र की ग़ज़लें सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य के संवर्धन की पक्षधर हैं। मूल्य, मनुष्यता एवं संस्कृति के ह्रास होते समय में अपनी ग़ज़लों के माध्यम से बेहतर सहेजने का शायर का प्रयास प्रशंसनीय है। सामाजिक समानता के पक्ष में खड़ी इनकी ग़ज़लें परिवर्तन की तलाश में संस्कृति का राग ढूंढती दृष्टिगोचर होती हैं। ढहते जीवन-मूल्यों के बीच सरोकारों का संयम इनकी ग़ज़लों में ख़ूब देखने को मिलता है। देखें:-

अब ये गजलें मिजाज बदलेंगी
बेईमानों का राज बदलेंगी

दूर तक प्यार का स्वर गूँजेगा
ग़ज़लें रस्मो रिवाज बदलेंगी

डॉ मिश्र की ग़ज़लों में यथार्थ का संशय, लेश-मात्र भी नहीं है बल्कि इन ग़ज़लों में ऐसी विलक्षणता है जो बरबस पाठकों को शहर एवं गांव की चेतना में डुबो देता है एवं जीवन-जनित व्यावहारिक मर्म को उजागर करता है। ग्राम्य-जीवन की सजीवता से पूर्ण इनकी ग़ज़लों में अपनी मिट्टी की सोंधी महक है ,जो मन को स्पंदित करती है। गांव की मिट्टी, खेत-खलिहान, किसान एवं सामाजिक संस्कृति का सूक्ष्म विश्लेषण, चीजों के प्रति आस्था, ज़िंदगी को पारंपरिक तौर पर देखने का नज़रिया इनकी ग़ज़लों की सार्थक पूँजी है। देखें:-

हमारे लहलहाते खेत तुमको याद करते हैं
दिखोगी फिर जवां चुनर पहन करके नयी आओ

कोई भी रचना, रचनाकार के मन की स्वतंत्र अभिव्यक्ति होती है। ऐसा देखा गया है कि कोई भी रचनाकार दोहरे व्यक्तित्व के दम पर स्वाभाविक रचना नहीं कर सकता है। डॉ मिश्र जैसा जीते हैं वैसी ही बात अपनी ग़ज़लों में करते हैं। उनका जीवनानुभव उनकी गजलों का जीवंत दस्तावेज है। शेर देखें:-

जैसी रोटी हम खाते हैं
वैसी ही गजलें गाते हैं

वे यह भी कहते हैं:-

जिसमे इंसानियत की बात न हो
ग़ज़लें ऐसा समाज बदलेंगी

इन दिनों ग़ज़लें ख़ूब कही जा रही हैं। इश्क, इबादत, रवायत की गजलें सदियों से चलन में हैं । परंतु दुष्यंत कुमार के बाद जो हिंदी ग़ज़लें कही जा रही हैं, जिसे अदम गोंडवी ने एक नई दिशा दी, उसी ज़मीन की ग़ज़लें मिश्र जी को अन्य ग़ज़लकारों से भिन्न करती हैं। आज ग़ज़लें महबूबा की गलियों से निकलकर गांव के खेत-खलिहान में जाकर पसर गई हैं।फलतः हिंदी कविता की तुलना में ग़ज़लें आज पाठकों के बीच ज़्यादा सर्वग्राह्य हो गई हैं। देखें:-

खेत हमारा अब पूरा उपजाऊ है
अच्छा है जितना था बंजर निकल चुका

Dr DM Mishra Sultanpur

यही कारण है कि आज यह आम-जन के बेहद क़रीब है। डॉ मिश्र की गजलों में आम-जन की संवेदनाओं का स्वाभाविक प्रस्फुटन है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में बड़ी कुशलता के साथ भावनाओं और अन्तरवृत्तियों को अभिव्यक्त किया है। इन्होंने ग़ज़ल की जो ज़मीन तैयार की है वह सार्थक एवं प्रयोज्य है। सादगी, शाश्वत मूल्य एवं जीवन की सहज अभिव्यक्ति यहां देखी जा सकती है। देखें:-

ग़ज़लकार सब लगे हुए फनकारी में
मगर हम लिए खुरपी बैठे क्यारी में

हिंदी ग़ज़ल में भी छोटी एवं बड़ी बहर की ग़ज़लों के अनुशासन का पालन करते हुए सटीक, गहरी एवं मारक बातों को डॉ मिश्र ने कुशलता से रखा है। उनकी ग़ज़लों में समय का संताप, आमजन की अकुलाहट, व्यवस्था के विरुद्ध तेवर एवं हाशिये के जन की पीड़ा है। इन बेचैनियों को कलमबद्ध करते हुए शायर सकारात्मक दिशा एवं संवेदनात्मक ऊर्जा का भी अवलोकन करता है। जिंदगी की विभिन्नताओं एवं विशेषताओं के कई रंगों में सरापा नहाया हुआ यह शायर ग़ज़लों में ही अपने होने को अपनी उपलब्धि मानता है। शेर देखें:-

हवा खिलाफ है लेकिन दिए जलाता हूँ
हजार मुश्किलें हैं फिर भी मुस्कुराता हूँ

अपनी गजलों में सामाजिक जीवन, सरकार और व्यवस्था के अंतर्विरोधों, विद्रूपताओं एवं त्रासदियों को जिस तरह नए अंदाज़ में पिरोया है वह काबिले तारीफ़ है। देखें:-

सलाम आँधियाँ करती है मेरे जज्बों को
इक दिया बुझ गया तो दूसरा जलाता हूँ

संग्रह की ग़ज़लें जन-जीवन से जूझते सवालों की मौजूदगी है। भूख, गरीबी, रोटी एवं जीवन-यापन के लिए जद्दोजहद करते आम-जन की विवशता इन ग़ज़लों को रवानी देती है। डॉ मिश्र का शायर मन अनुभूतियों की आंच में तपता-जलता रहता है। इन्होंने अपने जीवन को आग माना है–

खुली किताब की मानिंद जिंदगी मेरी
कोई पर्दा नहीं है कुछ नहीं छुपाता हूँ

डॉ मिश्र ने संग्रह की गजलों में अपने प्राण-तत्व को जीवंत रखने की कोशिश की है साथ ही अवमूल्यन के दौर में जन-ग़ज़ल की परंपरा को बचाए रखा है। मस्ती, सादगी और तेवर का लिबास ओढ़े डॉ मिश्र की ग़ज़लें पाठकों से सीधा संवाद करती हैं जब वो कहते हैं:-

फूँक दे कब, कौन मेरी झोपड़ी
नींद में भी बेखबर रहता नहीं

लाख यारों मुश्किलें हो सामने
जुल्म के आगे कभी झुकता नहीं

सुविधा-असुविधा, प्रेम-पीड़ा एवं अच्छे-बुरे अनुभवों से गुज़रते हुए डॉ मिश्र के भीतर जो ग़ज़ल का बीज अंकुरित हुआ है वह उनके जीवन-संघर्ष का प्रतिफल-सा दिखता है। देखें:-

बोलने से लोग घबराने लगे
सोचकर नुकसान डर जाने लगे

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फिर ये भी कि:-

कैसे उतार दूँ मैं यह मुफलिसी की चादर
खाली है पेट मेरा दिखला के मर ना जाऊँ

डॉ मिश्र की ग़ज़लें समाज में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विसंगतियों का बेजोड़ चित्रण है। राष्ट्रीय मर्यादा के रक्षार्थ उनकी ग़ज़लों में जन-जन की भावना समाहित है। सत्ता के ख़िलाफ़ बड़ी साफगोई से अपनी बात कहने में माहिर शायर ने अनुशासन एवं मर्यादा की सीमा को लांघने से खुद को बचाए रखा है। अपनी शायरी में डॉ मिश्र ने आम इंसान के दर्द एवं जमाने के ताप को खूबसूरती के साथ पिरोया है। इन शेरों में वही तो है:-

एक ज़ालिम की मेहरबानी पे मैं छोड़ा गया
जाँ से लेकर जिस्म तक सौ बार में तोड़ा गया

पहले तो मेरी ज़बाँ सिल दी गई फिर बाद में
ठीकरा तकदीर का सर पर मेरे फोड़ा गया

आपके दरबार में सच बोलना भी जुर्म है
बागियों के साथ मेरा नाम भी जोड़ा गया

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डॉ मिश्र की ग़ज़लों में आक्रामकता, सियासत पर प्रहार, एवं समाज का तेवर स्पष्ट दिखता है जहां भ्रम और निराशा के घने कोहरे में घिरा आम-आवाम अपने थके हुए दिल और दिमाग में नया जोश भर कर सामाजिक विसंगतियों एवं राजनैतिक प्रपंचों पर चोट मारते हुए ख़ामोश ज़ुबान की आवाज़ बनकर उभरता दिखता है। बानगी देखें:-

हमें भी पता है शहर जल रहा है
जो बोया जहर था वो अब फल रहा है

हमारी बदौलत मिली उसको कुर्सी
पलटकर वही अब हमें छल रहा है

संवेदन एवं संवादहीन समय से गुजर रहे दौर में डॉ मिश्र की ग़ज़लें रोशनी मुहैया कराती दिखती हैं। देखें:-

बड़ा शोर है गीत कैसे सुनाऊँ
मगर ये मुनासिब नहीं लौट जाऊँ

जहाँ आदमी, आदमी का हो दुश्मन
वहाँ प्यार का पाठ किसको पढ़ाऊँ?

छितराये हुए जिंदगी के विभिन्न रंग-रूपों में डॉ मिश्र ने भी प्रेम को तलाशने का प्रयास किया है। जनपक्षधरता के साथ-साथ इनकी कुछेक गजलों में शाश्वत प्रेम भी समाहित है। देखें:-

झील में खिलते कमल दल की कतारों की तरह
तुम हसीं लगती हो बर्फीले पहाड़ों की तरह

या फिर:-

मैं तेरी सादगी पे मरता हूँ
तुझको दिल के करीब रखता हूँ

मेरी दुनिया तुझी से रंगी है
तुझ पे ही जाँ निसार करता हूँ

डॉ मिश्र की ग़ज़लों में राष्ट्रवादी तेवर के साथ-साथ सांप्रदायिक सद्भाव का जयघोष भी भी झलकता है। अपने चिंतन को राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता को समर्पित कर उन्होंने जागृति जगाने की भी कोशिश की है। उन्होंने कहा है:-

देश के आकाओं का डिगने लगा ईमान है
सिर्फ हम तुम ही नहीं खतरे में हिंदुस्तान हैं

तू मुसलमाँ और मैं हिंदू यही बस हो रहा
अब कहाँ कोई बचा इस देश में इंसान है?

ये गुलिस्ताँ है यहाँ बातें अमन की कीजिए
उस तरफ मत जाइए बैठा वहाँ शैतान है

मानव जीवन की सांसारिक जटिलताओं व मुश्किलों के बावजूद गांव, प्रेम, देश और समाज को बचा लेने की जिजीविषा से लबरेज डॉ मिश्र की ग़ज़लें न सिर्फ मन को स्पर्श करती हैं बल्कि उसे वैचारिक स्तर पर परिष्कृत भी करती हैं। कुल मिलाकर डॉ मिश्र की ग़ज़लें संस्कार, संवेदना और परंपरा को सहेजने का विश्वास पैदा करती हैं, जिसमें आम-जन के आत्म-संघर्ष, परिवेश एवं सामाजिक सरोकार की स्पष्ट छाप झलकती है। जनपक्षधरता का कोई भी रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से ऐसी सामाजिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है, जिससे मूल्य, मनुष्यता एवं संवेदना की क्षति होती है ,तो यह रचनाकार की सार्थकता होती है। डॉ मिश्र की यह चेतना उनकी ग़ज़लों में मुकम्मल वजूद के साथ प्रस्फुटित हुई है। संग्रह का यह शेर देखें:-

करे सरकार अत्याचार तो जनता कहाँ जाये?
मचा हो दिल में हाहाकार तो जनता कहाँ जाये?

और यह भी:-

हुकूमत है तुम्हारी तो तुम्ही से ही तो पूछेंगे
छिने जीने का ग़र अधिकार तो जनता कहाँ जाये?

डॉ मिश्र की ग़ज़लें भाषा के संतुलन से सुखद वातावरण तैयार करती हैं। क्रोधित, पीड़ित एवं उत्तेजित मन को सहलाते डॉ मिश्र की ग़ज़लें अपने उद्देश्य में सार्थक हैं। डॉ मिश्र प्रकृति में जीने वाले, जीवन में विश्वास करने वाले एवं आम-जन से प्यार करनेवाले सच्चे शायर हैं। डॉ मिश्र की ग़ज़लों की विशिष्टता जन से है, जन-सरोकार से हैं, संवेदना से है, सच्चाई से है।आज इसी बुनियाद पर ग़ज़ल कहना ग़ज़ल की सार्थकता है तभी वो कहते हैं:-

मुझे यकीन है सूरज यहीं से निकलेगा
यहीं घना है अंधेरा है यहीं पे चमकेगा

इसीलिए तो खुली खिड़कियां मैं रखता हूँ
बहेगी जब हवा मेरा मकान गमकेगा

कथ्य, शिल्प, शब्द एवं भाषा के लिहाज से डॉ मिश्र की गजलें सहजता से जुबान पर चस्पा हो जाने वाली है। भीड़ के पीछे बदहवास भागते लोग एवं छूटती हुई सांस्कृतिक विरासत को जानने-समझने की ज़िद डॉ मिश्र को अन्य ग़ज़लगो से अलग पंक्ति में खड़ा करती प्रतीत होती हैं। साफ-सुथरी जुबान में ग़ज़ल कहने के अंदाज़ ने डॉ मिश्र को पाठकों के करीब का शायर बना डाला है। नई ज़मीन एवं नए बदलाव की ओर इशारा करती संग्रह की समय-सापेक्ष ग़ज़लें पूरी संजीदगी के साथ स्वीकार की जा सकती है।

— डॉ पंकज कर्ण,

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