“अगर तुम स्वीकार करते हो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ है; इससे अन्यथा नहीं हो सकता। और जब तुम अस्वीकार करते हो तो तुम शत्रु निर्मित करते हो। तुम जितना ही अस्वीकार करोगे ,
तुम जितना ही बचाव करोगे, उतने ही शत्रु पैदा हो जाएंगे।
शत्रु तुम्हारी निर्मिति है।
वह कहीं बाहर नहीं है ;वह तुम्हारी व्याख्या से पैदा होता है।”
एक तरफ विराट अस्तित्व है जिसे परमात्मा कहा जाता है,
दूसरी तरफ खंडित, सीमित अहंकार है जो मान्यता में, व्याख्या में,धारणा में जीता है।
सीमित, सीमित को देखता है,असीम असीम को ।
जब हम एक वस्तु, व्यक्ति, घटना आदि की तरफ देखते हैं तब सीमित रुप में देखते हैं, हमें पूरा देखना चाहिए अर्थात विराट अस्तित्व को देखना चाहिए जिसके हम हिस्से हैं।
सब उससे जुडा हुआ है,कुछ भी उससे अलग होने में, स्वतंत्रता पूर्वक जीने में असमर्थ है।
यह असमर्थता अशुभ है या परम शुभ है?
जब हम सीमित होकर सीमित रुप में कुछ देखते हैं तब किसने क्या कहा, क्या किया यह अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
‘मेरे बारे में किसीकी क्या राय है?’
यह जानना जरूरी होता है। पूछते भी हैं लोग कि वह मेरे बारे में क्या बात कर रहा था?
वह निंदा हो, आलोचना हो तो बुरा लगता है,भय लगता है,क्रोध आता है।
क्या यह बुरा इसलिए लगा क्योंकि किसीने अप्रिय बात कह दी या इसलिए लगा क्योंकि हमारे ही भीतर उसका असली कारण मौजूद है?
अपना अहंकार नजर नहीं आता, अपनी अहंबुद्धि दिखाई नहीं देती जो यह सब जानना चाहती है अपितु दूसरा व्यक्ति ही नजर आता है।पूरा फोकस उसी पर रहता है जैसे किसीने सम्मोहित कर दिया हो।
अपनी अहंबुद्धि दिखाई दे जो कि अपने अनुकूल, प्रतिकूल धारणा बनाती है तो किसीकी भी तरफ ध्यान नहीं जायेगा।
बुरा नहीं लगेगा, अच्छा भी नहीं लगेगा अगर वह प्रशंसा कर रहा हो।
ये सब संकुचित करने वाले विचार हैं। इसमें अस्वीकार ही अस्वीकार है जबकि खुलापन अस्तित्व को समग्रत: स्वीकार करना है।
कहीं से कुछ आता है,कहीं से कुछ। कहीं से चोट करने वाला हाथ आता है,कहीं प्रेम से सहलाने वाला-मरहम लगाने वाला हाथ आता है।
आदमी चाहता है कोई उसके चोट लगे दिल पर मरहम लगाये।
वह अपने पिंजरे में बंद है जिसे चाहे जो सता सकता है, परेशान कर सकता है, पीड़ित कर सकता है।
जो खुले अनंत आकाश में गरुड की उड़ान भर रहा है उसे कौन पीडा दे सकता है?
वह उन्मुक्त है।वह उस अनंत आकाश का हिस्सा है,
सीमित, संकुचित,एक पिंजरे में बंद पक्षी नहीं है।
हमें ही हमारी जीवन पद्धति को देखना और समझना होगा कि हम किस तरह जीते हैं?
यह कि हम विराट अस्तित्व को एक साथ देखते हैं जिसके हम हिस्से हैं या उसमें एक एक वस्तु, व्यक्ति का हिसाब लगाते हैं कि क्या है हमारे अनुकूल या प्रतिकूल, शत्रु है या मित्र?
शत्रु है तो वह हम पैदा करते हैं, मित्र है तो हम मित्र पैदा करते हैं।हम कमरे में खिडकी से आकाश को देखकर उसे खिड़की जितना कर देते हैं।बाहर आकर खुले में नहीं देखते कि यह तो अनंत आकाश है।
सब एक साथ देखना चाहिए।
कभी हमारे एक हाथ से दूसरे हाथ को चोट पहुंच जाती है, कभी दांत में जीभ या गाल का हिस्सा आ जाता है तब हम क्या करते हैं,किस पर गुस्सा उतारेंगे?
सब हम ही हैं।
इसी तरह सब विराट अस्तित्व है। सब कुछ उससे जुडा हुआ है। उसके एक हिस्से से दूसरे हिस्से को चोट लग सकती है,मरहम भी लग सकता है।
सब एक साथ है।
इसमें हम भी हैं। हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि हम इस विराट अस्तित्व के हिस्से हैं या अलग-अलग, कोई पृथक् इकाई हैं?
अगर हम अलगाव में जीते हैं तो हमारी सोच सीमित है,हम क्षुद्र अहंबुद्धि की तरह जीते हैं जिसका काम ही दोस्त,दुश्मन पैदा करना है।
दोस्त,दुश्मन अपने आप पैदा नहीं हो जाते। हमारे भीतर स्वीकार या अस्वीकार का भाव उन्हें पैदा करता है।
शत्रु के कारण अस्वीकार नहीं होता, अस्वीकार के कारण शत्रु होता है।
और अस्वीकार अहंकार है। अहंकार, प्रतिरोध है।
प्रतिरोध के रुप में ही अहंकार जीता है।
किसे स्वीकारना,किसे नकारना?
वही कहता है-ये नकारात्मक विचार हैं इनसे कैसे बचा जाय?
कोई नकारात्मक बोला या नकारात्मक व्यवहार किया क्या करना चाहिए!
तब ध्यान अगर विराट अस्तित्व पर हो जिससे वह जुडा है, सभी जुडे हुए हैं तो नकारात्मक जैसा कुछ नहीं लगेगा।
इसलिए कहा है-
“यदि तुम वास्तव में खुले हुए हो और ग्रहणशील हो तो तुम्हारे लिए कुछ भी नकारात्मक नहीं है। नकारात्मकता तुम्हारी व्याख्या है,तुम्हारी धारणा है। अगर तुम खुले हुए हो तो तुम्हारे लिए कुछ भी हानिप्रद नहीं है। क्योंकि हानि का भाव भी तुम्हारी व्याख्या है, तुम्हारी धारणा है। अगर तुम सचमुच ग्रहणशील हो तो कुछ भी तुम्हें हानि नहीं कर सकता ,कुछ भी तुम्हें हानि प्रद नहीं मालूम हो सकता।
कोई चीज तुम्हें हानिप्रद इसीलिए लगती है क्योंकि तुम प्रतिरोध करते हो, क्योंकि तुम उसके विरोध में हो,क्योंकि तुम्हें उसका स्वीकार नहीं है।
इस बात को गहराई से समझने की जरूरत है।
शत्रु है; क्योंकि तुम उससे अपना बचाव कर रहे हो। शत्रु है; क्योंकि तुम खुले नहीं हो ।
अगर तुम खुले हो तो सारा अस्तित्व मित्रवत हो जाता है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता।”
अहंकार का काम है बहिष्कार करना, समझदार का काम है अपनाना।
ज्यादा गहरी समझ है उसकी।सबको अपनाकर वह विराट अस्तित्व को अपनाता है जिसका वह स्वयं हिस्सा है।इस तरह वह खुद भी जुड जाता है।
बचने वाला,अलग करने वाला टूटा रहता है।उसे दुनिया भर के थपेडे खाने पड़ते हैं।
ऐसे लोग मिल जायेंगे जो दुखी दुखी हैं। कोई उनसे अच्छा व्यवहार नहीं करता, कोई प्रेम नहीं करता।
उन दुखी लोगों का दुख असीम और असहनीय हो सकता है सिर्फ एक बात नहीं जानने के कारण।
वे सब कुछ अपने में समाविष्ट करना नहीं जानते,वे अलग थलग होकर जीते हैं जो अहंकार का काम है।
सब कुछ विराट से जुडा हुआ है ऐसा जाननेवाला खुद विराट हो जाता है।वह सबको अपना लेता है।न वह बहिष्कार करता है,न खुद बहिष्कृत होता है।
बहिष्कार करने वाला खुद भी बहिष्कृत होता है-यह वह जानता नहीं।
जो सब कुछ अपना लेता है उसे कोई कैसे हानि पहुंचा सकता है।वह अनुभूति ही ऐसी विशाल है।या वह उस आग की तरह है जिसे जो भी बुझाने आता है वह खुद उसमें जलकर भस्म हो जाता है या वह उस विशाल सागर की तरह है जिसमें ज्वालामुखी भी शांत हो जाता है।
इन सब बातों को सीमित मन की तरह नहीं जाना जा सकता,खुले हृदय से ही जाना और संभव किया जा सकता है।
हम सब मन की तरह जीते हैं -मैं मेरा,तू तेरा करने वाले मन की तरह।
हम शरीर नहीं हैं। शरीर एक जड वस्तु की तरह है या साधन मात्र है परंतु हम मन की तरह तो हैं ही-विचार की तरह।
विचार जैसे हैं वैसा रुप बन जाता है-सज्जन या दुर्जन जैसा भी।
सज्जन भी सत्वगुणी होने से सीमित है।
बात हो रही है असीम की,विराट की।इसके लिए खुला, ग्रहणशील, संवेदनशील हृदय चाहिए।
इसके अभाव में जीने का अर्थ है सीमित अहंबुद्धि के रूप में जीना जो विरोध करके शत्रु पैदा करती है।
यदि स्वीकार भाव है तो कोई शत्रुता नहीं कर सकता,करे भी तो शीघ्र ही धराशाई हो जाता है। एकतरफा शत्रुता कितने दिन चल सकती है।वह तो तभी संभव है जब दोनों एक-दूसरे के शत्रु हों
जबकि दोनों जुडे हुए हैं विराट अस्तित्व से व्यक्ति के दोनों हाथ की तरह।
जिस दिन यह समझ में आ जाता है कि
“ह मा रा ही वि रो ध ,
ह मा रा ही प्र ति रो ध
स म स्या ख ड़ी क र ता है”
हम खुद अहंकार के रूप में रास्ता रोकने वाली चट्टान बनकर खडे हो जाते हैं -उस दिन से जीवन में रचनात्मक परिवर्तन का शुभारंभ हो जाता है।
यह सच है।
जब भी समझ में आये।समय की कोई कमी नहीं है।अनंत समय फैला पडा है।
इसमें हम कब तक दुखी होते रहेंगे?
निसंदेह हम यहां दुखी रहने के लिए नहीं हैं अपितु आनंदपूर्वक जीने के लिए ही हैं।
इस विराट अस्तित्व को अलग-थलग खडे होकर नासमझी से इसे देखना मुख्य बाधा बना हुआ है।
हम पर है।
हम जुडे हैं तो सब जुडा हुआ है।
हम टूटे हैं तो सब टूटा हुआ है।
टूट नहीं सकता फिर भी टूटने का ख्याल उपद्रव करता ही है।यह रोज के जीवन में घटते देखा जा सकता है।