वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे, बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन मिश्र और बार एसोसिएशन के अध्यक्ष आदीश सी. अग्रवाल सहित 600 अधिवक्ताओं ने प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखकर आरोप लगाया है कि एक निहित स्वार्थ वाला समूह बेकार की दलीलों और घिसे पिटे राजनीतिक एजेंडे के तहत न्यायपालिका पर दबाव डालने और अदालतों को बदनाम करने का प्रयास कर रहा है। 26 मार्च को लिखे इस पत्र में दो टूक लिखा गया है कि उनकी दबाव की रणनीति राजनीतिक मामलों में विशेषकर उन मामलों में सबसे ज्यादा स्पष्ट होती है, जिनमें भ्रष्टाचार के आरोपी राजनीतिक हस्तियां होती हैं।
पत्र लिखने वाले अधिवक्ताओं ने स्पष्ट किया है कि ये रणनीतियां हमारी अदालतों के लिए हानिकारक हैं और हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को खतरे में डालती हैं। पत्र लिखने वाले अधिवक्ताओं ने इस स्वार्थी वर्ग के खिलाफ आरोप लगाया है कि वे दिन में अदालतों में राजनेताओं का बचाव करते हैं और रात में मीडिया के माध्यम से न्यायाधीशों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। इन अधिवक्ताओं ने खुलकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल पर शराब नीति घोटाले में उनका बचाव करने वाले वकीलों पर घटिया खेल खेलने का आरोप लगाया।
यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट में वकीलों का एक वर्ग हमेशा न्यायाधीशों पर धौंस तो जमाता रहा है, किन्तु उनकी इस प्रवृत्ति पर गंभीरता से किसी ने सार्वजनिक रूप से ऐतराज भी नहीं किया था। हकीकत यह है कि न्यायाधीशों के सामने अधिवक्ता जब अपने पक्ष रखते हुए ऊंची आवाज में बोलता है तो न्यायाधीश बड़ी चतुराईं से उसकी दलीलों का मूल्यांकन करते हैं और आशय की समीक्षा करते हैं।
जब न्यायाधीशों को दलील और आशय दोनों सही लगते हैं तो वे अधिवक्ताओं के प्रति आदर भाव भी व्यक्त करते हैं और अधिवक्ताओं द्वारा अपनाई गई उग्र शैली पर नाराज नहीं होते, किन्तु जब कभी भी ऐसे अधिवक्ता कुतर्कों के आधार पर कोई मामला अपने पक्ष में कराने के लिए धौंस जमाते हैं तो न्यायाधीश भी ऐसे अधिवक्ताओं को अपना व्यवहार सुधारने की सलाह देते हैं। न्यायाधीश और अधिवक्ताओं के संबंध एक-दूसरे से व्यावसायिक होते हैं और दोनों लक्ष्मण रेखा का सम्मान करते हैं, इसलिए जब कभी भी अधिवक्ता लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करने की कोशिश करते हैं तो कुछ दूसरे अधिवक्ता उनके विरोध में खड़े दिखते हैं।
पिछले कुछ वर्षो में गैर सरकारी संस्थाओं यानि एनजीओ के प्रभाव में राजनीति भी आई है और न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं रही। अधिवक्ताओं के एक वर्ग ने राम मंदिर मामले से लेकर राजनेताओं के मामले तक में न्यायाधीशों पर धौंस जमाने का उदाहरण पेश किया है। यह दूसरी बात है कि न्यायाधीश न तो ऐसे स्वार्थी वर्ग के दबाव में आते हैं और न ही प्रभाव में, इसलिए उनकी शरारत का न्यायिक गतिविधियों पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन यह आरोप तो सही है कि न्यायाधीशों को धमकाने और उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालने का प्रयास होता है। दिलचस्प बात तो यह है कि जो लोग ऐसा करते हैं, वे अपनी इसी प्रवृत्ति को अपनी ताकत मानते हैं। इसलिए इस प्रवृत्ति पर जल्दी और आसानी से विराम लगेगा, ऐसा नहीं लगता। विराम तभी लगेगा जब उनकी प्रवृत्तियों को आपराधिक कृत्य मान कर उन्हें न्यायिक ताकत का एहसास कराया जाए।