- ओशो रजनीश
Osho Hindi Pravachan: लाओत्से ने कहा है कि निहाई क्यों नहीं टूटती? क्योंकि वह झेल लेती है। हथौड़ा टूट जाता है, क्योंकि वह आक्रमण करता है। आक्रामक टूट जाएगा अपने आप। तुम उसकी चिंता मत करो, तुम सिर्फ झेलने में समर्थ हो जाओ। और हर आक्रामक स्थिति, हर घटना जो तुम्हें हिला जाती है, तुम्हें और मजबूत कर जाएगी। पूछो सुनार से कि एक निहाई और कितने हथौड़े? तो वह कहेगा, सैकड़ों हथौड़े टूट गए, निहाई एक टिकी है। टूटना था निहाई को, क्योंकि कितने आक्रमण हुए। लेकिन तोड़ने वाले टूट जाते हैं, सहने वाले बच जाते हैं। निहाई में पूरा राज छिपा है।
नानक कहते हैं, ‘बुद्धि निहाई है।’ बुद्धि टूटेगी नहीं, डरो मत। खोलो अनुभव के लिए, पड़ने दो चोटें। जितनी चोटें पड़ेंगी तुम्हारे जीवन चेतना पर, उतने ही तुम निखरोगे। जीवन को एक अभियान बनाओ, एक एडवेंचर। और जहां भी चोट पड़ सकती हो, वहां से भागो मत। जिसने पलायन किया, वह हारने के पहले ही हार गया। उसने चुनौती स्वीकार ही न की। वह भाग खड़ा हुआ। भगोड़े मत बनो। जीवन के संघर्षण से भागो मत।
इसलिए मैं उसको संन्यासी नहीं कहता, जो भाग गया। क्योंकि वह तो हथौड़ों से ही भाग गया। उसकी निहाई पर जंग लगेगी हिमालय में, और कुछ नहीं हो सकता। तुम देखो अपने संन्यासियों को, जाओ हिमालय। तुम उनमें बुद्धि का प्रखार न पाओगे। तुम उनमें चमक न पाओगे। तुम उन पर पाओगे जंग लग गयी। अगर तुम्हारे पास आंखें हैं, तो तुम देखोगे, उनकी प्रतिभा दीन हो गयी, क्षीण हो गयी। वे मरे हुए से हैं। उनके भीतर जीवन की ज्योति प्रगाढ़ता से नहीं जलती है। उनके भीतर सब फीका-फीका, उदास-उदास हो गया है। क्योंकि जीवन की ज्योति के जलने के लिए संघर्षण चाहिए। संघर्षण भोजन है। उससे भागो मत।
नानक कहते हैं, ‘बुद्धि निहाई है और ज्ञान हथौड़ा है।’ और जब भी तुम्हारे जीवन में चोट पड़े तभी ज्ञान का एक क्षण उत्पन्न होता है। उसको तुम चूको मत। जैसे रात, कभी अंधेरी रात में बिजली चमकती है। ऐसे तो तुम कंप जाते हो। लेकिन उसी कंपन में एक प्रकाश होता है और सब अंधेरा खो जाता है। एक क्षण को सब रास्ते साफ हो जाते हैं।
ज्ञान की हर चोट बिजली की चमक है। बादलों में घर्षण होता है तब चमक पैदा होती है। और जब जीवन में घर्षण होता है, तब चमक पैदा होती है। तो जीवन की किसी भी स्थिति से भागो मत। रुको, और उससे गुजरो। उसी से प्रौढ़ता और मैच्योरिटी आएगी। उसी से समझ का जन्म होगा, अंडरस्टैंडिंग पैदा होगी।
इसलिए नानक ने अपने शिष्यों को संसार से भागने को नहीं कहा। क्योंकि वह हथौड़ियों से भागना है। यहीं तो सारा ज्ञान उत्पन्न होगा। तुम भाग जाओगे पत्नी से, तुम बचकाने रह जाओगे। क्योंकि पत्नी के साथ संघर्षण में एक प्रौढ़ता है। तुम भाग जाओगे अपने बच्चों से, लेकिन तुम बचकाने रह जाओगे। क्योंकि बच्चों के साथ, जीवन को बड़ा करने में तुम्हारी एक प्रौढ़ता है जो विकसित होती है।
तुमने कभी खयाल किया? जैसे ही एक बच्चा पैदा होता है किसी स्त्री को, वह स्त्री वही नहीं रह जाती जो बच्चे के पहले थी। क्योंकि बच्चा ही पैदा नहीं होता, मां भी पैदा होती है उसी के साथ। उसके पहले वह साधारण स्त्री थी, अब वह मां है। और मां होना एक अलग गुणधर्म है, जिसका साधारण स्त्री को कोई भी पता नहीं। जब एक बच्चा पैदा होता है, अब तक जो जवान आदमी था, अब जो बाप बन गया वह दूसरा आदमी है। क्योंकि बाप होना एक प्रौढ़ता है। बाप होने का खयाल, बाप होने की स्थिति, एक नए अनुभव की शुरुआत है। तुम भागो मत। जीवन ने जितने द्वार खोले हैं, तुम उन सबका उपयोग करो।
इसलिए नानक ने अपने भक्तों को जंगल भाग जाने को नहीं कहा। कहा कि जीवन में रुकना। पड़ने देना हथौड़ियां, डरना मत। क्योंकि बुद्धि निहाई है और ज्ञान हथौड़ा है।
‘भय धौंकनी है और तपस्या अग्नि है।’ भय का उपयोग भी तुम दो तरह से कर सकते हो। एक तो तुम कर ही रहे हो। वह उपयोग है कि जहां-जहां तुम भयभीत हो जाते हो, वहीं-वहीं से तुम भाग खड़े होते हो। तुम शुतुरमुर्ग का तर्क मानते हो। देखता है दुश्मन को, रेत में सिर गड़ा कर खड़ा हो जाता है। न दिखायी पड़ता है दुश्मन, सोचता है नहीं रहा। जो दिखायी नहीं पड़ता वह होगा कैसे? तुम जहां-जहां भय पाते हो वहीं से हट जाते हो। तो तुम कैसे बढ़ोगे? भय अवसर है।
भय क्या है? भय एक ही है कि तुम मिट न जाओ। जहां-जहां तुम भय पाते हो वहीं से तुम हट जाते हो। और अगर तुम मिटने को राजी नहीं हो, तो परमात्मा होगा कैसे? भय क्या है? एक ही भय है कि मैं मर न जाऊं, समाप्त न हो जाऊं। मृत्यु के अतिरिक्त कोई भी भय नहीं। और जो मरने को राजी नहीं है, वह परमात्मा में लीन होने को कैसे राजी होगा? जो मरने को राजी नहीं है, वह प्रेम में जाने को कैसे राजी होगा? जो मरने को राजी नहीं है, वह प्रार्थना में कैसे प्रवेश करेगा?
तो भय की दो संभावनाएं हैं। या तो तुम पलायन कर जाओ, या तुम समर्पण कर दो। या तो तुम भाग जाओ, या तुम समर्पण कर दो। तुम राजी हो जाओ कि ठीक है, मौत है। स्वीकार कर लो, आंख मत छिपाओ। और जिस दिन तुम मौत को खुली आंख से देखोगे, स्वीकार कर के देखोगे, उसी दिन तुम पाओगे कि मौत तिरोहित हो जाती है। तुमने उसे कभी खुली आंख से देखा नहीं था। तुमने कभी आमना-सामना न किया था, इसलिए मौत थी। जीवन के सब भय धीरे-धीरे तिरोहित हो जाते हैं, अगर तुम जाग कर देखना शुरू करो।
Osho Hindi Pravachan: नानक कहते हैं, ‘भय धौंकनी है।’
तुम भय से डरो मत। क्योंकि तुम भय से जितने भागोगे, डरोगे, उतनी ही तुम्हारे जीवन की तपश्चर्या और अग्नि क्षीण हो जाएगी। क्योंकि भय तो धौंकनी है। उससे तो अग्नि प्रज्वलित होती है। जहां-जहां भय हो, वहीं चुनौती को स्वीकार कर के प्रवेश करो। उसी से तो योद्धा पैदा होता है। जहां भय है, वहीं प्रवेश करता है। जहां मौत है, उसी को निमंत्रण मान लेता है। जहां खतरा है, वहां सजग हो कर चलता है, लेकिन चलता है। भीतर जाता है। और जितने भीतर तुम भय के जाओगे, उतना ही अभय उत्पन्न होता है। जितना भागोगे, उतना भय संगृहीत होता है।
जो भय का उपयोग करना सीख लेता है, नानक कहते हैं, उसके लिए भय धौंकनी हो जाता है। और हर भय की अवस्था तपस्या की अग्नि को प्रज्वलित करती है।
भक्त में भय है। लेकिन उसने अपने भय को भक्ति में रूपांतरित कर दिया। अब वह सिर्फ परमात्मा से भयभीत है और किसी से भी नहीं। और परमात्मा से क्यों भयभीत है? परमात्मा से सिर्फ इसलिए भयभीत है कि उस भय के द्वारा वह अपने जीवन में संयम रख सकेगा। उस भय के द्वारा वह अपने जीवन को गलत जाने से बचा सकेगा।
यह भय साधारण भय नहीं है। तुम जिससे भी डरते हो उसके दुश्मन हो जाते हो। परमात्मा का भय बहुत अनूठा है। तुम उससे डरते हो, उतने ही उसके प्रेम में गिरते जाते हो। क्योंकि डरने का कुल इतना ही अर्थ है कि कहीं मैं तुझ से चूक न जाऊं। कहीं ऐसा न हो कि मैं भटक जाऊं। तुम्हारा भय केवल इतना ही बताता है कि मेरे भटकने की भी संभावना है। तू मुझे भटकने मत देना। तेरी याद कहीं मुझे भूल न जाए। क्योंकि तेरी अनुकंपा न हो तो मैं तेरी याद भी तो सतत न रख सकूंगा। मैं तुझे खोजता हूं, लेकिन तेरा सहारा न हो तो मैं तुझे खोज भी तो न सकूंगा। भय का अर्थ है, मेरी दीनता। मेरी असहाय अवस्था।
भक्त भय को प्रार्थना बना लेता है। वह भागता नहीं। वह हर भय को प्रार्थना बना लेता है। जहां-जहां भय उसे पकड़ता है, वहां-वहां वह उसकी प्रार्थना का अवसर पाता है।
‘भय धौंकनी है, तपस्या अग्नि है।’
जब भी तुम छोटा सा भी कृत्य संकल्पपूर्वक करते हो, तो तुम्हारे भीतर एक अनूठा ताप पैदा होता है। इसे तुमने शायद कभी निरीक्षण न किया हो। लेकिन तुम छोटा सा भी कृत्य अगर संकल्पपूर्वक करो–तपश्चर्या का वही अर्थ है।
समझो कि तुम आज उपवास कर लो। उपवास किसी स्वर्ग को पाने के लिए नहीं। क्योंकि भूखे रहने से अगर स्वर्ग मिलता होता, तो बड़ी आसान बात थी। उपवास किसी पुण्य के लिए भी नहीं। क्योंकि भूखे रहने से कैसे पुण्य का संबंध है? कोई संबंध नहीं। उपवास तो संकल्प की तपश्चर्या की एक प्रक्रिया है। तुमने एक संकल्प किया कि आज मैं भूखा रहूंगा। शरीर मांग करेगा रोज की आदत के अनुसार, भोजन चाहिए। वक्त भोजन का आएगा, शरीर कहेगा, भूख लगी है। तुम यह सब सुनोगे। तुम इसे झुठलाओगे नहीं। तुम यह नहीं कहोगे कि भूख नहीं लगी है। तुम शरीर को कहोगे, भूख लगी है, बिलकुल ठीक है। समय भी हुआ है, यह भी ठीक है। लेकिन मैंने निर्णय किया है कि आज भूखा रहूंगा। तो आज भूखा रहना पड़ेगा। मैं अपने निर्णय को शरीर के लिए नहीं झुकाऊंगा। लेकिन इसको सजगता से। शरीर की मांग सही है। लेकिन आज मैं अपने निर्णय से जीऊंगा।
इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि तुम अपने को शरीर के ऊपर उठा रहे हो। तुम शरीर से बड़े हो रहे हो। तुम शरीर को अनुगामी बना रहे हो। मन भोजन की याद करेगा, उसे करने देना। तुम उसको भी कहोगे कि ठीक है, तुझे सोचना है सोच। मैं साक्षी रहूंगा, मैं साथी नहीं हूं। मैं अपने निर्णय से जीऊंगा। मेरा संकल्प है। और तब तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर एक ताप, एक अग्नि, एक ऊर्जा पैदा हो रही है। एक अनूठी ऊर्जा, जो तुमने कभी नहीं जानी थी। वह ऊर्जा संकल्प की मालकियत से आती है। तुम अपने मालिक हो।
कल तुम सुबह उठोगे, और ही तरह से उठोगे। कल सुबह तुम पाओगे कि मैं शरीर के ऊपर उठ सकता हूं। एक नया अनुभव हुआ कि मैं मन के भी ऊपर उठ सकता हूं। एक नयी प्र्रतीति हुई, एक साक्षात्कार हुआ कि मैं शरीर और मन से भिन्न हूं, इसकी एक छोटी झलक मिली।
यही तपश्चर्या है। तपश्चर्या न तो पुण्य के लिए है, न मोक्ष जाने के लिए है। तपश्चर्या तो स्वयं के जीवन-चेतना को शरीर और मन के ऊपर जानने के लिए है। लेकिन जिसने उसे ऊपर कर लिया, उसके लिए मोक्ष के द्वार अनायास ही खुल जाते हैं।
-एक ओंकार सतनाम–(प्र.२०)
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