ओशो ने अपने इस जीवन अंतिम 10 महीनों में प्रकाशित होने वाली दस पुस्तकों के मुख्य शीर्षकों के साथ जो उप-शीर्षक जोड़े, उनमें स्पष्ट संकेत हैं कि वे शीघ्र ही देह-मुक्त होने वाले हैं। इन किताबों के कवर-चित्र संलग्न हैं। साथ ही वह लेख भी है जो पत्रिका में प्रकाशित हुआ, तथा प्रेस विज्ञप्ति के रूप में 20 जनवरी 1990 को रिलीज किया गया।
- शिक्षा में क्रांति — सुन सको तो सुनो, थोड़ी देर और पुकारूंगा; और चला जाऊंगा
- क्रांतिबीज — मैं तो बो चला, देखना तुम कि बीज बीज न रह जाए
- पथ के प्रदीप — जला तो दिए हैं, जलाए रखना
- साधना-पथ — अब और न रुको, दिन हैं बस चार दो आरजू में बीत गए, दो इंतजारी में
- मरो हे जोगी मरो — न जाने समझोगे या नहीं मृत्यु बन सकती है द्वार अमृत का
- समाधि के सप्त द्वार — कब तक खड़े रहोगे बाहर? युग बीते, कल्प बीते और प्रतीक्षा कब तक?
- एक ओंकार सतनाम — इधर से गुजरा था, सोचा सलाम करता चलूं
- महावीर या महाविनाश — अब और देर नहीं, अब भी समय है
- दीया तले अंधेरा — एक और गीत गा लूं तो चलूं
- चल हंसा उस देस — देर हुई बहुत!
उन्होंने कम्यून का प्रतीक चिह्न भी उड़ता हुआ हंस बना दिया
10 अप्रैल 89 में हुए अंतिम प्रवचन का यह अंतिम वाक्य चिरस्मरणीय हो गया है- बुद्ध का अंतिम शब्द था -“सम्मासति” । स्मरण रहे कि तुम भी एक बुद्ध हो-सम्मासति।
17 जनवरी 1990 को जब उन्होंने बुद्ध सभागार में अंतिम दर्शन दिया तो अर्धचंद्राकार मंच के एक कोने से दूसरे कोने तक चलकर इतनी देर तक हाथ जोड़े अभिवादन किया, जितनी देर तक उन्होंने पहले कभी भी नहीं किया था। वह अन्तिम नमस्कार जो था!