- राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’, उज्जैन
अभी तक तो औरतें अपने सैया के कोतवाल होने पर ही इतराया करती थी पर पड़ोस की भाभी जी ने तो नई क्रांति ला दी है। जब उनके पति को कोरोना हुआ तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया था कि सैंया भए कोरोनावीर अब डर काहे का। उन्हें इस बात का बड़ा घमंड है कि अब उनके परिवार की पहचान बड़े-बड़े लोगों से हो चुकी है। बैरियर लगाने वाले पीडब्ल्यूडी के कर्मचारियों से लेकर कलेक्टर, तहसीलदार, स्वास्थ्य विभाग, नगर निगम तक सब उन्हें बहुत अच्छे से पहचानते हैं। मीडिया वाले तो सब घर जैसे हो गए हैं।दूध वाले, सब्जी वाले सब उन्हें बाहर लगे पोस्टर की वजह से बहुत अच्छे से पहचानते हैं।
उनके व उनके पति के मोबाइल नंबर सभी विभाग प्रमुखों की डायरी में सुरक्षित है ।उन्होंने उस दिन के अखबार की कटिंग भी सुरक्षित रख रखी है जिसमें उस वक्त का फोटो छपा था जब उनके पति अस्पताल से बरमुंडे में मुंह पर मास्क लगाए, कंधे पर झोला लटकाए बाहर निकल रहे थे और सारे अधिकारी व कर्मचारी उनकी विदाई हाथों में फूल गुलदस्ते लिए हुए मुस्कुराते हुए कर रहे थे। उन्होंने तो यह फोटो अपने ड्राइंग रूम में भी लगवा लिया है। वैसे यह भी कहा जा सकता है कि भाभी जी पूर्ण रूप से पॉजिटिव विचारधारा की है ।अब चूंकि वह पड़ोस वाली भाभीजी है इसलिए मैं भी उनकी हिम्मत और ऊंची सोच की सराहना खुले दिल से करता हूं ।पर पत्नी उन्हें घमंडी ही मानती है।
आज मटका हमेंशा की तरह फिर मेरे ऊपर ही फूटा। जिस दिन से पड़ोसी अस्पताल से घर आए हैं ,पत्नी दोनों हाथों में तलवार खींच कर मेरे ऊपर ही चढ़ी हुई है, ‘आखिर तुम किस काम के हो ? वो देखो भाई साहब को । कोरोना से चौदह दिन तक संघर्ष करके कोरोना को पटखनी देकर घर आ गए और एक तुम हो। खाली माली घर में घुसे बैठे हो। तुम्हारी छेद वाली बनियान और पेंट काटकर बनाए गए बरमुंडे को देख देखकर में बोर हो गई हूं।
कभी-कभी तो लगता है कि किसी हम्माल से शादी हो गई है।’ अब उसे यह कैसे समझाऊं कि ‘ हे,प्राण चूसनी। पड़ोस वाले भाई साहब किस्मत से ही बचे हैं ।उसका पूरा श्रेय डॉक्टरों को जाता है वरना प्लास्टिक की थैली में पता नहीं कहां लपेट कर फेंक दिए जाते।’ वैसे भी यह सच है कि औरतों को दूसरे का माल सुहाता है। खैर ।
मरता क्या न करता। पत्नी की नजर में सुपरमैन होने के लिए जरूरी था कि हमें घर से बाहर भीड़ भरे इलाके में सीना तान के घूमना ही होगा ।वरना वो हमेंशा पड़ोस वाले भाई साहब को ही श्रेष्ठतम बताती रहेगी । सुबह होते ही हमने दो माह से खूंटी पर टंगी पेंट की धूल झाड़ी। सिर में खोपरे का तेल लगाया, धूप का चश्मा चढ़ाया और निकल पड़े कुरुक्षेत्र में।पूरी पूरी संभावना थी कि आज घर से अलग बाहर का कुछ खाने को मिलेगा।
पत्नी ने गर्वीली मुस्कान फेंकी। पड़ोसन ने तिरछी नजरों से देखा। पीछे पीछे गली के मुहाने तक छोड़ने चार पांच कुत्ते भी रोते हुए चल दिए। शायद उन्हें पता था पिछवाड़े पर डंडा पड़ने का मजा। पहला चौराहा खाली ,दूसरे पर इक्के दुक्के पुलिसकर्मी छांह में बैठे हुए हमें तरस खाने वाली नज़रों से देख रहे थे। हमें किसी ने नहीं रोका। हम लगातार आगे बढ़ते गए, हौसला बढ़ता गया ।
तभी एक शानदार शॉट हमारी बैठक स्थली पर पड़ा। हमने पीछे मुड़कर देखा तो बड़ी बड़ी मूंछों वाले तीन पुलिसकर्मी पाइप लिए हमारी सात पीढ़ियों से संपर्क जोड़ रहे थे। पांच सात बार हाथ साफ करने के बाद उन्होंने हमें गाड़ी में लादकर खुली जेल में ले जाकर बैठा दिया । लेकिन अब समस्या तो नीचे बैठने की थी ।सूजे हुए पिछवाड़े के साथ भला कोई कैसे बैठे ?
भाई लोगों को भी मजा आ रहा था। वह भी हमें खींच खींच कर नीचे बैठा रहे थे ।शाम को सुंदरकांड का पाठ सुना कर, एक सौ रुपयों की दक्षिणा लेकर हमें वहां से भगा दिया गया।
लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलने के बाद जब हमने घर की घंटी बजाई तो पत्नी ने सुपर मुस्कान के साथ हमें अंदर लिया। उस समय पत्नी हमें हिडिंबा नजर आ रही थी। सूजे हुए पिछवाड़े और लंगड़ाती हुई चाल को देखकर उन्होंने सारा माजरा समझ लिया।
मुस्कुराते हुए हमारी पीठ थपथपाई और बाम हाथ में लेकर बोली ‘आज हमें आप पर गर्व हो गया है। आप वाकई कोरोनावीर हैं। पुलिस वाले की सिकाई तो आपने देख ही ली। हमारे हाथों की मालिश का भी मज़ा लीजिये।’कहते हुए उन्होंने बाम मलना शुरू कर दिया। तभी भाभीजी के घर में तेज आवाज में गाना बज उठा ‘ मैं झंडू बाम हुआ,डार्लिंग तेरे लिए’।