Swami Shailendra Saraswati से सोनीपत स्थित ओशो फ्रेग्रेंस आश्रम में विशेष प्रतिनिधि पवन सचदेवा से खास बात हुई। उनसे हुई बातचीत में स्वामी जी ने कई बातें कहीं। एक सवाल क्या बुराई का अस्तित्व ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध एक मजबूत सबूत माना जा सकता है ? इस पर Swami Shailendra Saraswati ने उत्तर दिया।जी नहीं। शक्ति के दो रूप है बुराई-भलाई।
ओशो ने कई बार इस विचार पर चर्चा की है कि ईसाई, यहूदी और मुस्लिम परंपराओं में भगवान और शैतान (God और Devil) बीच एक द्वैतवादी दृष्टिकोण है, जो अच्छाई और बुराई को दो अलग-अलग और विरोधी शक्तियों के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके विपरीत, हिंदू दर्शन में यह दृष्टिकोण भिन्न है, जहां अच्छाई और बुराई को एक ही सृष्टि और परम वास्तविकता (पारब्रह्म) के अभिन्न अंग के रूप में देखा जाता है।
ओशो के विचार से इस अंतर को कुछ प्रमुख बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:
1) द्वैत बनाम अद्वैत: ईसाई, यहूदी और इस्लामी परंपराओं में अच्छाई (ईश्वर) और बुराई (शैतान) को दो अलग-अलग और विरोधी ताकतों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस दृष्टिकोण में द्वैतवादी विचारधारा है, जहां अच्छाई और बुराई के बीच स्पष्ट विभाजन होता है। दूसरी ओर, हिंदू धर्म में अद्वैत (अद्वैत वेदांत) की धारणा अधिक प्रमुख है, जिसमें ईश्वर को एकमात्र वास्तविकता माना जाता है, और अच्छाई और बुराई दोनों उसकी अभिव्यक्तियाँ होती हैं। बुराई भी उसी ब्रह्मांड का एक पहलू है और उसे पूर्ण रूप से अस्वीकार नहीं किया जाता।
2) शिव और काल का प्रतीकात्मक अर्थ: हिंदू धर्म में शिव को न केवल सृजनकर्ता और विनाशक के रूप में देखा जाता है, बल्कि उन्हें “मृत्यु का देवता” भी कहा जाता है। यह विचार कि शिव, जो बुराई और विनाश का प्रतीक हो सकते हैं, वही सृजन और मुक्ति के देवता भी हैं, यह दर्शाता है कि बुराई और विनाश भी आवश्यक हैं। शिव का रौद्र रूप भी उसी दिव्यता का हिस्सा है, जो सृजनात्मक और विनाशात्मक दोनों शक्तियों का संतुलन बनाए रखता है।
3) लीला और समग्रता: ओशो अक्सर हिंदू धर्म की “लीला” की अवधारणा को उद्धृत करते हैं, जिसमें सृष्टि को एक खेल या नाटक के रूप में देखा जाता है। इस नाटक में बुराई का भी एक स्थान होता है। अच्छाई और बुराई के बीच कोई स्थायी संघर्ष नहीं है, बल्कि दोनों मिलकर उस ईश्वर की अभिव्यक्ति हैं, जो स्वयं में पूर्ण और समग्र है। यह दृष्टिकोण ईसाई और इस्लामी परंपराओं के “सर्वशक्तिमान ईश्वर बनाम शैतान” के संघर्ष से भिन्न है।
4) कर्म और पुनर्जन्म: हिंदू दर्शन में अच्छाई और बुराई को व्यक्ति के कर्मों और उनके पुनर्जन्म के चक्र के संदर्भ में देखा जाता है। इस दृष्टिकोण में बुराई का अस्तित्व न केवल एक बाहरी शक्ति है, बल्कि कर्म के चक्र के तहत आत्मा के विकास का हिस्सा है। इसके विपरीत, अब्राहमिक परंपराओं में बुराई अक्सर एक बाहरी ताकत (शैतान) के रूप में प्रस्तुत की जाती है, जो लोगों को गुमराह करती है।
5) अंतर्दृष्टि का विकास: ओशो का मानना था कि अच्छाई और बुराई दोनों ही व्यक्ति की चेतना को विकसित करने के साधन हैं। वे कहते हैं कि जब हम अच्छाई और बुराई को अलग-अलग समझते हैं, तो हम द्वैत में बंध जाते हैं। हिंदू धर्म की यह विचारधारा कि सभी कुछ ईश्वर की लीला का हिस्सा है, व्यक्ति को द्वैत से मुक्त करके अद्वैत की ओर ले जाती है, जो अंततः आत्मज्ञान और मुक्ति का मार्ग है।
ओशो इस भिन्नता को इस दृष्टिकोण से भी समझाते हैं कि हिंदू दर्शन में बुराई को अंततः नष्ट या खारिज करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह ईश्वरीय लीला का हिस्सा है। वहीं, अब्राहमिक धर्मों में शैतान और बुराई को पूरी तरह से समाप्त करने का लक्ष्य होता है। पूर्णता में अच्छाई और बुराई दोनों सम्मिलित हैं—पूर्णता का मतलब सिर्फ अच्छाई नहीं, बल्कि अच्छाई और बुराई दोनों का समन्वय भी हो सकता है। हिंदू दर्शन में अच्छाई और बुराई, शुभ और अशुभ एक ही ईश्वरीय लीला के अभिन्न अंग हैं। इसे और गहराई से समझने के लिए कुछ बिंदु और जोड़े जा सकते हैं:
6) स्वतंत्र इच्छा का सिद्धांत: कई धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोणों में यह माना जाता है कि ईश्वर ने मनुष्यों को स्वतंत्र इच्छा दी है ताकि वे अपने कर्मों का चयन कर सकें। बुराई की उपस्थिति इस स्वतंत्रता का परिणाम हो सकती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि मनुष्य अच्छे और बुरे के बीच चुनाव कर सके।
7) विरोधाभास की आवश्यकता: अच्छाई को समझने के लिए बुराई का अस्तित्व आवश्यक माना जा सकता है। बुराई के बिना, अच्छाई की परिभाषा और अनुभव अधूरा रह सकता है। जैसे कि अंधकार के बिना प्रकाश का अनुभव नहीं हो सकता।
8) परीक्षा और आत्म-विकास: कुछ मान्यताओं में, बुराई और कष्टों को आत्मा की परीक्षा और विकास का साधन माना जाता है। जीवन में कठिनाइयों और बुराइयों का सामना करके व्यक्ति आत्मिक रूप से विकसित होता है और अच्छाई का मूल्य समझता है।
9) ईश्वरीय योजना का हिस्सा: हो सकता है कि बुराई का अस्तित्व एक व्यापक ईश्वरीय योजना का हिस्सा हो, जो मनुष्यों के लिए फिलहाल पूरी तरह से समझ में नहीं आती हो।
10) सृजन और विनाश का चक्र: हिंदू धर्म में ब्रह्मा, विष्णु और शिव—सृजन, संरक्षण, और विनाश के देवता माने जाते हैं। इस त्रिमूर्ति का काम सृष्टि का संतुलन बनाए रखना है। शिव का प्रलय रूप विनाशकारी होते हुए भी सृजन की नई शुरुआत का द्वार खोलता है। इसी प्रकार, बुराई (विनाशकारी शक्ति) अंततः अच्छाई (सृजनात्मक शक्ति) का मार्ग प्रशस्त करती है।
11) लीला का सिद्धांत: हिंदू धर्म में संसार को एक “लीला” (खेल) के रूप में देखा जाता है, जहां ईश्वर विविध रूपों में सृजन, संरक्षण, और विनाश की प्रक्रिया का संचालन करते हैं। यह लीला जीवन-मृत्यु, सुख-दुख, शुभ-अशुभ का संयुक्त खेल है, जहां बुराई और अच्छाई दोनों आवश्यक तत्व होते हैं।
12) धर्म और अधर्म का संतुलन: हिंदू दर्शन में कहा गया है कि युगों के साथ धर्म और अधर्म का संतुलन बदलता है। जब अधर्म (बुराई) अधिक हो जाती है, तब ईश्वर किसी अवतार के रूप में आकर धर्म की पुनर्स्थापना करते हैं। यह प्रक्रिया बार-बार चलती रहती है, जिससे संसार में संतुलन बना रहता है।
13) कर्म का सिद्धांत: हिंदू धर्म में कर्म को बहुत महत्व दिया गया है। बुराई और पीड़ा को अक्सर व्यक्ति के कर्मों का फल माना जाता है। यह कर्म और उसका फल जीवों को उनके कर्तव्यों और नैतिकता का बोध कराता है, जिससे वे आत्मिक रूप से विकसित होते हैं।
ओशो के अनुसार इलेक्ट्रान-प्रोटान की तरह प्रत्येक शक्ति के दो रूप हैं। बुराई को पूर्ण रूप से नकारात्मक नहीं माना जाता, बल्कि यह एक आवश्यक शक्ति है जो सृष्टि और जीवन के चक्र का संतुलन बनाए रखती है। बुराई और अच्छाई दोनों मिलकर संसार की पूर्णता को दर्शाते हैं। चूंकि परमात्मा पूर्ण है, अतः उसमें सब-कुछ शामिल है।