- डा. रवीन्द्र अरजरिया
दुनिया के सामने मातृभूमि की छवि धूमिल करने की एक कोशिश गोरों की धरती पर फिर हो रही है। लंदन के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में आइडियाज फार इंडिया सम्मेलन का आयोजन किया गया। यूं तो कैम्ब्र्रिज यूनिवर्सिटी गुलामी के दौर से ही भारत के विरुध्द वहां पढने वाले भारतवासियों की मानसिकता परिपक्व करने का काम करती रही है। हमारे देश के अधिकांश सम्पन्न लोगों की संतानें खोखले इस्टेटस का मुखौटा ओढकर इसी यूनिवर्सिटी में दाखिला लेती हैं।
इतिहास गवाह है कि स्वाधीनता के पहले देश में गुलामी के विरुध्द बिगुल फूकने वालों पर गोरों ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के तत्कालीन छात्रों को ही नेता बनाकर देश पर थोपा था।
वास्तविक क्रांतिकारियों को प्रताडना, जेल और फांसी दी जाती रही और थोपे गये नेताओं को महात्व, सम्मान और उपाधियां। राष्ट्रवादी विचारधारा पर पश्चिमी सोच का अतिक्रमण कराया जाता रहा। देश के अपराधियों एवं भगोडों की सुरक्षित शरणगाह के रूप में आज भी लंदन पहली पसन्द है। इसी यूनिवर्सिटी में आइडियाज फार इंडिया सम्मेलन आयोजित करके देश के बढते कद पर कुठाराघात करने का षडयंत्र रचा गया।
सम्मेलन में राहुल गांधी के अलावा सीताराम येचुरी, सलमान खुर्शीद, तेजस्वी यादव, महुआ मोइत्रा और मनोज झा सहित अनेक विपक्षी नेताओं ने भागीदारी दर्ज की। राहुल गांधी ने विदेश में अपने देश की छवि को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोडी। उन्होंने कहा कि भारत के हालात ठीक नहीं हैं, बीजेपी ने चारों तरफ केरोसिन छिडक रखा है। इससे भी दो कदम आगे बढकर उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी भारत को फिर से हासिल करने के लिए लड रही है। यानी पुन: देश पर वर्चस्व कायम करके मनमानी चाहती है।
वहीं चीन के साथ तनातनी को राहुल गांधी ने रूस-यूक्रेन युध्द से जोडा तथा भारत में पाकिस्तान जैसे हालातों से तुलना तक कर दी। क्या राहुल गांधी चीन को रूस बनकर यूक्रेन की तरह भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं या फिर पाकिस्तान को बता रहे हैं कि हमारे देश के हालत आपसे ज्यादा बेहतर नहीं हैं, यहा मौका है जब भारत पर शिकंजा कसा जा सकता है।
विदेशों में जाकर अपनी धरती के हालातों की शरारत पूर्ण व्याख्या करने के पीछे किसी को खुश करने की मंशा तो नहीं है, ऐसी अनेक संभावनायें चौपालों से चौराहों तक कही-सुनी जा रहीं हैं। भारत का नागरिक विदेश में केवल और केवल भारतीय ही होता है, भारत माता का लाल होता है, अपनी धरती का लाडला होता है।
ऐसा नागरिक अपने घर के अन्दर चल रही आपसी वैमनुष्यता को सडक पर उजागर नहीं करता। प्रश्न उठता है कि गोरों के षडयंत्र में फंसकर इक्कीस वीं सदी के ये पढे-लिखे लोग राष्ट्र की निरंतर शिरोन्मुख होती छवि को आखिर कहां ले जाना चाहते हैं? वर्तमान में दुनिया के ज्यादातर देश भारत के विकास को आदर्श मानकर अंगीकार कर रहे हैं वहीं देश के चन्द लोग गला फाड-फाडकर मनमाने वक्तव्य जारी कर रहे हैं। यह वही लोग है जिन्हें देश के आवाम ने नकार दिया है। चुनावों के परिणामों ने उन्हें उनकी औकात बता दी है। स्वार्थ की बुनियाद पर किये गये गठबंधनों की हवा निकल गई।
स्वयं की पार्टी के अंदर चल रहे अन्तर्कलह उन्हें दिखाई नहीं देते। अगर दिखती है तो केवल विरोध करने के लिये काल्पनिक आंकडों की बाजीगरी, स्वयं-भू ज्ञानी होने के अह्म की संतुष्टि और समान सोच के लोगों के मध्य बंद कमरों में मृगमारीचिका के पीछे भागने की संकल्पना। सम्मेलन में आइडियाज फार इंडिया पर विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित लोग जब स्वयं के देश को गुलामी युग के दृश्यों में समाई दयनीय, दरिद्र और पतन के गर्त में पहुंचने जैसी राष्ट्र विरोधी परिभाषायें गढने लगें, समाने आ जाता है राष्ट्रप्रेम की डींगों का धरातली आइना।
वास्तविकता तो यह है कि भारत अब नये भारत की ओर अग्रसर है। ऐसे में आपसी भाईचारे को मजबूत करने की दिशा में सार्थक और परिणामात्मक प्रयास करने की जरूरत है। ईमानदाराना बात तो यह है कि स्वाधीनता के बाद से साम्प्रदायिक खाई बढाने के लिए पर्दे के पीछे से निरंतर षडयंत्र किये जाते रहे। सत्ताधारियों ने कभी संविधान संरचना के दौरान विभाजनकारी बिन्दुओं को छद्म रूप से संयुक्त कर दिया तो कभी विभिन्न कानूनों की आड में कथित अह्म को पोषित किया।
कभी आपातकाल में नसबंदी के चाबुक से एक ही सम्प्रदाय को लहूलुहान किया तो कभी मनगढन्त इतिहास को प्रमाणिता के साथ परोसा गया। तुष्टीकरण की चासनी में अफीम मिलाकर चटाने वालों ने वर्तमान हालातों की पटकथा तो गोरों के इशारे पर स्वाधीनता मिलने के साथ ही लिख दी थी, बाद के अनेक सत्ताधारियों ने तो उसे ही आगे बढाया था।
आज जब देश आयात के स्थान पर निर्यात करने की स्थिति में पहुंच गया है, दुनिया को सहायता देने की दम भरता है, सहयोग के नये कीर्तिमान गढ रहा है, शक्तिशाली देशों की कतार में अग्रणीय होता जो रहा है तब मंदिर-मस्जिद जैसे नितांत व्यक्तिगत आस्था के मुद्दों से आवाम के मध्य तनाव पैदा करने की कोशिशें करने वालों में जहां वामपंथियों की बडी जमात है वहीं अनेक फिरका पसंद पार्टियां भी टुकडे-टकडे गैंग के साथ खडी दिखाई देतीं हैं।
छात्र आंदोलन के नाम पर चन्द वाम संगठन ही हो हल्ला मचाने लगते हैं और ऐसा ही किसानों के नाम पर भीड एकत्रित करके दबाव की राजनीति होने लगती है।
जीवन को संवारने वाले छात्रों को किसी मुद्दे पर शिक्षक के द्वारा की जाने वाली टिप्पणी से क्या सरोकार हो सकता है, वह तो शिक्षा प्राप्त करने आया है, अध्ययन उसकी क्रिया है, सफलता उसका लक्ष्य। वह राजनीति करने की गरज से किसी भीड का अंग बनकर नारे लगाने, तख्ती पकडने के लिए कालेज नहीं आया है। इसी तरह किसान के पास खेतों में मसक्कत करने से ही वक्त नहीं बचता जो वह सडकों को महीनों तक जाम करने के लिए बैठा रहे।
यह जाम करने वाले और बैनर तख्ती लेकर प्रदर्शन करने वाले किसी और मंशा से यह लिबादा ओडकर सामने आते हैं। ठीक इसी तरह मुहल्ले के रमजान और रामदीन के मध्य खाई खींचने वाले आयातित सोच के लोगों से हमें सावधान होना होगा अन्यथा विश्व स्तर पर गुरुता का सिंहासन पाने की यात्रा अवरुध्द हो सकती है। हम मां भारती की गोद में किलकारी लगाने वाले उसी के लाडले है जो वतन की खातिर कल भी तैयार थे, आज भी तैयार है और कल भी तैयार रहेंगे। फिलहाल इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।