नोट चाहे हजार का हो अथवा एक रूपये का हो, है तो कागज और स्याही ही। सोना, चांदी, हीरे पृथ्वी का मैल है। यदि कहे कि इन नोटों से सोना, चांदी, मोटर कार आती हैं, कोठियां बनती है, भूमि खरीदी जाती है तो भी क्या बड़ी बात है, क्योंकि कार के टकराने का भय, खराब होने की आशंका सिर पर सवार रहती है। फिर मोटर कार और बड़े-बड़े भवनों से भी क्या शान्ति मिल सकती है।
आप दस कोठियां बना लें उससे भी क्या लाभ, तुम्हें एक समय एक कोठी के एक कमरे में ही थोड़े से स्थान पर ही विश्राम करना है। मिल, कारखाने चाहे अनेक बना लो, भोग सामग्री अनेक प्रकार की इकट्ठी कर लो, नौकर-चाकर अनेक रख लो, किन्तु सिवाय इसके कि चिंता अधिक बढने से वास्तविक और स्थायी शान्ति इन सबसे नहीं मिल सकती।
सत्पुरूषार्थ से अपनी लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन कमाने का आदेश वेद भी देता है, परन्तु बहुत अधिक धन कमाने के लिए मनुष्य बेईमानी का सहारा लेता है, जो धर्म, विधि और नैतिक दृष्टि से सवर्था अनुचित है। उससे झूठी प्रशंसा तो मिल सकती है, परन्तु मन की शान्ति छिन जाती है। इस संदर्भ में कवि रहीम का यह दोहा सटीक और प्रत्येक के लिए सामायिक है ‘रहिमन इतना दीजिए जा में कुटम्ब समाय, मैं भी भूखा न रहूं साधू भी भूखा न जाये। ‘