मैंने सुना है, एक सम्राट अपने कारागृह में गया। उसका जन्मदिन था, और कैदियों को कुछ मिठाई बांटने गया था। और हर कैदी ने कहा कि मै बिलकुल निर्दोष हूं महाराज! जालसाजी है, मुझे फंसा दिया गया। यह अपराध झूठा था, गवाह झूठे थे। यह सब अन्याय हो गया है। मुझे मुक्त करो। हर कैदी ने यही कहा।
आखिरी कैदी के पास सम्राट पहुंचा और कहा कि तेरा क्या खयाल है? तू भी शुद्ध है? तू भी निर्दोष है क्या?
उस आदमी ने कहा कि नहीं महाराज, मैं चोर हूं और मैंने चोरी की थी। और ठीक न्याययुक्त ढंग से मेरा मुकदमा चला। और जिन्होंने गवाही दी, उन्होंने ठीक ही गवाही दी। और अदालत ने जो फैसला किया, वह उचित है। जितना मेरा पाप था, उसके अनुकूल मुझे दंड मिला है।
सम्राट ने अपने आदमियों को कहा कि इस शैतान को फौरन जेलखाने के बाहर करो। थो दिस क्रुक आउट आफ दि जेल।
सारे कैदी चिल्लाने लगे कि यह क्या अन्याय हो रहा है? यह आदमी अपने मुंह से कह रहा है कि मैं चोर हूं और मुझे ठीक ही हुआ कि दंड मिला, और हम चिल्ला—चिल्लाकर कह रहे हैं कि हम निर्दोष हैं, और इस दोषी को जिसने खुद स्वीकार किया, उसको आप बाहर करते हैं!
तो उस सम्राट नै कहा, उसका कारण है। अगर इस शैतान को हम बाहर नहीं करते, तो तुम सब निर्दोष आत्माओं को यह खराब कर देगा।
जब कोई चोर भी इतना खुला हो जाता है, और सहज कह देता है भीतर—बाहर एक, तो परमात्मा आप निर्दोष आत्माओं को बचाने के लिए उसको तत्काल अलग कर देता है। नहीं तो वह आपको खराब कर दे। ऐसे शैतान को यहां नहीं बचने दिया जाता।
आप क्या हैं, यह सवाल नहीं है। अगर आप एकरस अभिव्यक्त हो जाते हैं, जैसे हैं, तो इस जगत में आपके लिए फिर कोई जगह नहीं है। फिर परमात्मा के हृदय में ही आपके लिए जगह है।
दक्ष, जिस काम के लिए आया था, उसे पूरा कर चुका.।
वह जो मैं कह रहा था, उसी काम के लिए प्रत्येक व्यक्ति आया है कि वासनाओं में उतरकर जान ले कि व्यर्थ हैं। आकांक्षा करके देख ले कि जहर है। संसार में उतरकर देख ले कि आग है। इसी काम के लिए प्रत्येक व्यक्ति आया है। और अगर यही काम आप नहीं कर पा रहे हैं, यह अनुभव नहीं कर पा रहे हैं, तो आप दक्ष नहीं हैं। और जो भी दक्ष हो जाता है, वह परमात्मा के लिए प्रिय है।
पक्षपात से रहित, सब दुखों से छूटा हुआ, सर्व आरंभों का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
आरंभ का अर्थ है, जहां से वासना शुरू होती है। अगर वासना छोड़नी है, तो बीच में नहीं छोड़ी जा सकती, अंत में नहीं छोड़ी जा सकती, प्रारंभ में ही छोड़ी जा सकती है।
आप रास्ते से गुजरे और एक मकान आपको लगा, बहुत सुंदर है। अभी आपको खयाल भी नहीं है कि वासना का कोई जन्म हो रहा है। आप शायद सोच रहे हों कि आप बड़े सौंदर्य के पारखी हैं, बड़ा एस्थेटिक आपका बोध है, इसलिए मकान आपको सुंदर लग !? रहा है। लेकिन यह आरंभ है। जो मकान सुंदर लगा, उसके पीछे थोड़ी ही देर में दूसरी बात भी लगेगी कि कब मेरा हो जाए।
आरंभ हमेशा छिपा हुआ है, पता नहीं चलता। आप कहते हैं, एक स्त्री जा रही है, कितनी सुंदर है! और आप सोचते होंगे कि चूंइक आप बड़े चित्रकार हैं, बडे कलाकार हैं, इसलिए। लेकिन। जैसे ही आपने कहा, कितनी सुंदर है, थोड़ी खोज करना, भीतर ! छिपी है दूसरा वासना, कैसे मुझे उपलब्ध हो जाए!
यह आरंभ है। अगर इस आरंभ में ही नहीं चेत गए, तो वासना पकड़ लेगी। इसलिए सर्व आरंभ का त्यागी। जहां—जहां से उपद्रव शुरू होता हो, उस उपद्रव को ही पहचान लेने वाला, और वहीं त्याग कर देने वाला। अगर वहां त्याग नहीं हुआ, तो मध्य में त्याग नहीं हो सकता। मध्य से नहीं लौटा जा सकता।
कुछ चीजें हैं, हाथ से तीर की तरह छूट जाती हैं, फिर उनको लौटाना मुश्किल है। जब तक तीर नहीं छूटा है और प्रत्यंचा पर सवार है, तब तक चाहें तो आप लौटा ले सकते हैं।
आरंभ का अर्थ है, जहां से तीर छूटता है।
सब आरंभ का त्यागी परमात्मा को प्रिय है।
आज इतना ही।
ओशो