आपका संदेश घर-घर पहुंचाना चाहता हूं कैसे करूं, सुनें ओशो ने क्या कहा?
🔴 प्रश्न:– ओशो! मैं आपका संदेश घर-घर, हृदय-हृदय में पहुंचाना चाहता हूं पर लोग बिलकुल बहरे हैं, अंधे हैं। मैं क्या करूं? जो पाया है उसे पाकर न बांटू? यह भी संभव नहीं है। उसे बांटने की भी तो एक अपरिहार्यता है।
🌰 ओशो:- “कृष्ण देव! निश्चय उसे बांटने की अपरिहार्यता है, उससे बचा नहीं जा सकता। उसे बांटना ही होगा। उसे रोकने का कोई उपाय ही नहीं है। बादल जब भर जाएंगे जल से तो बरसेंगे ही और फूल जब खिलेगा तो सुगंध उड़ेगी ही और दीया जब जलेगा तो प्रकाश विकीर्ण होगा ही।
बांटना तो पड़ेगा, लेकिन बांटने में शर्तबंदी न करो। क्या फिक्र करना कि कौन बहरा है, कौन अंधा है? आखिर अंधे को भी तो आंख देनी है न, और बहरे को भी कान देने हैं न! ऐसे देख-देखकर चलोगे कि आंख वाले को देंगे तो आंख वाले को तो जरूरत ही नहीं है; वह तो खुद ही देख ले रहा है।
और उसको ही देंगे जो सुन सकता है… जो सुन सकता है उसने तो सुन ही लिया होगा, वह तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठेगा?
आंख है जिसकी खुली हुई उसने देख लिया। कान हैं जिसके पास सुनने के, उसने सुन लिया नाद। वह तुम्हारी राह थोड़े ही देखेगा कि तुम जब आओगे तब सुनेगा। उसकी बासुरी तो बज गई, उसकी रोशनी तो जल गई।
अंधे और बहरों को ही जरूरत है। इसलिये यह मत सोचे कि अंधे-बहरे लोग हैं, इनको कैसे दें? इनको ही देने में मजा है। इन्हीं को देने में कला है। इन्हीं को देने की चेष्टा में तुम्हें नये -नये उपाय खोजने पडेंगे, नई भाषा, नई भाव- भंगिमाएं खोजनी पड़ेगी।
और इन्हीं को देने में तुम विकसित भी होओगे; क्योंकि जो मिला है इसका कोई अंत थोड़े ही है। जितना बाटोगे उतना और मिलेगा। जितना लुटाओगे उतना और पाओगे।
फिक्र छोड़ो, शर्तबंदी छोड़ा। जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से : चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर चिल्लाओ। लोग बहरे हैं, चिल्लाना पड़ेगा। झकझोरो, लोगों को जगाओ। लोग सोये हैं।
और जब तुम झकझोरोगे सोये हुए लोगों को, तो वे नाराज भी होंगे, गालियां भी देंगे। कौन जागना चाहता है सुखद नींद से! और नींद वाले को पता भी क्या कि जागने का मजा क्या है! पता हो भी कैसे सकता है? वह क्षम्य है अगर नाराज हो।
और बहरा अगर न माने नाद के अस्तित्व को, तो तुम क्रुद्ध मत हो जाना। वह मानेगा तो उसका मानना झूठ होगा। और झूठे मानने से कोई क्रांति नहीं होती। उसके न मानने से टकराना। उसके न मानने को काटना, इंच-इंच तोड़ना। उठाना छैनी और उसके पत्थर को काटना। जन्म से कोई भी बहरा नहीं है और जन्म से कोई अंधा नहीं है।
मैं आध्यात्मिक अंधेपन और बहरेपन की बात कर रहा हूं। जन्म से सभी लोग आध्यात्मिक आखें और आध्यात्मिक कान लेकर पैदा हुए हैं, क्योंकि आत्मा लेकर पैदा हुए हैं। समाज ने कानों को बंद कर दिया है, रुद्ध कर दिया है। कानों में रुई भर दी है-शास्त्रों की, शब्दों की, सिद्धातों की।
आखों पर पट्टिया बौध दी हैं, जैसे कोल्हू के बैल या तांगे में जुते घोड़े की आंख पर पट्टी बांध देते हैं। ऐसी पट्टिया बांध दी है। कोई अंधा नहीं है, कोई बहरा नहीं है।
जरा तुमने अगर प्रेमपूर्ण मेहनत की तो पट्टिया उतारी जा सकती हैं। फुसलाना होगा। जरा तुमने अगर मेहनत की तो उनके कानों से रुई निकाली जा सकती है। मगर एकदम से वे तुम्हारी बात मानने को राजी नहीं होंगे।
जल्दी भी क्या है? परमात्मा के काम में जल्दी की जरूरत भी नहीं है। उसकी मर्जी होगी तो तुम से काम ले लेगा। उसकी मर्जी होगी तो तुमसे किन्हीं को गवा लेगा, किन्हीं की आखें खुलवा लेगा और उसकी मर्जी नहीं होगी तो तुम्हारी चिंता क्या है? तुम्हारी खुल गई, यही क्या कम है!
“तुम बहते जाना, बहते जाना, बहते जाना भाई!”
“तुम शीश उठा कर सरदी-गरमी सहते जाना भाई!”
सब यहां कह रहे हैं रो-रो कर अपने दुख की बातें!
तुम हंसकर सब के सुख की बातें कहते जाना भाई! फिक्र न करना। तुम्हारे भीतर जो हुआ है उसे कहे जाओ, कहे जाओ। कोई सुने तो, कोई सुने न तो, कोई चिंता नहीं; कोई न देखे तो। तुम बांटते रहो।
सौ में से अगर एक ने भी देख लिया और सौ में से अगर एक ने भी सुन लिया तो तुम धन्यभागी हो। उतना ही बहुत है। तुम्हारा श्रम सार्थक हुआ। कृष्णदेव! बांटना अपरिहार्य है। शर्तबंदी छोड़ दो। पात्र-अपात्र का विचार न करो। यह पात्र-अपात्र का विचार न करो। यह पात्र-अपात्र का विचार ही बाधा बन जाता है। लोग सोचते हैं, पात्र को देंगे।
फिर पात्र मिलता नहीं। क्या पात्र, क्या अपात्र? तुम जिसको दोगे वही पात्र बन जायेगा। तुम देते ही जाना भाई!”
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