हमारा इटावा जिला प्रगतिशील माना जाता है। वैसै मेरा जिला औरैया है परंतु आज भी हम लोग इटावा की पहिचान से निकल नहीं रहे हैं जैसै प्रयागराज होते हुये भी अधिकांश की पहिचान आज भी इलाहाबादी ही है।
मैंने अपने क्षेत्र को प्रगतिशील ही देखा है। यहाँ लोगों में सामाजिक समरसता है। प्रत्येक जाति -वर्ग की एक दूसरे के सामाजिक -सांस्कृतिक कार्यक्रमों में होती है। पंगत भी सिर्फ वाल्मीकि समाज की छोडकर किसी और की अलग नहीं लगती है, शायद भविष्य में वो भी दूर हो जाये। जबकि प्रदेश के पूर्वांचल के हिस्सों में गैर सवर्णों के साथ, आज भी पुरातन व्यवहार की कुछ घटनायें दर्ज दिखती हैं।
हमारे यहाँ सांप्रदायिकता भी न के बराबर देखने को मिलती है। तीज -त्योहार पर तो कुछ मुसलमान अपने से वरिष्ठ हिंदूओ के पैर भी बडी सहजता के साथ छूते हैं। इस क्षेत्र की नयी पीढी तो एकदम जाति और धर्म की पहिचान से परे होकर मित्रता करने और निभाने में सहेज दिखती है। औरैया और इटावा ये दोनों ही जिले प्रदेश की साक्षरता रैंक में प्रथम पाँच में जगह बनाये हुये हैं,इसकी माटी और मानस सामाजिक समावेशन में सक्रिय दिखती है।
पितृसत्तात्मक समाज होते हुये भी स्त्री शिक्षा और आत्मनिर्भरता की दिशा में यहाँ का समाज बेहद सक्रिय और सहज है। मैं ये कह सकता हूँ बेहद मिलनसार और एक प्रगतिशील क्षेत्र है ,प्रदेश का ये हिस्सा। जाति कभी मैत्री संबधो में ज्यादा बाधक नहीं सिद्ध हुई है जितना पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल के क्षेत्रों में देखने को मिलती है।
दोस्ती और व्यवहार में अधिकांश लोग जाति नहीं सिर्फ व्यक्ति देखते हैं। एक बार यदि मित्रता हो जाये तो उसे निभाते भी बेहद निष्ठा से हैं। यहाँ कभी कोई गैर सवर्ण या अनुसूचित जाति का दूल्हा घोडी से नहीं उतारा गया, किसी दलित व्यक्ति को मूँछे रखने पर अपमानित नहीं किया गया। गाँव में कोई बारात निकलती है तो सवर्णों के दरवाजे के आगे बैंड बंद नहीं कराया जाता है, बल्कि सवर्ण भी उसका गाँव की बारात समझकर ही स्वागत करते हैं।
ऐसे में इटावा के दादरपुर जैसी घटनाया इस क्षेत्र में हो जाना बहुत दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण हैं। इसने न सिर्फ इस क्षेत्र की साख पर बट्टा लगाने का काम किया है बल्कि पूरे समाज को ही अंदर से हिला कर रख दिया है। मेरी व्यक्तिगत बातचीत में भी तमाम सवर्णों ने उसका विरोध किया है। तमाम ब्राहमणों का भी ये मानना रहा आज के समय में ऐसी घटनायें ये हमारे समाज को कमजोर और अंदर से खोखला करती हैं। इसलिये इसकी जितनी निंदा की जाये उतना कम है।
वैसै भी व्यास पीठ पर हर उस वर्ग को बैठने का अधिकार है जो व्यास जी और भागवत कथा में आस्था और व्याख्या का ज्ञान रखता है। व्यास जी स्वयं ब्राह्मण जाति से नहीं थे तो उनका प्रतिनिधित्व करने वाले सिर्फ ब्राह्मण या सवर्ण ही कैसै हो सकते हैं ?? जिसकी सनातन में आस्था है वह इसका हकदार है,वैसै भी हिंदू धर्म के मूल में वर्ण व्यवस्था है और इस वर्ण व्यवस्था की यदि स्पष्ट व्याख्या की जाये तो जो व्यक्ति का व्यवसाय है वही उसकी जाति है।
जन्मना जाति, वर्ण के मूल के विरुद्ध है,इसलिये जाति के आधार पर भेदभाव भी हिंदू धर्म के विरुद्ध है। और यदि किसी को किसी के व्यवसाय या रूचि के प्रति आपत्ति है तो वह उससे शास्त्रार्थ करे। हिंदू धर्म संवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा को मानने वाला रहा है।
तालिबानी जैसी संस्कृति का कृत्य तो सनातन के मूल में ही नहीं है और ना ही ब्राह्मण होने की चेतना में। ब्राह्मण कहकर यह धृत कार्य शोभा ही नहीं देता है। ब्राह्मण यानि शास्त्रार्थ ,ज्ञान और संवाद को मानने वाला व्यक्ति। ब्राह्मण वर्ग समाज का लंबे समय तक बौद्धिक और धार्मिक प्रतिनिधित्वकर्ता रहा है। आज जो भी हिंदू धर्म के अनुयायियों में सामाजिक सुधार हुये हैं उनमें ब्राह्मण प्रमुखता से शामिल रहा है। फिर चाहे वो जाति प्रथा हो, विधवा पुनर्विवाह हो या नारी सशक्तिकरण।
समाज का बौद्धिक वर्ग होने के नाते ब्राह्मणों की जिम्मेदारी समाज को बेहतर और समावेशी बनाने की है ना कि हिंदू समाज को जाति के आधार पर अलग देखने की। जाति की रेखा पाटकर ही हिंदू एकता और सशक्त हिंदुस्तान की पटकथा लिखी जा सकती है, अन्यथा हम नारंगी की तरह दिखेंगे जिसपर धर्म का बाह्य कलेवर तो होगा पर थोडा भी दबाव पडते ही यह अलग-अलग फाँकों में विभाजित दिखेगा।
पूर्ववर्ती बाह्य शक्ति भी हम पर शासन इसी आपसी विभाजन की वजह से करने में सफल हुईं थीं। इसलिये आपसी एकता,समन्वय और सम्मान न सिर्फ धर्म के लिये आवश्यक है बल्कि एक मजबूत राष्ट्र के लिये भी अनिवार्य है।
-अक्षय भट्ट
सामाजिक-राजनीतिक, टिप्पणीकार।
प्रयागराज ।