डाॅ डी एम मिश्र को उनकी प्रखर जनधर्मी ग़ज़लों के लिए अधिक जाना जाता है। हिन्दी ग़ज़ल की सुदीर्घ परम्परा में उन्हें दुष्यंत, शलभ, अदम, कृषक, सुगम आदि के साथ स्थान प्राप्त है। देश के इलेक्ट्रोनिक मीडिया में अक्सर इनके व्यंग्यपूर्ण और चुटीले शेर खूब सुने और चर्चित रहते हैं तथा वे विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर भी निरंतर बने रहते हैं। बरसों से उनके शेर समकालीन सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भों में जनता की मुखर आवाज बनकर गूंजते रहते हैं।
अपनी ग़ज़ल-यात्रा में अब तक उनके छह ग़ज़ल संग्रह- उजाले का सफर, रोशनी का कारवाँ, आईना-दर-आईना, वो पता ढूँढे हमारा, लेकिन सवाल टेढ़ा है और समकाल की आवाज प्रकाशित हो चुके हैं । यह संग्रह ‘चुने हुए शेर’ नाम से, डाॅ डी एम मिश्र के सभी ग़ज़ल संग्रहों से चुनकर उत्कृष्ट 550 शेरों का संग्रह उनकी रचनात्मकता को विस्तार से समझने के ध्येय से तैयार किया गया है।
इस संग्रह के शेरों से गुजरते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि डाॅ डी एम मिश्र अवाम के सुख दुःख के ग़ज़लकार तो हैं ही, उनके संघर्ष में उनकी ओर से पैरवी भी करते हैं और उनके साथ संघर्षरत भी रहते हैं। एक जनवादी ग़ज़लकार के रूप में उनकी कवि-दृष्टि और सरोकार इन कुछ शेरों से उजागर हो जाते हैं-
प्राणों में ताप भर दे वो राग लिख रहा हूँ
मैं प्यार के सरोवर में आग लिख रहा हूँ
ग़ज़ल मेरी ताक़त, ग़ज़ल ही जुनूँ है
जो गूँगे थे उनकी जुबाँ बन गया मैं
किसी रचनाकार के लेखन की सार्थकता भी यही है कि उसके शब्द गूँगी और बेबस अवाम की जुबान बनकर गूंजने लगें। यहाँ ग़ज़लकार ने अपने जीवन के अनुभवों से जाना है कि वर्तमान समाज जड़ और असमान सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थितियों में संलिप्त है और वही उसके दुखों का मूल कारण है।तभी वे प्रश्नाकुल होकर सत्ता से सवाल करते हैं-
जनता ने तो चाहा था लेकिन परिवर्तन कहाँ हुआ
चेहरे केवल बदल गये , पर कहाँ भ्रष्ट सरकार गई
और-
तुम्हारी फ़ाइलों में दर्ज क्या है वो तुम्हीं जानो
लगे हैं ढेर मलवे के यहाँ टूटे सवालों के
लेकिन जहाँ टूटे सवालों के ढेर लगे हों वहाँ लोकतंत्र, न्याय और शान्ति,का क्या अर्थ है। वे जानते हैं कि आज शासक वर्ग बहुत चालाक हो गया है और देश में बढ़ती अराजकता और व्यवस्थागत असंतुलन के लिए वही जिम्मेदार हैं। आम आदमी आज भी पिछले अनेक सालों से यूँ ही दुःख भोगते – भोगते उदासीन हो गया है-
तेरे जुल्मो-सितम से अब तनिक भी डर नहीं लगता
तेरे ख़ंजर से मेरे खून का रिश्ता पुराना है
विकासवाद के तथाकथित दौर में हमारे समाज में बढ़ती इस आर्थिक असमानता से समाज में एक बड़ी खाई निर्मित हो रही है। ग़ज़लकार की चिंता है कि ऐसे में कोई भी समाज कैसे तरक्की कर सकता है, जिसमें लोगों का जीना दूभर हो रहा हो, मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी सभी त्रस्त हों, वहां तरक्की के खोखले दावों के क्या मायने हो सकते हैं-
देश की धरती उगले सोना वो भी लिखो तरक़्क़ी में
आधा मुल्क भूख में सोता वो भी लिखो तरक़्क़ी में
उदाहरण के लिए आज भी गाँवों में हमारा अन्नदाता किसान अपना खून-पसीना एक कर अन्न उपजाता है, किन्तु हर समय अभावों में अपना जीवन व्यतीत करता है। कवि ने उनके इस त्रासद जीवन का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है-
मैं जहाँ जाता हूँ मेरे साथ जाती है ग़रीबी
मेरे दामन से लिपटकर मुस्कराती है ग़रीबी
गॉव में रहना कोई चाहे नहीं
धूप में जलना कोई चाहे नहीं
सरकार चेत जाइये, डरिये किसान से
बिजली न कहीं फाट पड़े आसमान से।
इसी तरह मजदूर वर्ग की जीवन स्थितियां वैसी ही दयनीय बनी हुई हैं। इस स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कवि कहता है-
ज़ुल्म और अन्याय सहने के लिए मजबूर था
कर भी क्या सकता था वो बाहैसियत मज़दूर था।
विडम्बना यह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूर की इस जुल्म और अन्याय की स्थिति में कहीं कोई सुधार नहीं हुआ है-
विरासत में मिला था बाप दादाओं से जो उसको
अभी तक वो बिछौना है, वही कंबल पुराना है
दूसरी ओर भूमंडलीकरण के आक्रमण ने बाजारवाद के द्वारा हमारे सामाजिक सांस्कृतिक जीवन को यूँ तहस-नहस कर दिया है-
कहीं छलकते हैं सागर तो कहीं प्यास ही प्यास
तेरे निज़ाम में इतनी बड़ी कमी क्यों है
बड़ी शिद्दत से लिखा गज़ल का यह मतला हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को यूँ कटघरे में ला खड़ा कर देता है-
वोटरों के हाथ में मतदान करना रह गया
दल वही, झंडे वही कांधा बदलना रह गया
आज व्यवस्था के रग-रग में फैले भ्रष्टाचार ने हमारे पूरे समाज को बीमार और अपाहिज बना दिया है। आज न्याय आम आदमी की पहुँच से दूर हो गया है। कवि यह सत्य जान गया है कि विरोधी चेतना और प्रतिरोध के अभाव के कारण ही आम जनता पर निरंतर ये अत्याचार बढ़ रहे हैं-
सुनता नही फ़रियाद कोई हुक्मरान तक
शामिल है इस गुनाह में आलाकमान तक
आज न केवल आलाकमान बल्कि सत्ता की प्रत्येक सीढ़ी पर भ्रष्टता बैठा है। देश की इस पतनशील व्यवस्था की ओर इशारा करता उनका यह शेर यहाँ गौरतलब है-
गांव की ताज़ी चिड़िया भून के प्लेट में रखी जाती है
फिर गिद्धों की दावत चलती पुरुषोत्तम के कमरे में
ग़ज़लकार इसी फैलते असमान समाज के कारण तलाशता है। वह पाता है कि यही असमानता शोषण और बढ़ती अमानवीयाता की जननी है। सम्पन्नवर्ग का विपन्न समाज के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता पर चोट करता उनका ये शेर यहाँ विचारणीय है-
स्वप्ननगरी के लिए मेरी ज़मीनें छिन गयीं
छप्परों की क़ब्र पर अब इक शहर था सामने।
महानगर में विस्थापन की भीषण समस्या है। यहाँ असंख्य लोग जिंदगी भर फुटपाथ पर गुजार देते हैं। महानगरीय जीवन में आवास की समस्या पर लिखा यह मार्मिक शेर देखें-
किसी फ़़ुटपाथ पर जीना , किसी फ़ुटपाथ पर मरना
कहाँ जाये न इसके घर ,न कोई आशियाना है।
बाजार अर्थात लूटतंत्र में वे सत्ता, व्यापारी और भ्रष्ट नौकरशाह के त्रिकोण को न केवल जिम्मेदार मानते हैं बल्कि लोकतंत्र के लिए आता खतरा भी मानते हैं। राजनीतिक स्वार्थ हेतु राष्ट्रीयता, संस्कृति व देशभक्ति का प्रचार किया जाता है, वहीं सरहद पर असंख्य सैनिक मारे जा रहे हैं। इस अंधराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता पर उन्होंने गहरी चोट की है –
मौत का मंज़र हमारे सामने था
थरथराता डर हमारे सामने था
सत्तालोलुपता और छल आज की राजनीति का स्वभाव बन गया है। इसीलिए सरकार चुनने के लिए हमारी चुनाव व्यवस्था में अनेक खामियों उभर आई हैं।उन पर कवि की नजर जाती है-
फिर चुनाव की मंडी में मतदाताओं का दाम लगा
फिर बिरादरीवाद चला एकता देश की हार गई
राजनेताओं के चुनावी वादों को सुन-सुन कर जनता का अब मोहभंग हो चुका है। आज नेता हमें गुमराह करते हैं। वे कहते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं-
हमें गुमराह करके क्या पता वो कब निकल जाये
बड़ा वो आदमी है क्या ठिकाना कब बदल जाये
मिश्र जी के शेरों में वर्तमान भ्रष्ट और विसंगत राजनीति की चीरफाड़ अधिक मिलती है। वे राजनीति के इस घिनौने खेल का व्यंग्य की शैली में बार-बार पर्दाफाश करते हैं-
गाँवों का उत्थान देखकर आया हूँ
मुखिया का दालान देखकर आया हूँ
लेकिन साथ ही गाँव की जनता की उदासीनता पर तंज करते हुए उन्हें उकसाते भी हैं-
मगर हुआ इस बार भी वही हर कोशिश बेकार गई
दाग़ी नेता जीत गये फिर भेाली जनता हार गई
जनता के दुःख दर्द के प्रति नेताओं का उपेक्षा भाव कवि को कचोटता है-
देश के हालात मेरे बद से बदतर हो गये
जो मवाली,चोर,डाकू थे मिनिस्टर हो गये ।
विकास के नाम से जो दिखावा हो रहा है और आदमी के जीवन स्तर में सुधार नहीं हो रहा तब कवि कहता है-
भूखें हैं लोग बात सितारों की हो रही
फसलें हमारी और हैं सपने हमारे और
अथवा यह कि-
कौन कहता है कि वो फंदा लगा करके मरा
इस व्यवस्था को वो आईना दिखा करके मरा
आज का नौजवान इसी उम्मीद से पढ़ता लिखता है कि उसे नौकरी मिलेगी और वह बड़ों का सहारा बनेगा लेकिन बेरोज़गारी धीरे से उसे दिशाहीन और हताश बना देती है-
सुबह से शाम तक जो खेलते रहते हैं दौलत से
उन्हें मालूम क्या मु़फ़लिस की क्या होती है दुश्वारी
आज की संवेदनहीन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करता ये शेर पूरे देश के कर्णधारों और जिम्मेदारों की ओर उछाला गया है-
किसी गरीब की इमदाद कौन करता है
ख्याल नेक है लेकिन सवाल टेढा है
बाजार और पूंजीवाद की बढ़ती निर्ममता के माहौल में देश का न्यायतंत्र, पत्रकारिता और मीडिया केवल मूकदर्शक की तरह खड़े नजर आ रहे हैं। इसकी वजह से जीवन की सहजता, रसमयता और आत्मीयता नष्ट हो रही है। आत्मीय सम्बंधों के बीच जब धन या स्वार्थ घर कर जाये तब उस समाज का क्या हश्र होगा? कल्पना की जा सकती है। धनसंस्कृति के इस दौर में आज आत्मीय सम्बन्धों का महत्व नहीं के बराबर रह गया है। ऐसे में प्रेम से जुडे उनके शेर बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं-
जाड़े की सुबहें थीं , धूप के गलीचे थे
बचपन के ख़्वाबों में रेत के घरौंदे थे
यही प्रेम हमें क्रान्ति और परिवर्तन की प्रेरणा देता है। तभी तो उनका यह शेर उनके सम्पूर्ण काव्य-व्यक्तित्व का आइना बन कर उन्मुक्तता से बतलाता है-
खिली धूप से सीखा मैंने खुले गगन में जीना
पकी फसल में देखा मैंने खुशबूदार पसीना
कवि की यही उन्मुक्तता उसकी शक्ति बनता है, स्वभाव बनता है। तभी तो कवि दमनकारी शक्तियों पर जोरदार चोट करते हुए नहीं डरता और गुस्सा का इजहार करता है-
ज़ु़ल्म से लड़ने को उसके पास क्या हथियार था
कम से कम गुस्सा तो वो अपना दिखा करके मरा
अच्छा शेर सहज भाव, स्पष्ट भाषा और उपयुक्त छंद के सम्मिलन का नाम है। मिसाल के तौर पर-
है ज़माने को ख़बर हम भी हुनरदारों में हैं
क्यों बतायें हम उन्हें हम भी ग़ज़लकारों में है
यहाँ तक कि समाज में बढ़ते अत्याचार के लिए कवि स्वयं कवि-समाज को जिम्मेदार ठहराता है, क्योंकि वह इस स्थिति के सामने मूक दर्शक बना रहता है।अपने सरोकारों के प्रति उनकी यह आत्मस्वीकृति उन्हें सचमुच एक बड़ा कवि बनाती है-
कत्ल कल्लू का हुआ तब, मूकदर्शक हम भी थे
हमको क्यों माफ़ी मिले , हम भी गुनहगारों में हैं
आतंकवाद भारत की ही नहीं विश्व की समस्याओं में से एक हैं । चारों ओर घृणा और द्वेष बढ़ता जा रहा है-
पुरख़तर यूँ रास्ते पहले न थे
हर कदम पर भेड़िये पहले न थे
इन्सानों को सबसे ज्यादा ख़तरा इन्सानों से है
हँसकर खूब मिले तो समझो साजिश कोई गहरी है
आज धर्म अनेक तरह की विकृतियों का शिकार हो गया है। उसे स्वार्थ का साधन बना दिया गया है
इस अशांत और भयपूर्ण समय में जब हिंसा ,साम्प्रदायिकता अलगाववाद और आतंकवाद से हमारा देश जूझ रहा है और जिससे इसका विकास अवरुद्ध है, आपसी एकता और सद्भाव बहुत आवश्यक है और यह प्रेम और सहिष्णुता से ही संभव है-
चूंकि इन शेरों का मुख्य ध्येय व्यवस्था परिवर्तन है, अतः वे इन शेरों को परिवर्तन का अस्त्र बनाना चाहते हैं। इसके लिए वे मध्यवर्ग की काहिली पर भी भरपूर प्रहार करते हैं-
बुझे न प्यास तो फिर सामने नदी क्यों है
मिटे न धुंध तो फिर रोशनी हुई क्यों है
वे इस भ्रष्ट व्यवस्था को समाप्त करना एक चुनौती की तरह स्वीकार करते हैं-
आवाज़ों को सुनसानों तक ले जाने दो
कुछ पानी रेगिस्तानों तक ले जाने दो
साहस और हिम्मत का संदेश देता उनका यह शेर उल्लेखनीय है-
आग का जो दरिया देखा तो पहले डर से काँप उठा
मगर तैर कर पार गया तो आगे मानसरोवर था
यह बहुत बड़ी बात कही है कि जो माँ-बाप अपने संरक्षण में चलना नहीं सिखाते हैं, वे बच्चे रास्ते भटक जाते हैं और लड़खड़ाते रहते हैं-
हरेक बात का उत्तर वो हाँ में देता है
अजीब चीज़ ज़माने में जी – हुज़ूरी है
जब-जब धर्म के उदात्त स्वरूप का क्षरण होता है, तब-तब राजनीति ने इसका दुरुपयोग किया है, इसे समझते हुए कवि आपसी भाईचारे और मानवता की रक्षा के लिए आह्वान करता है क्योंकि आपसी एकता और सद्भाव, प्रेम और सहिष्णुता से ही यह संभव है-
इसीलिए उन्होंने अपनी शेरों के माध्यम से साझा संस्कृति व भाई चारे की भावना को प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया है-
नम मिट्टी पत्थर हो जाये ऐसा कभी न हो
मेरा गाँव, शहर हो जाये ऐसा कभी न हो
आज जो चारों ओर साम्प्रदायिकता, विद्वेष, हिंसा और आतंक का वातावरण बना है, वह कवि को प्रश्नाकुल करता है-समरसता, एकता और सहिष्णुता का संदेश देता उनका यह शेर बहुत मार्मिक है-
उनके अनेक शेर पढ़ने के बाद लगा कि उनकी बस यही कामना है कि-
कविता ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है, इसी मनुष्यता या संवेदना को लेकर कवि प्रश्न करता है-
कविता में तेरी छंद- अलंकार बहुत हैं
कविता में आदमी की मगर पीर कहाँ है
दर्द से रिश्ता कभी टूटा नहीं
पीर को संवेदना तक ले गया
ख़्वाब सबके महल बंगले हो गए
ज़िन्दगी के बिम्ब धुंधले हो गए
कवि अपनी अभिव्यक्ति को धार देने के लिए तगज्जुल या कहन को सर्वोपरि मानता है-
ग़ज़ल कहने चले हो तो तग़़ज्ज़ु़ल भी ज़रूरी है
ग़ज़ल में बस मिला दें क़ाफ़िया ऐसा नहीं होता
उनकी यह टिप्पणी भी बड़ी मार्मिकता से आई है। मनुष्य का आत्मसम्मान उसके जीवन से अधिक कीमती होता है। इसके लिए वह मरने मारने पर उतारू हो जाता है-
मिट्टी का जिस्म है तो ये मिट्टी में मिलेगा
एहसास हूँ मैं कौन मुझे दफ़्न करेगा
व्यंग्य के पुट ने उनके इस शेर को और भी प्रभावपूर्ण बना दिया है-
फूल तोड़े गये टहनियाँ चुप रहीं
पेड़ काटा गया बस इसी बात पर।
मिश्र जी का आक्रोश इन शेरों में और मुखर होकर उतरा है । इनका आवेग इनकी गहरी संवेदनशीलता का परिचायक है। कभी-कभी ये जनता की सोई चेतना को झिंझोड़ देते हैं। दरअसल ये शेर पूरे आत्मविश्वास के साथ लिखे गए हैं। इसीलिए ये उनकी संघर्ष-चेतना के पुख्ता सबूत देते हैं –
अँधेरा है घना फिर भी ग़ज़ल पूनम की कहते हो
फटे कपड़े नही तन पर ग़ज़ल रेशम की कहते हो
दाना डाल रहा चिड़ियों को मगर शिकारी है
आग लगाने वाला पानी का व्यापारी है ।
यह एक सशक्त ग़ज़ल है क्योंकि इसमें धारदार व्यंग्य के साथ संवाद का जो निर्वहन हुआ है वह बेजोड़ है। एक अन्य जगह वे कहते हैं-
ग़ज़ल ऐसी कहो जिससे कि मिट्टी की महक आये
लगे गेहूँ में जब बाली तो कंगन की खनक आये
श्रम और सौंदर्य का अद्भुत मेल उनके अनेक शेरों में देखने को मिला है। बानगी देखें-
बोझ धान का लेकर वो जब हौले हौले चलती है
धान की बाली कान की बाली दोनों संग संग बजती है
दरअसल डॉ. मिश्र ऐसी कविता को कविता बिल्कुल नहीं मानते जो जनता को जगाती न हो और सत्ता को उकसाती न हो। यहाँ इन शेरों में उनका जनता से जुड़ाव भी है, यथार्थ की उपस्थिति भी और संघर्षचेतना की उर्जा भी है। ग़ज़ल की सामर्थ्य और सार्थकता पर यकीन करते हुए वे घोषित करते हैं-
अब ये गजलें मिजाज बदलेंगीं
बेईमानों का राज बदलेंगी
मुझे यकीन है सूरज यहीं से निकलेगा
यहीं घना है अंधेरा यहीं पे चमकेगा।
जीवन की अदम्य जिजीविषा की उद्घोषणा करता उनका यह शेर, संग्रह का चमकता ध्रुव-शेर बन पड़ा है-
कभी लौ का इधर जाना , कभी लौ का उधर जाना
दिये का खेल है तूफ़ान से अक्सर गुज़र जाना
अपने जीवन संघर्षों में उन्होंने आस्था और आशावाद को सदैव साथ में रखा है। इस आशाहीन समय में भी ये गजलें उम्मीद का एक सिरा खोज ही लेती हैं। अपने संघर्षपूर्ण जीवन में उन्होंने सदैव आस्था और आशा की तलाश की है, क्योंकि वे मानते हैं कि यही संघर्ष में शक्ति के रूप में साथ रहती है-
लंबी है ये सियाह रात जानता हूँ मैं
उम्मीद की किरन मगर तलाशता हूँ मैं
अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है
मेरे कमरे का रोशनदान तब भी जगमगाता है।
उपर्युक्त शेरों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि डॉ. मिश्र जी की अनुभूति और चिन्तन की जड़ें अपने परिवेश से जुडी हैं। उन्होंने इन शेरों में अपने परिवेश को बड़ी ईमानदारी और गहराई से चित्रित किया है। उनके शेर उनके अनुभवों की चित्रशाला है। इस तरह उनके ये शेर आज के यथार्थ और भोगे हुए कडुए सत्य को उद्घाटित करने वाले जीवन्त चित्र बन गये हैं। उन्होंने अपने समय की संवेदना को काव्य-संवेदना में तब्दील कर इन शेरों में ढाला है।
इनके शेर समाज, राजनीति और व्यवस्था के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इनके शेरों के केंद्र में आम जनता का जीवन और उसकी संघर्ष-चेतना साफ दिखाई देती है। इन शेरों में किसान, मजदूर तथा वंचित समाज का दर्द पूरी शिद्दत से व्यक्त हुआ है। ग्राम्य-जीवन की दारुण स्थिति पर यहां कमाल के शेर आए हैं। इन शेरों में ग्राम्य-जीवन के प्रश्न, उसकी तकलीफें और संघर्ष का आँखों देखा हाल बयान किया गया है। डाॅ डी एम मिश्र ने अपने शेरों को भाषाई जटिलता से सदैव दूर रखा है। उर्दू व अंग्रेजी शब्दों का उन्होंने बहुत असरदार प्रयोग किया है। उन्होंने कुछ अनूठे रदीफ भी प्रयोग किए हैं। ‘पुरुषोत्तम के कमरे में’ ‘वह विधायक है’ ‘ऐसा कभी न हो’ यह खबर अच्छी नहीं’ ‘देखकर आया हूं’आदि, आदि।
ये शेर इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करते हैं, हमें सवाल करना सिखाते हैं। हम पाते हैं कि जब कवि को अपने सवालों के जवाब नहीं मिलते तो उनके शब्दों के तेवर तीखे, सपाट और विद्रोही हो जाते हैं। इस तेवर में जो आक्रोश है, जो विसंगति पर चोट है वह परिवर्तन की अक्षय आकांक्षा से ऊर्जा पाती है। उनके ऐसे शेरों को विस्तार से समझने की आवश्यकता है।
वास्तव में उनकी ग़ज़लें हमें हिन्दी ग़ज़ल के बदले हुए मिजाज से भी परिचित कराती हैं। ये गज़लें इस अँधेरे समय में न केवल हमें जगाती हैं, हमें हौसला देती हैं, सही दिशा देती हैं बल्कि शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए सज्ज भी करती हैं। इस तरह ये शेर वैचारिक दृष्टि से काफी उन्नत और परिपक्व हैं, जो पाठक को उर्जस्वित करते हैं।
अर्थात ये शेर युगबोध से परिपूर्ण हैं। वे देश की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों पर बारीक नजर रखते हैं। दरअसल, मिश्र जी के शेरों ने अपना पक्ष चुन लिया है और वे जनता के पक्ष में खड़ी हैं। उनके दुःख-सुख के साथ बावस्ता हैं और उन के संघर्ष में भागीदार हैं। अत: ये पूर्णत: जनपक्षधर शेर हैं।
इन शेरों में वे ग़ज़ल के शिल्प के प्रति बहुत सचेत रहते हैं। उन्हें उर्दू बहरों पर अधिकार है। उन्होंने लगभग प्रत्येक ग़ज़ल को उसकी बह्र में कसा है अर्थात ये मंजी हुयी ग़ज़लें हैं। संप्रेषणीयता के गुण के कारण ही हिन्दी ग़ज़ल पाठकों से सहज रूप से जुड़ जाती है।
डॉ. मिश्र एक प्रतिबद्ध ग़ज़लकार हैं और उनकी प्रतिबद्धता सम्पूर्ण मनुष्यता के प्रति है, जीवन के प्रति है एक जनवादी रचनाकार की तरह वे सदैव सक्रिय रहकर गरीबों, मजदूरों व किसानों के त्रासद जीवन का चित्रण करते हुए उन्हें विद्रोह के लिए जगाते भी हैं और सत्तानशीन लोगों को उनकी जिम्मेदारियों का बोध भी कराते हैं।
उनकी शेरों में प्रतिरोध का यह स्वर प्रखरता के साथ उभरकर सामने आता है। उनके यहां कथ्य को धारदार बनानेवाला शिल्प और जन-सरोकारों के साथ भागीदारी को सहज ही देखा जा सकता है।
आशय है कि ये शेर हिन्दी में लिखे जा रहे आम शेरों से अलग हैं। इनके शेर अपने समय के आइने बन कर आए हैं, जिनमें समाज का चेहरा साफ-साफ देखा जा सकता है। हम जानते हैं कि आज की ग़ज़ल-भाषा, अभिव्यक्ति के सारे दायरे तोड़ चुकी है।
यह जनसाधारण की भाषा बन गई है, जिसमें हिन्दी और उर्दू का सहज लहजा निर्मित हुआ है। अब ग़ज़ल की कहन में बहुत से नये विषय, नये शब्द और नये लहजे के प्रयोग हो रहे हैं, जो इसे और व्यापक और समृद्ध बना रहे हैं। इनकी ग़ज़लें आम जीवन की ग़ज़लें है। उनकी ग़ज़ल में जो जन रंग और बिम्ब उभरते हैं, वे कलात्मक उत्कृष्टता के उदाहरण हैं।
उन्होंने जिन बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग किया है वे आसानी से पाठक को समझ में आ जाते हैं। डी एम मिश्र के यहां सामाजिक चेतना प्रारम्भ से ही बहुत प्रखर रही है, जिससे उन्होंने अपने शेरों से हिन्दी ग़ज़ल को नये-नये आयाम प्रदान किये हैं। इन शेरों में उन्होंने निरन्तर एक विद्राही तेवर अख्तियार किया है। उनके शेरों में शोषित और दमित जनता की आवाज़ अलग सुनाई देती है और व्यवस्था के प्रति गहरा और ज़रूरी आक्रोश भी लक्षित होता है। डी एम मिश्र की यही वैचारिकता और तीक्ष्णता उन्हें हिन्दी ग़ज़ल के प्रमुख जन-ग़ज़लकारों में शामिल करती है।