कहा जाता है कि सियासत संभावनाओं का खेल है। सियासी दांव पेंच में जरा सा चूके तो खेल ऐसा बिगड़ जाता है कि फिर सुधारे नहीं सुधरता है। मौजूदा वक्त में देश में चल रहे लोकसभा चुनाव के माहौल के दौरान कुछ सियासी पार्टियों और उनके नेताओं के साथ कुछ ऐसी घटनाएं हो गईं, कि उनसे न तो निगलते बन रहा है और न ही उगलते। बिहार में लोकजनशक्ति पार्टी के नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के भाई पशुपतिनाथ पारस अपने भतीजे चिराग पासवान की एनडीए के साथ बगावत के दौरान खुलकर एनडीए का साथ देकर अपना मंत्री पद बचा ले गए थे।
उस वक्त उनके पास पार्टी के छह में से पांच सांसद भी थे, मगर समय के चक्र का पहिया ऐसा घूमा कि आज पशुपतिनाथ पारस के पास न तो मंत्री पद बचा है और न ही लोकसभा चिराग पासवान के एनडीए में वापस आने पर सीटों के बंटवारे में बिहार की पांच लोकसभा सीटें उन्हें दे दी गईं। इसके विपरीत उनके परस्पर विरोधी चाचा पशुपतिनाथ पारस की अगुवाई वाली लोकजनशक्ति पार्टी को एनडीए में एक भी सीट नहीं दी गई। इससे खफा होकर पशुपति नाथ पारस ने एनडीए से नाता तोड़कर लालू यादव नीत गठबंधन में शामिल होने का ऐलान कर दिया था। उन्होंने केंद्रीय मंत्री पद से भी त्यागपत्र दे दिया, किन्तु सियासत के चतुर और मंझे हुए खिलाड़ी लालू प्रसाद यादव ने पारस को घास नहीं डाली और लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को गठबंधन में एक भी सीट नहीं दी। इससे पशुपति नाथ पारस की स्थिति बड़ी ही हास्यास्पद बन गई। अब वे फिर से एनडीए में शामिल होकर पीएम नरेंद्र मोदी का गुणगान करने लगे हैं।
पशुपति नाथ पारस के चक्कर में उनके दूसरे भतीजे प्रिंस राज भी इस बार बेटिकट होकर रह गए। उन्हें भी किसी गठबंधन में शामिल नहीं किया गया है। चर्चा है कि भाजपा हाईकमान द्वारा पशुपति पारस को चिराग पासवान का समर्थन करने के बदले देश के किसी सूबे में गवर्नर का पद देने तथा प्रिंस राज को बिहार सरकार में मंत्री पद का आॅफर दिया गया था, परंतु उस वक्त उन्होंने इंडी महागठबंधन से सीट लेने के चक्कर में एनडीए के आफर को ठुकराकर केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था और एनडीए के खिलाफ बयानबाजी कर दी।
नतीजा यह हुआ कि उनके साथ ‘न माया मिली, न राम’ वाली कहावत चरितार्थ हो गई। अब यह आने वाला वक्त बताएगा कि चुनाव के बाद पशुपति नाथ पारस और उनके भतीजे प्रिंस राज का सियासी पुनर्वास होता है अथवा वे सियासत के बियावान जंगल में भटकते रहते हैं। फिलहाल तो पशुपतिनाथ पारस की स्थिति ‘न घर के, न घाट के’ वाली हो गई है।
बिहार में पशुपतिनाथ पारस की जैसी स्थिति विकासशील इंसान पार्टी यानि वीआईपी के मुखिया मुकेश सहनी की भी होते होते रह गई। राजद नेता और लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी की कृपादृष्टि पड़ जाने के कारण वे बाल बाल बच गए और महागठबंधन में उनका सियासी पुनर्वास हो गया। मुकेश सहनी का स्वभाव एक जगह टिकने का नहीं है। वे बिहार में बड़ी सियासत करने का ख्वाब बुनते रहतहैं।
इसी चक्कर में वे अलग अलग गठबंधनों में शामिल होकर चुनाव लड़ते रहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि वे खुद कभी चुनाव नहीं जीत पाए हैं। बीते विधानसभा चुनाव में उन्होंने बिहार के एनडीए गठबंधन में शामिल होकर 13 सीटों पर अपनी पार्टी के प्रत्याशियों को चुनाव लड़वाया था तथा उनकी पार्टी के चार प्रत्याशी जीतकर विधायक का ताज पहनने में कामयाब हो गए थे।
खुद उनको भी बिहार की नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री बनाया गया था, लेकिन अपने स्वभाव के चलते वे ज्यादा वक्त तक गठबंधन में नहीं टिक पाए। ऐसी स्थिति में मौके का फायदा उठाकर भाजपा ने उनके विधायकों को तोड़ लिया और वे अकेले रह गए। अब उनका विधान परिषद का कार्यकाल भी पूरा हो गया है। इस बार के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर से भाजपा के एनडीए और लालू प्रसाद के इंडिया गठबंधन से मिलकर चुनाव लड़ने का प्रयास किया था, परंतु उनके मांग पत्र और सीट शेयरिंग में सीटों की संख्या देखकर एनडीए ने उनसे तालमेल करना उचित नहीं समझा और किनारा कर लिया। अंतत: अब तेजस्वी यादव की शर्तें मानकर वे उनके महागठबंधन में ठिकाना पा गए हैं।
सियासत के इस खेल में सबसे ज्यादा बुरी स्थिति तो पप्पू यादव की बन गई। कम आयु में ही कभी सांसद तो कभी विधायक बनने वाले पप्पू यादव की बाहुबली वाली इमेज होने के कारण उन्हें कभी भी चुनाव जीतने में दिक्कत नहीं हुई। एक वक्त तो उन्होंने शरद यादव जैसे कद्दावर नेता को भी चुनाव में पराजित कर दिया था। इसके बावजूद वक्त की बेरहम मार तो देखिये कि आज उन्हीं पप्पू यादव को एक टिकट के लिए भी मारे मारे घूमना पड़ा है। पिछले दिनों उन्होंने राजद सुप्रीमो लालू यादव से अपने रिश्ते सुधारने के लिए के लिए उनके आवास पर जाकर हाजिरी भी लगाई थी। तदुपरांत उन्होंने कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय पर जाकर अपनी पार्टी जन अधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया था।
कांग्रेस में शामिल होने के बाद पप्पू यादव ने कांग्रेस के टिकट पर पूर्णिया से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। उधर सियासत के मंझे हुए खिलाड़ी लालू प्रसाद यादव ने पप्पू यादव को माफ नहीं किया और उन्होंने पूर्णिया में पप्पू यादव के साथ खेला कर दिया। लालू यादव ने बिहार में सीट बंटवारे के दौरान पूर्णिया की सीट राजद के खाते में रखकर वहां से अपनी बेटी मीसा भारती को प्रत्याशी घोषित कर दिया। इस वजह से कांग्रेस भी पप्पू यादव को पूर्णिया से प्रत्याशी नहीं बना पाई। इस खेला से खफा होकर पप्पू यादव यह कहकर कि, ‘चाहे जान चली जाए पर पूर्णिया नहीं छोड़ेंगे’ निर्दलीय उम्मीदवार के रूप से पूर्णिया से चुनावी अखाड़े में कूद पड़े हैं।
उधर पप्पू यादव के बयान से किनारा करते हुए बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अखिलेश कुमार सिंह ने कहा है कि, ‘पप्पू यादव ने अपनी जन अधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया है, लेकिन वे खुद अभी तक कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं बने हैं। ऐसी स्थिति में वे कहीं से भी चुनाव लड़ने के लिए आजाद हैं। कांग्रेस पार्टी को उनसे कुछ भी लेना देना नहीं है।’ पूर्णिया से कांग्रेस का टिकट न मिलने से पप्पू यादव की हालत भी बस देखते ही बनती है। उनकी हालत भी ‘न घर के रहे, न घाट के’ वाली हो गई है। उल्टे उनके बने बनाए समीकरण और बिगड़ गए हैं। पप्पू यादव की पत्नी रंजीता यादव कांग्रेस से राज्यसभा की सांसद और पार्टी की राष्ट्रीय सचिव हैं। वे इससे पूर्व सहरसा और सुपौल से भी सांसद रह चुकी हैं।