इस वक्त पूरे मुल्क में लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां नजर आ रही हैं। जिन इलाकों में पहले चरण में मतदान होना है, निश्चित तौर पर वहां चुनाव प्रचार चरम सीमा पर है, जिन सियासी पार्टियों की साख और ताकत दांव पर लगी है, वे और उनके नेता इन इलाकों में चुनाव प्रचार के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि इतने प्रचार अभियान के बावजूद अधिकांश वोटर खामोश हैं।
सोशल मीडिया के प्लेटफार्म्स पर अपने सियासी विचारों को उगलते रहने वाले लोगों, सियासी पंडितों और सियासी पार्टियों के उत्साही प्रवक्ताओं को छोड़ दें तो मोटे तौर पर वोटरों ने चुप्पी साध रखी है। ऐसे में सियासी पार्टियों की धड़कनें बढ़ना स्वाभाविक है। मतदाता जब चुप होता है तो उसके मन की थाह लगाना आसान नहीं होता। सोशल मीडिया के प्लेटफार्म्स को छोड़ दें तो आज का वोटर दस पंद्रह वर्ष पहले के वोटरों के मुकाबले कहीं ज्यादा जागरूक हो चुका है। अधिकतर वोटरों की सियासी पार्टियों को लेकर अपनी पसंद और नापसंद है। चूंकि उसके पास अब सूचनाओं और जानकारी के कई संसाधन मौजूद हैं, लिहाजा वह पहले के वोटरों के मुकाबले जानकारियों से कहीं ज्यादा लैस है। आज तकरीबन सबके हाथ में मोबाइल के रूप में जादुई बक्सा आ गया है, जिसके जरिए हर पल दुनिया भर की जानकारी एवं सूचनाएं मिल जाती हैं, इसलिए आज का वोटर पहले की तुलना में कहीं ज्यादा सूचनाओं से लैस है। हां, एक खतरा जरूर है कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स के माध्यमों से फेक न्यूज और जानकारियां भी आ रही हैं, इसलिए कुछ वोटरों की सोच इसकी वजह से भी प्रभावित है। लेकिन मोटे तौर पर कह सकते हैं कि आज का वोटर पहले की तुलना में कहीं ज्यादा जागरूक हो गया है, इसलिए वह कहीं ज्यादा सचेत भी है।
वैसे जब भारत में साक्षरता कम थी, तब भी वोटर बेहद जागरूक था। इसका उदाहरण है, 1967 का चुनाव। तब तक देश में विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होते थे। तब मतपत्र पेटियों में डाला जाता था। विधानसभा और लोकसभा चुनाव की मतपेटियां साथ-साथ रखी जाती थीं। बेशक विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग-अलग मतपत्र होते थे। उस चुनाव में वोटरों ने उत्तर और पूर्वी भारत समेत आठ राज्यों की विधानसभा में कांग्रेस को हरा दिया था, जबकि लोकसभा के लिए कांग्रेस को ही समर्थन दिया था। तब से लेकर अब तक साक्षरता दर बढ़ चुकी है। आज अस्सी प्रतिशत से अधिक लोग साक्षर हैं, सूचना और संचार के कई साधन हैं, लिहाजा वोटर भी ज्यादा सचेत है। तो क्या यह मान लिया जाये कि वोटरों में उत्साह की कमी या उनकी खामोशी की वजह वोटिंग और सियासत को लेकर उपजा मोहभंग है या फिर कुछ और। भारतीय वोटर के स्वभाव की ऐतिहासिक परख करें तो मोहभंग की स्थिति नहीं है। आमतौर पर वोटरों में ऐसी सोच तब आती है, जब उसे लगता है कि सियासी माहौल बदलने नहीं जा रही। ऐसी सोच सरकार विरोधी और समर्थक दोनों तरह के वोटरों की हो जाती है। समर्थक मान चुका होता है कि उसकी पसंदीदा मौजूदा सरकार पर कोई खतरा नहीं है तो वह खामोशी साधने और हालात पर पैनी निगाह बनाए रखने की कोशिश करता है। वहीं सरकार विरोधी वोटरों को लगने लगता है कि उसकी कोशिश से भी बदलाव नहीं होने जा रहा तो वह मुखर होकर सरकार समर्थकों से बैर मोल लेने से परहेज करता है।
कई बार वोटरों की खामोशी के पीछे सियासी पार्टियों को सबक सिखाना भी होता है। उस वक्त समझदार वोटर सोच रहा होता है कि वक्त पर सबक सिखाएंगे, तब तक खामोशी बनाए रखना है। सवाल यह है कि मौजूदा चुनाव अभियान के दौरान मन को भांपने की कोशिश करने वाले जानकारों का मानना है कि खामोशी के अधिकतर मामलों में पहली ही स्थिति वोटरों की प्रतिक्रियाहीनता के लिए पहली स्थिति जिम्मेदार है या फिर दूसरी स्थिति।
मतदाताओं के मन को भांपने की कोशिश करने वाले जानकारों का मानना है कि चुप्पी के ज्यादातर मामलों में पहली ही स्थिति जिम्मेदार है। मौजूदा सियासी परिदृश्य में अधिकतर जगहों पर विपक्ष चुनाव लड़ने की बजाय रस्म निभाते दिख रहा है, इसलिए उसके समर्थक वोटरों ने खामोशी धारण कर ली है, वहीं सरकार समर्थक वोटर मान कर ही चल रहा है कि मोदी के सामने कोई खड़ा नहीं है, इसलिए वह निश्चिंतता में खामोशी धारण किए हुए है, लेकिन इस स्थिति में खतरा भी बहुत बड़ा है। विशेषकर सत्ता पक्ष के लिए ऐसे खतरे ज्यादा होते हैं। वोटरों की ऐसी खामोशी के दौरान वे मान लेते हैं कि वे जाएं या ना जाएं, उसकी पसंदीदा सरकार को वोट मिल ही रहे हैं। 2004 में ऐसी ही मानसिकता थी। अधिकतर वोटर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समर्थक थे, लेकिन स्थानीय स्तर पर खामोश थे। हां, कुछ क्षेत्रों के वोटर वाजपेयी की पार्टी और समर्थक वाले सांसदों से निराश जरूर थे, इसलिए उन्होंने वाजपेयी के बजाय स्थानीय सांसद को सबक सिखाने के अंदाज में मतदान किया। इसका असर हुआ कि वाजपेयी की लोकप्रियता के बावजूद उनकी सरकार नहीं लौट पाई।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को शायद 2004 का वाकया याद है, इसीलिए उसने जानफूंक रखी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो आखिरी दम तक अपनी कोशिश जारी रखते हैं। इसलिए 73 साल में भी वे जहां सरकारी कामकाज जितनी मुस्तैदी से निपटा रहे हैं, उतनी ही मेहनत चुनाव प्रचार पर कर रहे हैं। उनका साथ भारतीय जनता पार्टी के यूं तो सारे स्टार प्रचारक दे रहे हैं, लेकिन अमित शाह ने भी अपने गुलदस्ते को तमाम तरह के फूलों से सजा लिया है और उनकी खुशबू से लगातार वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं विपक्षी हमलों की मिसाइल को धराशायी करने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं। ऐसी कोशिशें विपक्षी नेताओं की तरफ से भी हो रही है, लेकिन उनका आक्रमण देखकर ऐसा नहीं लग रहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गवर्नमेंट छीनने की जंग लड़ रहे हैं, बल्कि वे मोदी की ताकत को सीमित करना चाहते हैं। वोटरों की खामोशी को मोदी और अमित शाह ने जहां अपने लिए मौके के रूप में लिया है, वहीं विपक्ष की ओर से ऐसा लगता है कि वह रस्म निभा रहा है।
वोटर भले ही मौन रहें, लेकिन पोलिंग बूथों पर ईवीएम का बटन दबाते वक्त उनकी खामोशी टूटनी ही चाहिए। चुनाव आयोग जम्हूरियत के हित में इस खामोशी को तोड़ने के लिए लगातार अभियान चला रहा है, वहीं प्रधानमंत्री मोदी एक और कार्यकाल मांगने के लिए वोटरों के मन की गांठ खोलने में जुटे हैं। अमित शाह लगातार उनका साथ दे रहे हैं। इसके विपरीत विपक्षी मोर्चे की ओर से मोदी-शाह जैसी तेज कोशिश कम नजर आ रही है। किसकी कोशिश कितनी कामयाब रहेगी, इसका पता तो चार जून को नतीजों के साथ चलेगा। लेकिन इतना तय है कि यदि इस चुनाव में वोटिंग की तारीखों पर वोटर अगर खामोश रह गया तो लोकतंत्र का सबसे ज्यादा नुकसान डेमोक्रेसी अर्थात् लोकतंत्र का होगा।