मणिपुर के जिरीवाम जिले में एक बार फिर भड़की हिंसा में शनिवार को पांच लोगों की हत्या हो गईं। दरअसल राज्य में जो भी शांति दिख रही है वह अर्धसैनिक बलों की सक्रियता के कारण ही दिख रही है। जहां-जहां पर केन्द्रीय खुफिया एजेंसियां और केंद्रीय सुरक्षा बलों की सक्रियता है, वहां पर शांति दिखती है, किन्तु जहां पर खुफिया एजेंसियों को जातीय उग्रवादी चकमा दे देते हैं और सुरक्षा बल चूक जाते हैं, वहां पर भयंकर हिंसा होती है। मणिपुर में उग्रवादियों ने बंकर बना लिए हैं और वे अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ राकेट से हमले करते हैं। यह हकीकत है कि मणिपुर में जो कुछ भी हो रहा है, वह वहां पर मैतेईं समुदाय को हाईंकोर्ट द्वारा जनजातीय आरक्षण मुहैया कराने के कारण हुआ है, किन्तु दोनों समुदायों में दुश्मनी की आग तो बहुत पहले से सुलग रही थी।
मणिपुर आज भी उग्रवाद पीड़ित राज्य है और 1960 के दशक में भी यहां आपस में कुकी और मैतेई लड़ते थे। अंतर सिर्फ यह आया है कि पहले वुकी मैतेईं समुदाय को निशाना बनाते थे क्योंकि उन्हें विदेशी हथियार मिल जाते थे, लेकिन अब मैतेईं समुदाय में भी उग्रवादी पैदा हो गए हैं। अब दोनों समुदायों में जब कभी भी खूनी संघर्ष होता है तो घाटियों में मैतेईं और पहाड़ियों पर कुकी भारी पड़ते हैं। राज्य को खूनी रणभूमि बनते राज्य की सरकार और उसकी मशीनरी ने देखा है, किन्तु दुर्भाग्य से कड़ा कदम नहीं उठाया ताकि मणिपुर में अशांति पैदा ही न हो सके।
मणिपुर की हिंसा पर जितनी सियासत होती है, उसका एक ही कारण है कि इस घटना के आधार पर भाजपा सरकार को निकम्मा घोषित किया जा सके। अपनी राजनीति में उन्हें कामयाबी मिली भी है। यही कारण है कि भाजपा की मणिपुर राज्य सरकार पूरी तरह फिसड्डी साबित हुईं है और जितनी भी शांति का एहसास हो रहा है वह मात्र केन्द्र सरकार के प्रयत्नों का परिणाम है। मणिपुर में सुरक्षा की स्थिति यह है कि वहां की स्थानीय पुलिस वहां पर तैनात केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों की कोईं सलाह नहीं मानती।
ऐसा तभी होता है, जब स्थानीय पुलिस राज्य में सक्रिय किसी एक उग्रवादी संगठन को समर्थन करती है। ऐसी स्थिति राज्य के पुलिस संगठन में काफी समय तक राज्य सरकार की निष्क्रियता एवं भारत विरोधी गतिविधियों के सुनियोजित तरीके से चलते रहने की वजह से होती है।
असल में चीन से भारत का युद्ध 1962 में हुआ जरूर किन्तु इसकी शुरुआत तो 1958 से ही हो गईं थी। 1962 में चीन ने जब भारत को पराजित कर दिया तो भारत के उत्तर-पूर्व में खुराफात और अशांति पैदा करने के लिए उसने कुकी, नगा, बोडो जैसे जातीय गुटों को विद्रोही बनाने की साजिश रची। 1962 में युद्ध के दौरान भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ गालब्रेथ राष्ट्रपति जानएफ कनेडी को लिखी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने अब भले ही एकतरफा युद्ध समाप्त करने की घोषणा कर दी किन्तु वास्तविकता तो यह कि वह भारत के लिए हमेशा सिरदर्द बना रहेगा। भारत को सचेत करने के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं रक्षामंत्री को जो भी सुझाव दिए थे, उन सभी का उल्लेख अम्बसदर्स डायरी में किया है। भारत सरकार यह जानते हुए भी कि चीन के कारखानों में बने हथियार ही भारत में विद्रोही गुटों के हाथों देखे जा सकते हैं, किन्तु कर कुछ भी नहीं पा रही थी। ऐसा पहली बार हुआ है कि मणिपुर में उग्रवादी खुलकर एक दूसरे को चुनौती दे रहे हैं और अवसर मिलते ही प्रतिद्वंद्वी को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने के लिए राकेट एवं उन्नत हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
कहने का सार यह है कि मणिपुर में जो भी शांति दिख रही है वह मात्र इसलिए है क्योंकि केन्द्रीय सुरक्षा बल और खुफिया एजेंसियों ने समन्वित एवं व्यावहारिक रुख अपना लिया है, लेकिन जब भी सुरक्षा बलों की सक्रियता एवं सतर्कता में कमी आती है तो निर्दोष कुकी और मैतेईं एक-दूसरे को भून देते हैं। शनिवार को जो हिंसक घटना घटी है वह सुरक्षा व्यवस्था की बहुत बड़ी चूक है। यह चूक केन्द्रीय खुफिया एजेंसियों की भी हो सकती है और चूक मणिपुर पुलिस के इंटेलीजेंस द्वारा गलत सूचना के कारण भी हो सकती है।