Swami Prasad Maurya ने समाजवादी पार्टी से खफा होकर उससे नाता तोड़ दिया। पिछले आठ सालों में वह तीसरी बार नाराज हुए हैं। मौर्य अब किसी अन्य सियासी पार्टी में शामिल होने की बजाय नई पार्टी के साथ राजनीति करेंगे।
वह राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ले सकते हैं। सोमवार को राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी का नीला, लाल और हरा रंग का झंडा लांच कर मौर्य ने इस बात का संकेत दिया है कि वह इस पार्टी की कमान संभाल सकते हैं।
बुधवार 22 फरवरी को दिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में Swami Prasad Maurya ने कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई है। माना जा रहा है कि इसी बैठक में इस नई पार्टी के माध्यम से मौर्य अपने भविष्य की राजनीति की घोषणा करेंगे। ऐसा लग नहीं रहा है कि समाजवादी पार्टी या अखिलेश यादव उन्हें बहुत जतन के साथ मनाने की कोशिश करेंगे।
मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव की अगुवाई तक समाजवादी पार्टी में हमेशा सभी जाति एवं धर्म के नेताओं का स्वागत किया गया। इसी की वजह से समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में कई बार सरकार बनाने में कामयाबी मिली। अखिलेश यादव भी भले पिछड़े एवं दलित की सियासत करते रहे हों, लेकिन उन्होंने खुलकर कभी भी सवर्णों का विरोध नहीं किया। मजबूरी ही सही, उन्होंने भी मुलायम की तरह समावेशी राजनीति की।
समाजवादी पार्टी के इस एजेंडे के ठीक विपरीत, बहुजन समाज पार्टी की जातिवादी एवं सवर्ण विरोधी आंच पर पक कर निकले Swami Prasad Maurya की पूरी राजनीति ही सवर्ण विरोध पर टिकी रही है। भारतीय जनता पार्टी में पांच साल तक सत्ता की कुर्सी से चिपके रहने के बाद वर्ष 2022 में Swami Prasad Maurya ने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक परिवर्तन होने का अनुमान लगाकर चुनाव से ठीक पहले वे समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए, लेकिन इस बार उनकी उम्मीद के विपरीत यूपी में भाजपा सत्ता में आ गई।
योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी ने 37 साल पुराने इतिहास को दोहराते हुए पुनः सत्ता हासिल कर ली। इतना ही नहीं, Swami Prasad Maurya अपनी सीट बदलने के बावजूद विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गये। विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद अखिलेश यादव ने स्वामी प्रसाद मौर्य को पद और सम्मान दोनों दिया। विधान परिषद में भी भेजा।
Swami Prasad Maurya को लेकर असहज थी समाजवादी पार्टी
भारतीय जनता पार्टी में पांच साल तक हिंदू देवी-देवताओं पर अपना मुंह बंद रखने वाले Swami Prasad Maurya सपा में शामिल होते ही अपना पुराना राग छेड़ दिया। रामचरितमानस से लेकर हिंदू देवी.देवताओं के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी करने लगे। मौर्य के बयानों से पूरी समाजवादी पार्टी असहज होने लगी।
शिवपाल सिंह यादव समेत तमाम नेताओं ने कई बार उनकी बयानबाजी को उनका निजी बयान बताकर पार्टी का बचाव करने की कोशिश की, लेकिन Swami Prasad Maurya रुकने के बजाय और तीखे होते चले गये। उनके बयानों से पार्टी को फायदे की जगह नुकसान होने की संभावना अधिक दिखने लगी। पहले ही हिंदुत्व विरोधी होने के आरोपों से जूझ रही समाजवादी पार्टी के लिए स्वामी के बयान चुभने लगे। जब स्वामी प्रसाद के सवर्ण विरोधी बयानों के खिलाफ समाजवादी पार्टी के भीतर से ही आवाजें उठनी शुरू हो गई तो अखिलेश यादव की चिंता भी बढ़ गई।
भारतीय जनता पार्टी भी Swami Prasad Maurya के बयान को भुनाते हुए सपा को हिंदू विरोधी साबित करने में जुट गई। पहले से ही हाशिये पर जा रही समाजवादी पार्टी को और नुकसान होने से बचाने के लिए राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव को मोर्चा संभालना पड़ा।
उन्होंने भी स्वामी प्रसाद मौर्य के बयानों को निजी बयान बता डाला। इसी से भड़के Swami Prasad Maurya ने पहले समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव पद से इस्तीफा दिया, अब अनजान सी राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी से अपनी नई राजनीतिक पारी शुरू करने की तैयारी कर ली है। दरअसल, अब Swami Prasad Maurya के विकल्प बेहद सीमित रह गये हैं। उन्हें समझ आ चुका है कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में उनकी वापसी मुश्किल है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस अभी उस स्थिति में नहीं हैं कि सत्ता हासिल कर सकें। बहुजन समाज पार्टी में लौटने के रास्ते उनके लिये बंद हैं।
तो Swami Prasad Maurya के पास क्या है विकल्प?
मौर्य के पास यही विकल्प है कि वह किसी नई पार्टी से अपने भविष्य की राजनीति करें और सत्ता में भागीदारी मांगें। राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी उनकी मौजूदा सियासत के मुफीद हो सकती है, लेकिन वह कोई बड़ी लाइन खींच पायेंगे, इसमें संदेह है। नरेंद्र मोदी के उभरने के बाद जातिवादी सियासत का दौर लगभग खत्म हो चुका है। इस आंदोलन से निकली बहुजन समाज पार्टी ने भी बहुत पहले समझ लिया था कि उग्र जातिवादी सियासत का भविष्य बहुत लंबा नहीं है।
तदुपरांत उसने भी समावेशी सियासत की तरफ कदम बढ़ा दिये थे। हालांकि बहुजन समाज पार्टी भी अब हाशिये पर पहुंच चुकी है। कभी बहुमत से सरकार बनाने वाली बहन जी की पार्टी के पास उत्तर प्रदेश में मात्र एक विधायक है। ऐसे में Swami Prasad Maurya की पिछड़े और दलित वर्ग की आक्रामक सियासत कितनी असरदार होगी, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इस वक्त सबसे बड़ा सवाल यह है कि स्वामी का वोट बैंक कहां से जुटेगा। स्वामी की राजनीति को देखें तो वह ऐसे नेता नहीं हैं, जिनके पास बहुत बड़ा जनाधार हो।
बसपा और भाजपा में रहते हुए स्वामी प्रसाद भले ही पांच बार विधायक बने हों, लेकिन किसी सीट से निर्दलीय लड़कर जीत हासिल करना उनके लिए आसान नहीं है। Swami Prasad Maurya ने दावा किया है कि उनके समाजवादी पार्टी में आने से आने से उनकी सीटें 50 से बढ़कर 111 हो गई, लेकिन इसके विपरीत हकीकत यह है कि Swami Prasad Maurya खुद अपनी सीट नहीं जीत पाये।
स्वयंभू नेता बने हैं Swami Prasad Maurya
Swami Prasad Maurya खुद को भले ही बड़े नेता मानते हों, लेकिन उनके जनाधार की कहानी इतनी है कि अपने ही गृह जनपद रायबरेली की डलमऊ सीट से वह खुद कभी जीत हासिल नहीं कर सके। इस सीट का नाम ऊंचाहार होने के बाद वह 2012 में बसपा और 2017 में भाजपा के टिकट पर अपने पुत्र उत्कृष्ट मौर्य को भी पूरी ताकत लगाने के बावजूद विधायक नहीं बना सके।
सारे हथियार आजमाने के बावजूद वह अपने पुत्र को विधानसभा नहीं पहुंचा सके तो बेटी संघमित्रा मौर्य का करियर भी अधर में लटक गया है। भारतीय जनता पार्टी से बदायूं की सांसद बनने वाली संघमित्रा को भाजपा फिर से टिकट देगी, ऐसा लगता नहीं है। इस स्थिति में स्वामी प्रसाद के पास यही विकल्प शेष रह जाता है कि वह राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी के जरिये कुछ सीटों पर अपनी मजबूत स्थिति दिखाते हुए भाजपा या सपा को गठबंधन के लिये मजबूर करें।
हालांकि, ऐसा करना भी आसान नहीं है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जातिवादी राजनीति के गढ़ रहे उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय राजनीति आधारित पार्टियां हाशिये पर जा पहुंची हैं। मंडल के दौर में ऊफान मारने वाली जातिवादी राजनीति भी अब अपने ढलान पर है, ऐसे में स्वामी प्रसाद मौर्य के लिए सत्ता के ख्वाब देखना आसान नहीं होने वाला है।
अगर Swami Prasad Maurya किसी बड़े दल की सदस्यता नहीं लेते हैं तथा राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी की राजनीति ही करते हैं तो फिर उनके लिये भविष्य की सियासत मुश्किल होने वाली है। उन्हें अगले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने जनाधार की ताकत दिखानी होगी। अगर ऐसा नहीं कर पाये तो फिर उनके लिये उत्तर प्रदेश में अपने राजनीतिक वजूद को बचाये रखना आसान नहीं होने वाला है।