नई दिल्ली, इस संसार रूपी नाट्यशाला के दो प्रमुख अंग सुख एवं दुख हैं। इनका इस पंच भौतिक शरीर से अटूट संबंध है। जिस प्रकार एक प्रबुद्ध आत्मा सुख को ईश्वर का आशीर्वाद समझकर उसको स्वीकार करती है, ठीक उसी प्रकार वह दुख को भी कर्मभोग समझकर सहज रूप से स्वीकार करती है।
संसार में ऐसा कोई नहीं है, जिसे किसी न किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट न हो। परंतु, उस कष्ट को हम कैसे सहन करते हैं, उससे हमारी अंदरूनी स्थिति का अंदाजा लगता है।
मसलन, कोई व्यक्ति रो-रोकर, चिल्लाकर कष्ट सहन करता है और कोई हंसते हुए सहन करता है।
इन दोनों के सहने में फर्क सिर्फ इतना ही है कि शारीरिक कष्ट भोगी रो-रो कर काटता है, जबकि योगी हंस-हंस कर। शारीरिक दुख अथवा कष्ट का हमारी मानसिक स्थिति से बड़ा ही गहरा संबंध है। कई बार हम यह अनुभव करते हैं कि कुछ लोगों को थोड़े से शारीरिक कष्ट की वजह से मन में तूफान उठने लगता है,
जिसके फलस्वरूप उन्हें उसका दर्द या पीड़ा असह्य लगने लगती है, जबकि ऐसी अनेक परिस्थितियों में ज्ञानी व योगी आत्मा अपने आत्मिक बल द्वारा बड़े से बड़ी पीड़ा को भी मुस्कुराते हुए उसे कर्मों का खेल समझकर सह लेती है। यह कहने के पीछे का भाव यह है कि आत्मिक उन्नति के मार्ग में हमारी मानसिक स्थिति का विशेष स्थान है। ऐसे मौके पर ही हमारी धैर्यवत अवस्था की परीक्षा होती है और साथ-साथ हमारी सहन-शक्ति भी बढ़ती है।
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कई बार ऐसा होता है कि जब हम किसी व्यक्ति से स्वयं के साथ इतने अच्छे व्यवहार की आशा रख बैठते हैं, जिसे वह कर सकने में असमर्थ होता है, तब हम बड़े दुखी व निराश हो जाते हैं। हमारा मन अंदर से बड़ा अशांत हो जाता है।
इसी प्रकार से कई बार हम दूसरों को उनकी इच्छानुसार तृप्त नहीं कर पाते हैं तो भी मानसिक दुख पाते हैं। ऐसे समय पर हमें एक प्रसिद्ध कहावत याद रखनी चाहिए – ‘जो सबको खुश रखना चाहता है, वह किसी को भी खुश नहीं रख सकता।’ लेकिन इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि यदि हम सबको खुश नहीं रख सकते तो रुष्ट रखें।
नहीं, हमारा काम है कि हम सभी को आत्मिक दृष्टि से देखते हुए, सभी के प्रति कल्याणकारी भाव रखें। फिर यह सामने वाले के ऊपर निर्भर करता है कि उसने इसे कितना मूल्य दिया है। देते समय यदि हमारा मन साफ है और हृदय पवित्र और फिर भी यदि कोई संतुष्ट नहीं होता तो यह हमारा अपराध नहीं है।
जैसे एक किसान खेत जोतकर बीज डाल देता है। फिर उसमें कैसे और कितनी पैदावार होगी, यह उसके अधीन नहीं। ठीक यही हाल हमारे कर्मों का है, जिसे हमें साक्षी भाव से करते हुए भावी पर छोड़ निश्चित हो रहना चाहिए। जो ज्ञानी है वह सदैव सृष्टि-नाटक में अभिनेता की तरह काम करता है।