पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति ने पहले कदम के तहत लोकसभा और विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की तथा इसके बाद सौ दिनों के भीतर स्थानीय चुनाव कराने की गुरुवार को अपनी 18 हजार पृष्ठ की सिफारिश राष्ट्रपति को सौंप दी। सिफारिश में कहा गया है कि एक साथ चुनाव कराए जाने से विकास प्रक्रिया और सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा मिलेगा, लोकतांत्रिक परम्परा की नींव गहरी होगी और इंडिया जो भारत है, की आकांक्षाओं को साकार करने में मदद मिलेगी।
समिति ने अपनी सिफारिश में यह भी साफ कर दिया है कि त्रिशंकु की स्थिति में या अविश्वास प्रस्ताव अथवा किसी ऐसी स्थिति में नई लोकसभा के गठन के लिए नए सिरे से चुनाव कराए जा सकते हैं। इसको और स्पष्ट करते हुए समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि लोकसभा के लिए जब नए चुनाव होते हैं, तो उस सदन का कार्यकाल ठीक पहले की लोकसभा के कार्यकाल के शेष समय के लिए ही होगा। इसी तरह विधानसभाओं के लिए भी बहुत स्पष्ट सलाह दी गई है कि जब राज्य विधानसभाओं के लिए नए चुनाव होते हैं, तो ऐसी नई विधानसभा अगर जल्दी भंग हो जाए तो उसका कार्यकाल लोकसभा के पूर्ण कार्यकाल तक रहेगा।
दरअसल इस उच्चस्तरीय समिति का गठन 2 सितम्बर 2023 में किया गया था और इसने 191 दिनों के गहन शोध के बाद इस रिपोर्ट को तैयार किया है। संविधान के जानकार बताते हैं कि इस तरह की व्यवस्था लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 83 संसद के सदनों की अवधि और अनुच्छेद 172 राज्य विधानसभाओं की अवधि में संशोधन आवश्यक है, किन्तु यह संशोधन बहुत मामूली करने की बात कही गई है।
सच तो यह है कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद के नेतृत्व वाली इस समिति के सभी सदस्य इस बात के लिए एक मत थे कि कोई भी सिफारिश ऐसी नहीं होनी चाहिए, जो संवैधानिक भावनाओं के प्रतिकूल हो। समिति इस बात के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध दिखी कि यदि संशोधन की नौबत आए भी तो वह बहुत मामूली होनी चाहिए। इसलिए समिति ने कोई ऐसी सिफारिश नहीं की है, जो अटपटी लगे और संविधान की भावनाओं के प्रतिकूल दिखे। सिफारिश तैयार करने के पूर्व सदस्यों ने 47 राजनीतिक दलों की बैठक बुलाई, इसमें 32 दलों ने एक राष्ट्र एक चुनाव का समर्थन किया था, जबकि मात्र 15 पार्टियों ने विरोध किया। दिलचस्प बात तो यह है कि जिन 15 पार्टियों ने विरोध किया है, उनमें से अधिकतर वे पार्टियां हैं, जो किसी भी संशोधन का समर्थन करती ही नहीं, कोई भी कानून बनने पर या तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती हैं अथवा सड़कों पर हंगामा करती हैं।
बहरहाल लोकतांत्रिक तरीका तो यही है कि समर्थन करने वालों की संख्या भले ही अधिक हो, किन्तु यदि मात्र एक कोई पार्टी विरोध करती है तो उसका भी सम्मान होना चाहिए। इससे लोकतांत्रिक भावनाएं मजबूत होती हैं। यह हकीकत है कि देश में जो पार्टियां एक राष्ट्र एक चुनाव का विरोध करती हैं तो यह उनकी सिरदर्दी है, अपना तो मानना है कि इस समिति ने परिस्थितियों का विश्लेषण करके जो सिफारिश की है, उसको मान कर यदि सरकार ने इसे लागू कर दिया तो पूरे वर्ष देश भर में कहीं न कहीं चुनाव का माहौल बदलकर स्वत: पांच वर्ष बाद ही आया करेगा और विकास कार्यों पर आचार संहिता का डंडा नहीं चलेगा। इस तरह विकास कार्य भी तेजी से होंगे, जो कि इस देश की तरक्की के लिए बहुत जरूरी हैं।
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