ओशो: अष्टावक्र महागीता प्रवचन : 88
परमात्मा अनुमान नहीं, अनुभव है—प्रवचन—तैहरवां
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चौथा प्रश्न :
मृत्यु का बडा भय है। क्या इससे छूटने का कोई उपाय है?
मत्यु तो उसी दिन हो गयी जिस दिन तुम जन्मे। अब छूटने का कोई उपाय नहीं। जिस दिन पैदा हुए उसी दिन मरना शुरू हो गया। अब एक कदम उठा लिया, अब दूसरा तो उठाना ही पड़ेगा। जैसे कि प्रत्यंचा से तीर निकल गया तो अब लौटाने का क्या उपाय है! जन्म हो गया, तो अब मौत से बचने का कोई उपाय नहीं।
जिस दिन तुम्हारी यह बात समझ में आ जाएगी कि मौत तो होनी ही है, सुनिश्चित होनी है—और सब अनिश्चित है, मौत ही निश्चित है —उसी दिन भय समाप्त हो जाएगा। जो होना ही है, उसका क्या भय! जो होकर ही रहनी है, उसका क्या भय! जिसको टाला ही नहीं जा सकता, उसका क्या भय! जिसको अन्यथा किया ही नहीं जा सकता, उसका क्या भय!
आशंका है तुम्हें
जिस दुर्घटना की
घट चुकी है वह
पहले ही भीतर
केवल आएगा तैरकर
गत आगत की सतह पर
हो चुका है पहले ही काम। मर गये तुम उसी दिन जिस दिन तुम जन्मे। जिस दिन तुमने सांस ली, उसी दिन सास छूटने का उपाय हो गया। अब सांस किसी भी दिन छूटेगी। तुम सदा न रह सकोगे। इसलिए इस भय को समझने की कोशिश करो, बचने की आशा मत करो। बचने को तो कोई नहीं बच पाया। कितने लोगों ने कितने उपाय किये बचने के।
नादिरशाह इतना बड़ा लड़ाका था, खूंख्वार, हजारों लोगों की हत्याएं कीं, मगर खुद की मौत से ड़रता था। भारी ड़र था उसे। दूसरे की मौत तो कोई बात ही न थी। कहते हैं, एक रात एक वेश्या उसके शिविर में नाच करने आयी और जब लौटने लगी तो रात देर हो गयी, दो बज गये और वह ड़रने लगी। उसने कहा, रास्ते में अंधेरा है और मेरा गांव दूर है, मैं कैसे जाऊं? तो नादिरशाह ने कहा कि तू फिक्र मत कर, तू कोई साधारण व्यक्ति के दरबार में नाचने आई है? उसने अपने सैनिकों को कहा कि रास्ते में जितने गांव हैं, सब में आग लगा दो, ताकि यह वेश्या अपने गांव तक रोशनी में जा सके। पांच—सात गांवों में आग लगवा दी, गावों के सोते लोग जल गये। लेकिन रास्ते पर रोशनी करवा दी।
दूसरे की मौत तो जैसे खिलवाड़ थी, लेकिन खुद की मौत की बडी घबड़ाहट थी। इतना घबड़ाया रहता था मौत से कि रात भी ठीक से सो नहीं सकता था। और इसी घबड़ाहट में मौत हुई। जब हिंदुस्तान से वापिस लौट रहा था और एक रात एक शिविर में तंबू के भीतर सोया था, तो रात में एक डाकू घुस गया अंदर। वह किसी की जान लेने को उत्सुक न था, वह तो कुछ सामान चुराने को उत्सुक था। लेकिन उसकी मौजूदगी और घबड़ाहट में घोड़े हिनहिनाने लगे और सैनिक भागने लगे। कुछ घबड़ाहट ऐसी फैल गयी अंधेरी रात में कि लोग समझे कि बहुत दुश्मन हैं, कि नादिरशाह घबड़ाकर बाहर भागा। तंबू की रस्सी से पैर फंस गया, तो वह समझा कि किसी ने पैर पकड़ लिया। और उसी घबड़ाहट में उसकी हृदय की धड़कन बंद हो गयी, वह गिर पड़ा। कोई ने पकड़ा नहीं, किसी ने मारा नहीं, किसी ने कुछ किया नहीं, सिर्फ पैर फंस गया तंबू की रस्सी में, वह समझा कि गये जान से! उसी घबड़ाहट में मरा।
आदमी बचने के कितने उपाय करे!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दूसरों को मारने की उत्सुकता उन्हीं लोगों में होती है, जो अपने को बचाने के लिए बडे आतुर होते हैं। जिनको यह खयाल होता है कि हम जिंदगी तो नहीं बना सकते, लेकिन कम—से —कम लोगों को मार तो सकते हैं। मृत्यु तो कर सकते हैं दूसरों की। दूसरों को मारने से ऐसा लगता है कि हम शायद मृत्यु के मालिक हो गये। देखो, कितने लोग मार डाले। मृत्यु हमारे कब्जे में है। इससे एक भ्रांति पैदा होती है कि शायद मृत्यु हमें क्षमा कर देगी। नहीं, न धन से जाती है, न पद से जाती है, न शक्ति से जाती है, कोई उपाय मृत्यु से बचने का नहीं है।
तुम पूछते हो, मृत्यु का बड़ा भय है, क्या इससे छूटने का कोई उपाय है?
छूटने का उपाय करते रहोगे, भय बढ़ता जाएगा। तुम छूटने का उपाय करोगे, मौत रोज करीब आ रही है। क्योंकि बुढ़ापा रोज करीब आ रहा है। तुम जितने ही उपाय करोगे उतने ही घबड़ाते जाओगे। मुझसे तुमने पूछा है अगर और मेरी बात अगर समझ सको तो मैं तुमसे कहूंगा. मौत को स्वीकार कर लो, छूटने की बात ही छोड़ो। जो होना है, होना है। उसे तुम स्वीकार कर लो। उसे तुम इतने अंतरतम से स्वीकार कर लो कि उसके प्रति विरोध न रह जाए। वहीं भय समाप्त हो जाएगा।
मृत्यु से तो नहीं छूटा जा सकता, लेकिन मृत्यु के भय से छुटकारा हो सकता है। मृत्यु तो होगी, लेकिन भय आवश्यक नहीं है। भय तुमने पैदा किया है। वृक्ष तो भयभीत नहीं हैं, मौत उनकी भी होगी। क्योंकि उनके पास सोच —विचार की बुद्धि नहीं है। पशु तो चिंता में नहीं बैठे हैं, उदास नहीं बैठे हैं कि मौत हो जाएगी, मौत उनकी भी होगी।
मौत तो स्वाभाविक है। वृक्ष, पशु, पक्षी, आदमी, सभी मरेंगे। लेकिन सिर्फ आदमी भयभीत है। क्योंकि आदमी सोचता कि किसी तरह बचने का उपाय हो जाए। कोई रास्ता निकल आए।
तुम जब तक बचना चाहोगे तब तक भयभीत रहोगे। तुम्हारे बचने की आकांक्षा से ही भय पैदा हो रहा है। स्वीकार कर लो! मौत है, होनी है। तो जब होनी है हो जाएगी। और हर्जा क्या .है? जन्म के पहले तुम नहीं थे, कोई तकलीफ थी? कभी इस तरह सोचो, जन्म के पहले तो तुम नहीं थे, कोई तकलीफ थी? मौत के बाद तुम फिर नहीं हो जाओगे, तकलीफ क्या होनी! जैसे जन्म के पहले थे, वैसे ही मौत के बाद फिर हो जाओगे। जो जन्म के पहले हालत थी, वही मौत के बाद हालत हो जाएगी। जब तक तुमने पहली सांस न ली थी, तब तक का तुम्हें कुछ याद है? कोई परेशानी है? कोई झंझट! ऐसे ही जब आखिरी सांस छूट जाएगी, उसके बाद भी क्या झंझट, क्या परेशानी!
सुकरात मरता था, किसी ने पूछा कि घबड़ा नहीं रहे आप त्र: सुकरात ने कहा, घबड़ाना क्या है? या तो जैसा आस्तिक कहते हैं, आत्मा अमर है, तो घबड़ाने की कोई जरूरत ही नहीं! आत्मा अमर है तो क्या घबड़ाना! या जैसा कि नास्तिक कहते हैं, कि आत्मा मर जाती है, तो भी बात खतम हो गयी।
जब खतम ही हो गये तो घबड़ाना किसका! घबडाका कौन? बचे ही नहीं, तो न रहा बांस न बजेगी बांसुरी। तो सुकरात ने कहा दोनों हालत में—दोनों में से कोई ठीक होगा, और तो कोई उपाय नहीं है, या तो आस्तिक ठीक, या नास्तिक ठीक। आस्तिक ठीक, तो अमर हैं, बात खतम हुई, चिंता क्या करनी न: नास्तिक ठीक तो बात खतम ही हो जानी है, चिंता किसको करनी है, किसकी करनी है? सुकरात ने कहा, इसलिए हम निश्चित हैं। जो भी होगा, ठीक है। तुम बचने की कोशिश न करो। मौत तो होगी। लेकिन तुमसे मैं कहना चाहता हूं, मौत तुम्हारी नहीं होगी। तुम्हारा जन्म ही नहीं हुआ तो तुम्हारी मौत कैसे होगी? शरीर का जन्म हुआ है, शरीर की मौत होगी। तुम्हारा चैतन्य अजन्मा है और अमृतधर्मा है।
तुम्हारी उलझन सारी यह है कि तुमने शरीर को अपना होना समझ लिया है। मौत असली सवाल नहीं है। असली सवाल है कि शरीर को समझ लिया है, यह मैं हूं।
नीरव की अर्चा रव से
जीवन की चर्चा शव से
जैसे कोई शोरगुल से आशा कर रहा है शांति की। ऐसे कोई शव से बातें कर रहा है जीवन की। नीरव की अर्चा रव से जीवन की चर्चा शव से इस मुर्दे को तुम जीवित समझे हो, इसीलिए अड़चन हो रही है। मुर्दा तो मुर्दा है। अभी भी मरा हुआ है। रोज मर रहा है। तुम्हें खयाल नहीं है, क्योंकि तुम खयाल देना नहीं चाहते, तुम ड़रते हो। ये तुम्हारे सिर में बाल ऊगते, दाढ़ी में बाल ऊगते, यह कभी तुमने खयाल किया, इनको तुम काटते हो, दर्द नहीं होता। यह तुम्हारे शरीर का मुर्दा हिस्सा है जो शरीर बाहर फेंक रहा है। नाखून काटते हो, दर्द नहीं होता। यह जिंदा हिस्सा नहीं है। मल—मूत्र रोज बाहर जा रहा है, यह सब मरा हुआ हिस्सा है। शरीर में से रोज मर रहा है कुछ, तुम रोज भोजन लेकर नया जीवन थोड़ा—सा डालते हो। थोड़ी देर जीवन सरकता है। फिर रोज मुर्दा कुछ हिस्सा निकल जाता है।
वैज्ञानिक कहते हैं, सात साल में आदमी का पूरा शरीर मर जाता है, फिर दूसरा शरीर। सत्तर साल की उम्र में दस बार शरीर मर जाता है। पूरा—का—पूरा बदल जाता है, एक—एक कण बदल जाता है। कुछ नहीं बचता पुराना, सब नया होता रहता है।
शरीर तो रोज मर रहा है। शरीर की तो प्रक्रिया मृत्यु है। इस शरीर के पार एक चैतन्य की दशा है, मगर उसका तुम्हें कुछ पता नहीं। तुम वही हो और तुम्हें उसका पता नहीं। तुम्हें आत्मस्मरण नहीं। यह मत पूछो कि मौत के लिए हम क्या करें? इतना ही पूछो कि हमारे भीतर शरीर के पार जो है, उसे जानने के लिए क्या करें? मृत्यु से बचने की मत पूछो, ध्यान में जागने की पूछो। अगर तुम्हें इतना पता चल जाए कि मैं भीतर चैतन्य हूं तो फिर शरीर ठीक है, तुम्हारा आवास है। घर को अपना होना मत समझ लो। और जैसे ही तुम्हें यह बात समझ में आनी शुरू हो जाएगी, तुम्हारे भीतर अपूर्व क्रांति घटित होगी।
नर! बन नारायण
स्वर! बन रामायण
और तब तुम अचानक पाओगे, तुम्हारे भीतर जो तुमने नर की तरह जाना था, वह नारायण है। और जो तुमने स्वर की तरह जाना था, वह रामायण है।
शरीर तो मिट्टी है। मिट्टी से बना है, मिट्टी में विदा हो जाएगा।
मिट्टी नीरव
मिट्टी कलरव
मिट्टी कट भव
मिट्टी चिर नव
मिट्टी से बनता है, मिट्टी में गिरता है, फिर उठता है, फिर गिरता है। यह सब सृजन मिट्टी का है। यह सब खेल मिट्टी का है। तुम इस मिट्टी के दीये को अपना होना मत समझ लो। इस मिट्टी के दीये में जो तेल भरा है, वह तुम्हारा मन है। उसे भी तुम अपना होना मत समझ लो। उस तेल में जो बाती पड़ी है, बाती पर जो ज्योति जल रही है, वही ज्योति तुम हो। माना कि दीये और तेल के बिना ज्योति तिरोहित हो जाती है, लेकिन दीया और तेल ही ज्योति नहीं है।
ज्योति प्रगट होने के लिए दीये और तेल की जरूरत होती है। तुम्हारे प्रगट होने के लिए शरीर और मन की जरूरत होती है। ये आवश्यक हैं तुम्हारी अभिव्यक्ति के लिए, तुम्हारे अस्तित्व के लिए आवश्यक नहीं हैं। तुम्हारा अस्तित्व इनसे पार है। उस पार का तुम्हें बोध होने लगे, तो मृत्यु से कोई भय न रह जाएगा। तब तुम जानोगे, मृत्यु होती ही नहीं।
शरीर के तल पर मृत्यु सुनिश्चित है, आत्मा के तल पर मृत्यु न कभी हुई है, न हो सकती है। इतना ही तुम पहचान लो कि तुम आत्मा हो।
तिफ्ली देखी शबाब देखा हमने
हस्ती को हवा बेआब देखा हमने
जब आंख हुई बंद तो उकदा यह खुला
जो कुछ भी देखा सो ख्वाब देखा हमने
अभी तुम जिसे जिंदगी समझ रहे हो वह सपने से ज्यादा नहीं।
जब आंख हुई बंद तो उकदा यह खुला
मरते वक्त तुम जानोगे, जब आंख सच में बंद होगी तब यह राज खुलेगा—
जो कुछ भी देखा सो ख्वाब देखा हमने
जिंदगी जिसको समझते थे, वह सपना सिद्ध हुई। और इस जिंदगी के भीतर जो सत्य छिपा था, सपने में इतने उलझे रहे कि सत्य को कभी देखा नहीं।
कुछ पद और नसीहत ने भी तामीर न की
दुनिया के किसी काम में ताखीर न की
दिन रात यहीं के साज और सामी में रहे
जाना है कहां कुछ इसकी तदबीर न की
फिर भटकोगे। मौत से मत घबड़ाओ, अगर तुम्हारे जीवन में सच में ही समझने की कोई आकांक्षा है तो इतनी बात समझ लो कि यह जिसे तुम जिंदगी समझ रहे हो—
दिन रात यहीं के साज और सामी में रहे
यह भ्रांति है, मौत इसी को छीन लेगी। धन छीन लेगी, पद छीन लेगी, नाम छीन लेगी, यश छीन लेगी। अगर तुमने नाम, पद, यश, धन को ही समझा कि मेरा होना है, तो तुम मरे, तो घबड़ाना तुम्हारा स्वाभाविक है। इसके पार भी तुम हो। पद के पार, प्रतिष्ठा के पार, नाम—यश के पार, धन—दौलत के पार तुम्हारा कुछ होना है। उसे थोडा पहचान लो, उसका थोड़ा अनुभव कर लो, मौत उसे नष्ट न कर पाएगी।
जिसने स्वयं को जाना, मौत उसके सामने हार जाती है। और मौत जल्दी आ रही है। तुम कह रहे हो, इससे बचने का कोई उपाय है? मैं तो सारी चेष्टा यह कर रहा हूं कि तुम्हें समझ में आ जाए कि मौत जल्दी—जल्दी कदम बढ़ाए तुम्हारी तरफ चली आ रही है। तुम कह रहे हो कि मुझे रास्ता बता दें कि मौत से बचने का कोई उपाय। तुम सोचते हो, मैं कोई तुम्हें ताबीज—गडा दे दूं कि तुम बच जाओ मौत से।
जब तक कुछ अपनी कहूं सुनूं जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा— क्षण आ पहुंचा
फूटे भी तो थे बोल न स्वांस क्वांरी के
गीतों वाला इकतारा गिरकर टूट गया
हो भी न सका था परिचय दृग का दर्पण से
काजल आंसू बनकर छलका और छूट गया
इतनी जल्दी सब हो जाएगा। ज्यादा देर नहीं लगेगी।
जब तक कुछ अपनी कहूं सुनूं जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा — क्षण आ पहुंचा
कह भी न पाओगे अपने मन की, सुन भी न पाओगे अपने मन की और पाओगे कि आ गयी डोली। अर्थी उठने लगी, बंधने लगी।
फूटे भी तो थे बोल न स्वांस क्वांरी के
गीतों वाला इकतारा गिरकर टूट गया
इकतारा बज भी कहां पाता और टूट जाता है। कहां कौन कह पाता है जो कहना था! कहां कौन हो पाता है जो होना था!
हो भी न सका था परिचय दृग का दर्पण से
आंख अभी दर्पण से मिल भी न पायी थी
काजल आंसू बनकर छलका और छूट गया
मौत तो जल्दी बढ़ी आती है। और किसी भी क्षण द्वार पर दस्तक दे देगी। क्षण भर पहले भी खबर न देगी कि आती हूं। मौत तो अतिथि है। तारीख, तिथि बता कर न आएगी, बस आ जाएगी। एक क्षण फुरसत न देगी। तुम कहोगे, साज—सामान बांध लूं र मित्र—प्रियजनों से क्षमा मांग लूं र मिल लूं जुल लूं इतना मौका भी न देगी। जल्दी करो, इसके पहले कि मौत आ जाए, तुम अपने भीतर के अमृत को पहचान लो।
तो मैं तो चाहता हूं कि तुम्हें मौत के प्रति और सजग करूं, मैं तो चाहता हूं कि तुम्हें और कंपा दूं—तुम्हारी जड़ें हिल जाएं—तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें नींद में सुला दूं? कोई रास्ता बता दूं? कोई तरकीब दे दूं कि जिससे मौत से बचाव हो जाए। मौत से बचकर करोगे भी क्या? अभी कर क्या रहे हो जिंदा रहकर, यही करोगे न बचकर! इसको कितने दिन तक करते रहने का मन है? सत्तर साल से मन नहीं चुकता? सात सौ साल करोगे, यही? हद हो गयी बात!
मैंने सुना है कि सिकंदर अपनी यात्राओं में एक ऐसी जगह पहुंचा जहां उसे पता चला कि एक झरने के पास एक ऐसा जलधार है कि अगर उसका कोई पानी पी ले तो अमर हो जाता है। तो वह गया, उस जलधार की खोज किया। जब वह पहुंचा जलधार के पास, बड़ा आनंदित हो गया। ऐसा स्फटिक स्वच्छ जल उसने कभी देखा न था। और चुल्ल भरने को ही था कि एक कौवा बैठा था वहां एक शाख पर, उसने कहा, रुक सिकंदर! पीछे पछताएगा। पहले मेरी बात सुन ले। सिकंदर बहुत हैरान हुआ, एक तो यह चमत्कार कि इस पानी को पीकर आदमी अमर हो जाता है। और यह एक चमत्कार कि यह कौवा बोलता है।
उसने पूछा कि क्या कहना है तुझे? कौवे ने कहा, कहना मुझे यह है कि मैंने भी यह पानी पीआ—मैं कोई छोटा—मोटा कौवा नहीं हूं जैसा तू सिकंदर है आदमियों में, ऐसा मैं भी एक सिकंदर हूं कौवों में—इसी की खोज मैंने सारे जीवन लगायी और मैंने यह झरना पा लिया और मैं यह पानी पी चुका। अब मैं तड़फ रहा हूं। हजारों साल से जिंदा हूं मरता नहीं। अब मर सकता नहीं। पहाड़ से गिरता हूं, पत्थर पर सिर पटकता हूं, जहर पीता हूं मरता नहीं। और अब जिंदगी में कुछ सार नहीं है—वही—वही कब तक दोहराए चला जाऊं? अब देख लिया सब। इसलिए तुझसे कहता हूं पहले सोच ले। फिर मर न सकेगा। फिर तेरी मर्जी! मैं इसीलिए यहां बैठा हूं कि अब और दूसरे कोई नासमझ यह गलती न कर लें जो मैंने की। और कहते हैं, सिकंदर थोड़ी देर सोचा और फिर चुपचाप सरक आया। उसने फिर उस झरने का पानी पीआ नहीं।
यह कहानी तो कहानी है। लेकिन बात बड़ी सच है। तुम पी सकोगे? अगर उस झरने के पास पहुंच जाओ! यह बात तुम्हें खयाल में न आएगी कि फिर पीकर करोगे क्या? फिर मरना असंभव हो जाएगा। नहीं, इस जिंदगी का सारा खेल मौत में समाया है। इस जिंदगी का सारा रस ही मौत के कारण है। और मौत जरूरी है। तुम मौत से बचो मत। तुम मौत को झुठलाओ मत, तुम अपने मन को बहला मत, तुम ‘ को स्वीकार करो।
आगे पीछे एक दिवस
आना ही होगा तेरे द्वारे
इसीलिए जीवन भर मैंने
नहीं गेह पर दिये किवाडे
लेकर कोई कर्ज सीस
तेरे गोकुल जाना न उचित था
यही सोच सौ—सौ हाथों से
बांटे जग को चांद—सितारे
लेकिन इस संन्यासीपन का
फल यह सिर्फ मिला दुनिया से
आंसू तक सब रेहन हो गये
अर्थी तक नीलाम हो गयी
मैंने तो सोचा था अपनी
सारी उमर तुझे दे दूंगा
इतनी दूर मगर थी मंजिल
चलते —चलते शाम हो गयी
यहां तो सब लुट जाएगा।
आंसू तक सब रेहन हो गये
अर्थी तक नीलाम हो गयी
यहां तो सब चुक जाएगा। यहां तो सब छूट जाएगा।
अर्थी तक नीलाम हो गयी
यहां तो कुछ बचेगा नहीं। इसलिए मैं तुम्हें सांत्वना नहीं देता। मैं तुम्हें झकझोरना चाहता हूं। मैं तो तुम्हारी सांत्वनाएं छीन लेना चाहता हूं। मैं तो तुमसे कहता हूं, मौत निश्चित है। मौत होनेवाली है। मौत कल होगी। आने वाले क्षण में हो सकती है। बचो मत, स्वीकार करो। और जितनी देर क्षण बचे हैं, इनको तुम जीवन की तलाश में लगा दो। अंतस—जीवन की तलाश में। वहा है किरण अमृत की, शाश्वत की। और वह तुम्हारी किरण है। मिल सकती, तुम उसके मालिक हो। तुमने दावा नहीं किया है दावा करो! घोषणा करो। शरीर से अपने को थोड़ा हटाओ, चैतन्य में थोड़े जयों।
हरि ओंम तत्सत्।
आज इतना ही।
🙏
दिनांक 7 फरवरी,1977;
श्री ओशो आश्रम, पूना।