Shaheed Bhagat Singh Poem | शहीद भगत सिंह पर कविता

Shaheed Bhagat Singh Poem | शहीद भगत सिंह पर कविता: यह कविता ओज कवि संजीव त्यागी ने लिखी है, इसमें शहीद भगत सिंह के जीवन के प्रत्येक पड़ाव को दर्शाने का प्रयास किया गया है।

वो दीवाना था आजादी का, देश का कोहिनूर था,

औ खुद को खाक जलाकर, रोशन करता ऐसा नूर था।

खेल रहा था जब बचपन भी, जादू औ खिलौने में, 

दीवाने की लगन तो देखो, व्यस्त था पिस्टल बौने में,

कर्ज चढ़ा है मुझ पर भारत माता के अरमानों का,

जी नहीं सकता बोझ लिये मैं खुदगर्जी संतानों का,

मैं मगरूर नहीं हो सकता, मुझको भी कुछ करना है,

लहू पुकारेगा जब हमको, देश वतन पर मरना है,

माटी जब उगलेगी तेरे, बोये हुए सब तीरों को,

मस्तक साहस भरेगा तेरा, फौलादी सब वीरों को,

तेरी करनी से ही तेरा भाग्य उदय हो जायेगा,

तुझको ना मालूम कि इक दिन तू इतिहास हो जायेगा,

सच्चाई के इस दर्पण में, दीपक बनकर निकला है,

झरनों की आगोशी में तू, दरिया बनकर निकला है,

मासूम नहीं है ना चंचल, बस टीस वतन की पाल रहा,

आतुर है कर जाने को, पर तेरा बचपन साल रहा,

अभी अभी अंगड़ाई उगी है, अभी जवानी दूर है,

तरुणाई भी पास में तेरे, उड़ जाने को चूर है,

तूफानों को किसने रोका, रोक सका ना कोई भी,

नस नस में दहकी थी ज्वाला, जान सका ना कोई भी,

बस आंखों से अंगार बरसते, ऐसा नशा सरूर था,

औ खुद को खाक जलाकर, रोशन करता ऐसा नूर था।


अनशन पर बैठा जनता की देह की रूह जगाने को,

त्याग तपस्या देश है प्रथम, ऐसी अलख जगाने को।

जान नहीं थी आजादी थी दुल्हन जिस दीवाने की,

तन मन था जब रंगा बसंती औ जिस्मों जां परवाने की,

उम्र रही थी तेईस बरस की, झूला था जब फांसी पर,

ऐसी विद्रोह आग लगी थी, पूरे भारत झांसी पर,

तेईस मार्च की उस बेला को, देश तड़प कर सिसका था,

सच बोलूं तो गौरों का मन, उसी दिना से खिसका था,

ऐसा था प्रचंड साहस वो, जब दुश्मन भी कांप उठा,

तीन चढ़े थे फांसी पर, तीन सौ का संताप उठा,

घर घर से दीवानों की मिट जाने को थी टोलियाँ,

गली गली से आती थीं जब, इंकलाब की बोलियाँ,

ऐसा लावा पिघल रहा था, भस्मासुर को खाने को,

सैलाब उमड़ कर आजादी का,तत्पर था जल जाने को,

नफरत की चिंगारी थी औ आग वतन की सीने में,

भाग फिरंगी देश हमारा, शान है मरने जीने में,

जख्मी शेर सा भूखा था जब हर वासी ललकारा था,

रूह भगत सिंह की लेकर जब हर बच्चा सरदारा था,

औ दीवानों की टोली थी बस, ऐसा नशा सरूर था,

औ खुद को खाक जलाकर, रोशन करता ऐसा नूर था।


देश वतन पर मिट जाने को, फांसी का दिन आया था,

आंसू भर भर रोई होगी जिस मां का वो जाया था।

बाप का सीना भी छलनी था, कांधे पर जब झूला था,

याद उसे बस देश प्रेम है बाकी वो सब भूला था।

रग रग में तूफान भरा और उम्मीदों का मेला था,

मिटने को तैयार कारवां ऐसा जिगरी रेला था। 

मस्तक पर अम्बर बैठा था, सीने में गहरा सागर,

दिवाली सी थी दिल में, अंगार बरसता वो सागर।

आंखों की पुतली चमकी थी डोरे भी मुस्काते थे,

वंदेमातरम् होंठों पर माटी का तिलक सजाते थे। 

नहीं तनिक भी डिगा मौत से फंदा चूम रहा था वो,

जैसे दुल्हन सेज देखकर ऐसे झूम रहा था वो।

पावन धरती पर देवों के जब जयकारे लगते हैं,

अमर शहीदों के मेले भी स्वर्ग से प्यारे लगते हैं।

धन्यै है वो माटी जिसने भगतसिंह सा वीर जना, 

एक दिये कि अमिट कहानी जो जलकर शमशीर बना।

बैठा आज दीवारों पर है ओज हिमालय से ऊंचा,

करके प्राण न्यौछावर अपने  “संजीव”  नभालय से ऊंचा।

हो बलिदान पतंगा दीपक पर, ऐसा नशा सरूर था।

औ खुद को खाक जलाकर रोशन करता ऐसा नूर था

कवि: संजीव त्यागी
मंगल पांडे नगर मेरठ
मोबाईल 8445652927