भगवान और देवता में अंतर
भगवान और देवता में अंतर

भगवान और देवता में अंतर

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  • अध्यात्म डेस्क, ई-रेडियो इंडिया

वेद पुराण अथवा शास्त्र-ग्रंथों के माध्यम से देवताओं को, जाना जा सकता है, उनकी प्रसन्नता के लिए शास्त्रों के अनुसार क्या-क्या शास्त्रीय कर्म होने चाहिए, यह भी जाना जा सकता है लेकिन इस विधान में परिश्रम बहुत होता है एवं नाना प्रकार के नियम और विभिन्न प्रकार की सामग्री की आवशयकता होती है। देवता प्रसन्न होने पर मनोवांछित सुख, धन संपत्ति और वैभव दे सकतें हैं। लेकिन देवता, किसी भी लोकिक-अलोकिक साधन से भगवान को प्राप्त कराने में सक्षम नहीं हैं।

वेदों के अनुसार, प्रत्येक जड़ रूप के विषय के स्वामी देवता होतें हैं। सूर्य देवता चन्द्र देवता, स्थान देवता ग्राम देवता ईष्ट देवता, धन के देवता इत्यादि सारे ग्रहों के देवता होतें हैं, जो मनुष्यों के द्वारा पूजित होतें हैं। ये सभी देवता ईश्वर की शक्ति माया के आधीन हैं और परतंत्र हैं, केवल माया के स्वामी ईश्वर, सत्य संकल्प और स्वतंत्र हैं।

मनुष्यों के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए, नियम-संयम के साथ, धूप, दीप प्रसाद, यज्ञ-हवन, जप, व्रत, स्तुति के द्वारा पूजा की जाती है, जिससे देवता प्रसन्न होतें हैं। भगवान को प्रसन्न करने के लिए ये सभी साधन काम नहीं आते हैं। भगवान शास्त्रीय धर्म-कर्म करने से, और न ही पूजा सामग्री से प्रसन्न होते हैं। पूर्ण श्रद्धा-विश्वास से मन के द्वारा की गयी पूजा और केवल उनके निमित्त पूर्ण शरणागति होने से, भगवान प्रसन्न होतें हैं।

देवताओं के प्रसन्न होने से व्यक्ति को संसारी सुख-साधन और शरीर का सुख मिलता है। मरणों उपरांत, मनुष्य के अपने कर्मानुसार स्वर्ग की प्राप्ति, अथवा अपने ईष्ट देवता के लोक की प्राप्ति, होती है अथवा पृथ्वी लोक में उनका पुन: आगमन होता है।

भगवान के प्रसन्न होने पर भगवान के प्रति शरणागत हुए व्यक्ति को, अपने जीवन के रहते हुए इस लोक में ही, भगवान के द्वारा, सीधे उसकी आत्मा में तत्व ज्ञान मिलता है एवं नित्य बढ़ते रहने वाला आनंद मिलता है। मरणों उपरांत आवागमन (जन्म-म्रत्यु) से मुक्ति, एवं भगवान का बैकुंठ लोक मिलता है।

भगवान के स्वअंश श्री महादेव जी, जो इस संसार के स्वामी है, वे ही सभी देवताओं के भी स्वामी हैं। इस पृथ्वी पर केवल उनकी कृपा से ही मनुष्यों को धन वैभव विजय और ख्यति का मिलना संभव है। श्री राम एवं श्री कृष्ण को भी विजय और श्री पाने के लिए, महादेव जी की स्तुति करनी पड़ी।

प्रत्यक्ष में यह देखा जाता है कि, संसार में लगभग सभी मनुष्य किसी न किसी शारीरिक एवं मानसिक दुःख से पीड़ित हैं। उनके दुखों को दूर करने के लिए आदिकाल से ऋषि मुनियों ने भगवान की सहायता से अथक प्रयास किये। सत्य नारायण की कथा में, नारद जी ने, पृथ्वी लोक में भ्रमण करते हुए अति दुखी और क्लेश युक्त मनुष्यों को देखा। नारद जी ने दया करके सभी दिन-दुखी मनुष्यों के कल्याण के लिए, नारायण भगवान से सरल उपाय पूछा।

नारायण भगवान ने, नारद जी को बताया कि, मनुष्य यदि सत्य का आचरण करते हुए और भगवान पर श्रद्धा विश्वास रखते हुए, किसी जानकर अथवा ब्राह्मण की सहायता से सत्य नारायण भगवान का व्रत-कथा करे और कथा वाचक को अपने सामर्थ के अनुसार दान करे, तो उसके दुःख दूर हो जातें हैं। इस तरह से, श्री सत्य नारायण की व्रत-कथा करने से बहुत से मनुष्यों का भला हुआ। लेकिन कर्म कराने वाले गरीब व्यक्तीयों एवं जानकार ब्राह्मणों का भला नहीं हो पाया क्योकि वे लोग, अभाव के कारण अथवा पूर्ण श्रद्धा न होने के कारण स्वयं व्रत-कथा और दान नहीं कर पाये।

दुःख और क्लेश की जननी माया है। इसके आकर्षण और मोह के कारण मनुष्यों में अज्ञान और अहंकार होता है। यह भगवान की शक्ति हमारे जन्म लेने के पहले से ही संसार में व्याप्त है। यह भगवान की माया, संसार के सञ्चालन के लिए और सभी प्राणियों के जीवन यापन में सहायक है। जो मनुष्य अपने जीवन यापन के लिए आवश्यक वस्तुओं का सहारा लेकर, उनका सदुपयोग करतें हैं, वे व्यक्ति अपना जीवन शांति पूर्ण एवं क्लेश रहित व्यतीत करते हैं।

जो व्यक्ति मोह वश माया की आकर्षित करने वाली अनावश्यक वस्तुओं के प्रति आकर्षित हो जातें हैं, और बिना विधाता के विधान को जाने, उन अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करतें हैं। ऐसे व्यक्तियों के मन में नित्य नई-नई कामनाएँ जन्म लेतीं रहतीं हैं। कामनाएँ पूरी न होने के कारण क्रोध का जन्म होता है।

क्रोध आने से मनुष्य की बुद्धि भ्रमित हो जाती है। ऐसे कथित सम्पन्न लोग बाहर से बड़े सुखी नज़र आतें हैं लेकिन उनका पूर्ण जीवन क्लेश युक्त और आपदाओं से ग्रसित होता है।

सभी अलग-अलग ग्रहों,एवं जड़ विषयों, पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि, जल, इत्यादि का आधिपत्य उनके स्वामी देवताओं के पास होता है। हमारी सनातन संस्कृति और वेद–पुराणों के अनुसार पुरे ब्रह्माण्ड में ईश्वर एक है लेकिन देवता अनेक हैं। देवता, प्रसन्न होने पर मनुष्य को मनोवांछित फल देतें हैं लेकिन, भगवान की प्राप्ति का, एवं भगवान की भक्ति को प्राप्त करवाने का वरदान, हमें नहीं दे सकते।

  • सुभाष तत्वदर्शी
  • लेख से सम्बंधित प्रश्नों के लिए इस ई-मेल पर संपर्क करें- sadgurupanth@gmail.com

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Pratima Shukla

प्रतिमा शुक्ला डिजिटल पत्रकार हैं, पत्रकारिता में पीजी के साथ दो वर्षों का अनुभव है। पूर्व में लखनऊ से दैनिक समाचारपत्र में कार्य कर चुकी हैं। अब ई-रेडियो इंडिया में बतौर कंटेंट राइटर कार्य कर रहीं हैं।

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